राम पुनियानी
अपने गठन के बाद से ही आरएसएस ऐसी अनेक संस्थाओं का निर्माण करता आया है जो हिंदुत्व या हिन्दू राष्ट्रवाद की उसकी विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम करती हैं। हिंदुत्व की अवधारणा आर्य नस्ल, ब्राह्मणवादी मूल्यों और सिन्धु नदी से लेकर समुद्र तक की भूमि के आर्यावर्त होने पर आधारित है।
आरएसएस ने जिन संगठनों और संस्थाओं को जन्म दिया है, उनकी संख्या 100 से ज्यादा है।
इसके अलावा अनेक ऐसे संगठन हैं जो भले ही औपचारिक रूप से संघ परिवार के सदस्य न हों, मगर वे उसकी विचारधारा में रचे-बसे हैं। इनमें साधु-संतों के अनेक संगठनों व गौरक्षकों के समूहों सहित ऐसे अनेक गिरोह शामिल हैं जो हिन्दू धर्म के नाम पर हिंसा करने के मौकों की तलाश में रहते हैं।
अब ऐसे कई संगठन अस्तित्व में आ चुके हैं जो अत्यंत आक्रामक हैं और जो आरएसएस द्वारा उसके अनुयायियों के लिए निर्धारित लक्ष्मणरेखा को पार करने में तनिक भी संकोच नहीं करते।
गौरक्षकों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि गाय के नाम पर मनुष्यों की हत्या स्वीकार्य नहीं है। उनके इस वक्तव्य के कुछ ही घंटे बाद, इसी मुद्दे पर एक मुसलमान को मौत की घाट उतार दिया गया। इसी तर्ज पर, प्रधानमंत्री ने क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर कहा कि “प्रेम, सौहार्द और भाईचारा, ईसा मसीह के शिक्षाओं का केन्द्रीय तत्व हैं।”
उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वे इन मूल्यों को मजबूती दें। इसके कुछ ही दिन बाद, बजरंग दल के सदस्यों और हिन्दू धर्म के अन्य स्व-नियुक्त ठेकेदारों ने अहमदाबाद में सांता क्लॉज के भेष में उपहार बांट रहे एक व्यक्ति पर हमला किया।
सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में दिखाया गया है कि अहमदाबाद के कांकरिया कार्निवल में सांता क्लॉस की वेशभूषा पहने दो लोगों की गुंडों ने जबरदस्त पिटाई की। यह शायद पहली बार है कि सांता क्लॉस का भेष धरे लोगों पर हमले हो रहे हैं।
इसके पहले कैरोल गायकों पर हमले हो चुके हैं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रपति भवन में कैरोल गायन की परंपरा बंद कर दी गई है। बजरंग दल हिन्दुओं को क्रिसमस पार्टियों में भाग न लेने की चेतावनियां जारी कर चुका है। इस बार क्रिसमस पर ये सब हरकतें कुछ कम क्यों हुईं?
हाल में हमने हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने के अभियान का आगाज़ भी देखा है, जो बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की याद दिलाता है। इस तरह के काल्पनिक दावों के ज्वार के बाद आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने भी कहा कि हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने के प्रयास बंद करने चाहिए।
यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि काशी में फव्वारे-जैसे एक ढांचे को शिवलिंग बताया जा रहा है और मस्जिद को मंदिर में बदलने की मांग हो रही है। उत्तरप्रदेश के संभल में ऐसे ही दावों के बाद हिंसा हो चुकी है।
शायद इस सब ने देश की सबसे बड़ी राजनैतिक संस्था के शीर्ष नेता को झकझोर दिया है। या फिर शायद उन्हें यह लग रहा है कि इससे संघ परिवार की छवि ख़राब होगी। इसलिए उन्होंने एक ऐसा आह्वान किया जो समझदारीपूर्ण लगता है।
उन्होंने कहा कि “अयोध्या के राममंदिर का सम्बन्ध आस्था से था और हिन्दू इस मंदिर का निर्माण चाहते थे। मगर सिर्फ नफरत के कारण नए स्थानों के बारे में विवाद खड़े करना अस्वीकार्य है।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि “कुछ लोग समझते हैं कि नए विवाद खड़े कर वे हिन्दुओं के नेता बन सकते हैं। इसकी इज़ाज़त कैसे दी जा सकती है।”
मगर इसके बाद एक चमत्कार हुआ। हिंदुत्व की राजनीति से जुड़े कई संगठनों ने भागवत की इस उपदेश का विरोध किया। हम सब जानते हैं कि आरएसएस में सख्त अनुशासन होता है और उसके सदस्य कभी अपने शीर्ष नेता के आदेशों का उल्लंघन नहीं करते। तो फिर यह कैसे हो रहा है कि दर्जनों सेनाएं और धर्म संसदें भागवत की अपील के खिलाफ बात और काम कर रही हैं?
