यह नई पुस्तक एक समय में हिंदूवादी बौद्धिक रहे श्री अरुण शौरी की है । अरुण शौरी को किन ताकतों ने इंडियन एक्सप्रेस का संपादक बनवाया था यह किसी से छिपा नहीं है। कालांतर में अटलबिहारी सरकार में अरुण शौरी मंत्री भी रहे और जब २०१४ में मोदी सरकार ने शपथ ली तब अरुण शौरी के साथ एक खास गिरोह ने सक्रिय हो कर उन्हें वित्त मंत्री बनाने के लिये सक्रिय अभियान भी चलाया ! मोदी ने अपने विश्वस्त अरुण जैटली को वित्तमंत्री के रूप में लिया और तबसे धीरे धीरे शौरी का हृदय परिवर्तन होने लगा और वे मोदी विरोधी हो गये। यशवंत सिन्हा जैसे कई अन्य भी पद न मिलने पर सरकार विरोधी होकर स्वतंत्र विचारक कहलाने लगे। खैर यदि तथ्यों की बात है तो यह पुस्तक पढ़नी पड़ेगी
श्राद्ध के दौरान जो मांस नहीं खाता है वह 21 बार जानवर की योनि में पैदा होता है: मनुस्मृति
अब मनुस्मृति की बात चली है तो कुछ चीजें मनुस्मृति में जो लिखी हैं उन पर भी नजर दौड़ा लिया जाए। और यह हम किसी कपोलकल्पित किताब या स्थान से नहीं बल्कि संघ और हिंदुत्ववादी खेमे के सबसे प्रिय और उनकी वैचारिक ऊर्जा के स्रोत वीडी सावरकर के हवाले से लिख रहे हैं। हाल में आयी लेखक और संपादक अरुण शौरी की किताब ‘द न्यू आइकॉन-सावरकर एंड द फैक्ट्स’ में उनके हवाले से ‘और मनुस्मृति किस चीज का निर्देश देती है’ शीर्षक से जो बातें लिखी गयी हैं बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो गयी हैं।
किताब के पेज नंबर 12 पर लिखा गया है कि मनुस्मृति न केवल मांस खाने की इजाजत देती है बल्कि यज्ञ और श्राद्ध में वह इसको जरूरी बताती है। इस सिलसिले में सावरकर बाकायदा मनुस्मृति के श्लोकों का हवाला देते हैं। जिसमें लिखा गया है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय बहुत सारे यज्ञों में जानवर और चिड़ियों का भक्षण करते हैं। और यह कि श्राद्ध के दौरान मांस खाना और खिलाना बहुत ही शास्त्र सम्मत है। यह ब्राह्मणों का आवश्यक कर्तव्य है। न केवल यही बल्कि मनुस्मृति इस बात की घोषणा करती है कि श्राद्ध के दौरान जो मांस नहीं खाता है वह 21 बार जानवर की योनि में पैदा होगा। इस तरह के डिफाल्टरों के लिए इतना बड़ा दंड का प्रावधान था।
और इतना ही नहीं किस चीज का मांस खाया जाना चाहिए उसके बारे में भी लिखा गया है। वह भैंसा, बैल और जंगली सुअर का मांस होना चाहिए। अगर संतान ऐसा करती है तो उसके पुरखे न केवल एक दिन के लिए बल्कि दस महीनों के लिए तृप्त हो जाते हैं। और यही बात नवजात शिशु के लिए भी कही गयी है। सावरकर अपने आलोचकों को याद कराते हुए कहते हैं कि पहला खाना जो नवजात शिशु को दिया जाना चाहिए उसमें भेड़ के बच्चे, तीतर और मछली का शोरबा होना चाहिए।
इस मामले में जब विवाद और आगे बढ़ा तो सावरकर ने मनुस्मृति के उन अध्यायों और श्लोकों को कोट कर दिया जिनमें जानवरों को मारकर उनका मांस खाने आदि जैसी बातें लिखी गयी हैं। मनुस्मृति के अध्याय तीन का श्लोक नंबर 55, 56, 60 और 61 बिल्कुल साफ-साफ दिखाता है कि ब्राह्मण और दूसरे लोग श्राद्ध और यज्ञ के दौरान मांस और मछली खाया करते थे।
ब्राह्मणों के लिए इस दौरान मांस और मछली का भोजन अनिवार्य कर दिया गया था। ढेर सारे श्लोक इस बात के लिए लिखे गए हैं कि कैसे इन व्यंजनों को तैयार किया जाना चाहिए। भोजन को गरम-गरम खिलाया जाना चाहिए। क्योंकि हमारे पुरखे तभी भोजन करते थे जब वह गरम होता था। और इसे बिल्कुल मौन होकर वितरित किया जाना चाहिए। पुजारी जब भोजन कर रहे हों तो किसी भी अछूत, सुअर, मुर्गा, कुत्ता, माहवारी वाली महिला या फिर नपुंसक पुरुष को उन्हें देखने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
इतना ही नहीं मनुस्मृति में यह भी लिखा गया है कि किस भोजन में कितने दिनों तक पुरखों को तृप्त किए रखने की क्षमता होती है। दिलचस्प बात यह है कि मांसाहारी भोजन में यह सबसे ज्यादा होती है। तिल, चावल, फलियां, बीन्स, सिंघाड़ा और फल उनकी भूख को केवल एक महीने तक शांत रख पाते हैं। मछली दो महीनों तक, हिरन का मांस तीन महीनों तक, मटन चार महीने तक, चिड़ियों का मांस पांच महीने तक, बकरी छह महीने तक, चित्तेदार हिरन का मांस सात महीनों तक, काले हिरन का मांस आठ महीनों तक तृप्त रखता है।
चिंकारा या फिर बारासिंघा का मांस नौ महीने तक पितरों को तृप्त रखता है। जबकि जंगली सुअर और जंगली भैंसों के मांस से पुरखे दस महीने तक भूखे नहीं रहते हैं। और चूहे तथा खेंचुए का मांस उन्हें 11 महीनों तक भोजन की आवश्यकता महसूस नहीं होने देता।…..मधुरपाक, यज्ञ, श्राद्ध और देवपूजा के दौरान जो ब्राह्मण किसी जानवर को मारता है वह न केवल खुद बल्कि जानवर के लिए भी उत्तम गति को प्राप्त करता है।