इससे भी बड़ी बात यह है कि आरएसएस के अनाधिकारिक मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने भी अतिवादियों की मांग का समर्थन करते हुए लिखा कि, “मंदिरों की पुनर्स्थापना, हमारी पहचान की खोज है।” (द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, दिसम्बर 27, 2024)। उसने यह भी लिखा कि मंदिरों की पुनर्स्थापना का उद्देश्य हमारी राष्ट्रीय पहचान स्थापित करना और सभ्यतागत न्याय हासिल करना है।
क्या नफरत सचमुच इतनी गहरी है कि अनुयायी अपने नेताओं की बात भी नहीं सुन रहे हैं? या क्या नरेन्द्र मोदी जैसे नेता चाहते हैं कि नफरत भड़काने वाली हरकतें होती रहें क्योंकि इनसे उनकी राजनीति को मजबूती मिलती है? अगर ऐसा नहीं है तो हिंसा करने वालों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं होती?
क्या कारण है कि कानून और व्यवस्था बनाये रखने वाली मशीनरी से लेकर कुछ हद तक न्यायपालिका तक का उन तत्वों के प्रति नर्म रुख है जो नफरत फैलाते हैं और हिंसा करते हैं?
बाबरी मस्जिद को ज़मीदोज़ करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। गाय और गौमांस के नाम पर लिंचिंग करने वाले खुले घूम रहे हैं। लव-जिहाद के नाम पर हत्याएं और हमले करने वालों का बाल भी बांका नहीं हुआ है। जाहिर है कि ऐसे तत्वों को यह पता है कि वे आसानी से कानून तोड़ सकते हैं। वे जानते हैं कि कानून को तोड़मरोड़ कर उनका बचाव किया जाएगा।
‘आर्गेनाइजर’ द्वारा भागवत का विरोध मन में एक जिज्ञासा पैदा करता है। क्या आरएसएस विभाजित हो गया है? यह कैसे हो रहा है कि भागवत शांति और सौहार्द की बात कर रहे हैं और ‘आर्गेनाइजर’ के कर्ताधर्ता चाहते हैं कि नफरत और हिंसा की राह पर तेजी से आगे बढ़ा जाए?
एक और पहलू को समझने की ज़रुरत है। जब इस तरह की सोच को राजनैतिक लाभ के लिए बढ़ावा दिया जाता है और इससे चुनावों में फायदा होता है तो शुरुआत में तो नेताओं को ख़ुशी होती है।
मगर फिर, जो बीज नेताओं ने बोये होते हैं, उनसे कई नए तत्व उग आते हैं और जैसा कि भागवत ने कहा, उनमें से कुछ राजनैतिक पद और प्रभाव हासिल करने की जद्दोजहद में जुट जाते हैं।
हम सबको याद है कि जिस समय बाबरी मस्जिद गिराई जा रही थी, वरिष्ठ आरएसएस नेता के. सुदर्शन, जो आगे चल कर आरएसएस के मुखिया बने, मंच पर थे। इस अपराध की किसी को कोई सजा नहीं मिली। बाबरी मस्जिद के ढहाने वालों को निरपराध घोषित कर दिया गया और यह फैसला देने वाले जज को रिटायरमेंट के बाद एक महत्वपूर्ण पद मिला।
एक पुरानी कहावत है कि ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।’ बाबरी मस्जिद की पूरी कथा से यह साफ़ है कि मंदिरों को तोड़ने के झूठे नैरेटिव फ़ैलाने के अलावा, मुसलमानों के बारे में अनेक मिथक भी फैलाए गए। नतीजा हम सबके सामने है।
आरएसएस के मुखिया की बात अब उनके ही समर्थक और अनुयायी सुनने को तैयार नहीं हैं। इसके अलावा, ईसाईयों के बारे में भी दशकों से यह प्रचार किया जा रहा है कि वे जोर-ज़बरदस्ती, धोखेबाजी और लोभ-लालच के ज़रिये धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं।
मोदी, भागवत और उनके जैसे अन्यों को यह समझ में आ रहा होगा कि जिन्न को बोतल से निकलना आसान है। उसे फिर से बोतल में बंद करना मुश्किल है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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