अमिता शीरीं
मुक्ति की कामना औरतों की जिंदगी का अभीष्ट है। हिंदी में लिखी पहली दलित आत्मकथा कौसल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ का निचोड़ भी यही है। कौसल्या अपने जीवन की कथा कहते हुए जीवन की कठिनाइयों का पन्ने-दर-पन्ने वर्णन करती हैं, साथ ही वे बिना किसी लफ्फाज़ी के इस बात की स्थापना करती हैं कि स्त्रियों की मुक्ति का एक ही तरीका है, और वह शिक्षा है। शिक्षा का महत्व ज़ाहिर तौर पर उन्हें डॉ. आंबेडकर के दर्शन से मिला है, क्योंकि छोटी-सी उम्र में ही वह उनके आंदोलन से जुड़ गई थीं।
हालांकि आंदोलन से जुड़ने के बावजूद वह एक ऐसे व्यक्ति से विवाह करती हैं, जो अपनी तमाम शिक्षा के बावजूद अपनी पत्नी के लिए अंततः ‘मर्द’ ही साबित हुआ। पितृसत्ता के अपमानजनक चक्र से मुक्ति पाने का फैसला करने में कौसल्या जी को 40 साल लग गए। दरअसल हुआ यह कि पितृसत्ता के अभिशाप से मुक्ति पाने के लिए शादी के इतने सालों के बाद अपने पति के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत करने और कोर्ट में केस करने का उन्होंने साहस किया था। उनका यह कदम प्रेरणादायक है, क्योंकि आज भी बहुत पढ़ी-लिखी औरतें भी आजीवन अपमान सहते हुए भी अलग होने का फैसला नहीं कर पाती हैं। यहां यह भी उल्लेखित करना ज़रूरी है कि उनकी बेटी सुजाता पारमिता इस फैसले के पीछे उनका प्रेरणास्रोत थी।
अपनी आत्मकथा की भूमिका में कौसल्या घोषणा करती हैं–
“मैं लेखिका नहीं हूं, न साहित्यकार। लेकिन अस्पृश्य समाज में पैदा होने से जातीयता के नाम पर जो मानसिक यातनाएं सहन करनी पड़ीं, इसका मेरे संवेदनशील मन पर असर पड़ा। मैंने अपने अनुभव खुले मन से लिखे हैं। पुरुष प्रधान समाज औरतों का खुलापन बर्दाश्त नहीं करता। पति तो इस ताक में रहता है कि पत्नी पर अपने पक्ष को उजागर करने के लिए चरित्रहीनता का ठप्पा लगा दे।
“पुत्र, भाई, पति सब मुझ पर नाराज़ हो सकते हैं, परंतु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूं। मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं को हुए होंगे। परंतु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती हैं और घुटन में जीती हैं। समाज की आंख खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने आने की ज़रूरत है।”
आज़ादी की यह चाह कौसल्या बैसंत्री को विरासत में मिली थी। उनकी आजी (नानी) के माता-पिता बचपन में ही गुजर गए थे। उन्हें उनके भाई-भाभी ने उन्हें पाला था। बचपन में ही उनकी शादी हो गई और गौना होने से पहले आजी के पति की मौत हो गई। कौसल्या कहती हैं–
“अस्पृश्य समाज में कोई विधवा दुबारा शादी करना चाहे तो उसके लिए कोई रोक-टोक तो थी ही नहीं। तलाकशुदा औरत को भी दूसरा घर करने में समाज को कोई आपत्ति नहीं थी। पर इस दूसरी शादी की विधि अलग थी और इसे विवाह न कह कर ‘पाट’ कहते थे।” लेकिन वह औरत किसी कुंवारे आदमी से शादी नहीं कर सकती थी। ज़ाहिर है कौसल्या की आजी की शादी भी एक बड़े उम्र के शादीशुदा आदमी मोडकूजी साहूकार से कर दी गई। कौसल्या कहती हैं कि उस समय दो पत्नी रखना बुरा नहीं माना जाता था। मोडकू जी आजी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। बात-बात पर गाली-गलौज, मारपीट रोज़ की बात थी। नाना रोज़ दारू पी कर अपना गुस्सा आजी पर उतारते। तंग आकर आजी ने अपने बच्चों के साथ घर छोड़ दिया। रास्ते में मुश्किलें उनका पीछा नहीं छोड़ रही थीं। उनकी बेटी सरस्वती को तेज़ बुखार था, रास्ते में ही उसने दम तोड़ दिया। वहीं एक गड्ढे को और गहरा करके उन्होंने अपने जिगर के टुकड़े को दफना दिया तथा अपने दोनों बच्चों को लेकर रोते हुए नागपुर तक की यात्रा की। बाद में उनका बेटा श्रवण भी जिंदगी की लड़ाई 18 साल की उम्र में टायफाइड के कारण हार गया और उसकी मौत हो गई। तमाम तकलीफ़ें उठाकर उन्होंने अपने दम पर अपनी बेटी यानि कौसल्या की मां की परवरिश की।
कौसल्या के माता-पिता बहुत मेहनती थे। डॉ. आंबेडकर के प्रभाव में उन्होंने तमाम गरीबी के बावजूद अपने बच्चों को पढ़ाया। वे दोनों जीवन-भर मजदूरी और संघर्ष करते रहे। उनके बाबा ने 18 साल तक एक बेकरी में काम किया। इस दौरान उनकी पगार एक रुपया भी नहीं बढ़ी। बाद में उनकी मां ने उन्हें इस नौकरी को छोड़ देने को कहा। बाबा कबाड़ी का काम करने लगे। अंत में मां और बाबा दोनों नागपुर की इम्प्रेस मिल में काम करने लगे। “आई और बाबा जिस बस्ती में रहते थे, उसका नाम था – खलासी लाइन्स।….मेरा जन्म इसी खलासी लाइन्स में 8-9-26 को हुआ था।”
कौसल्या जब दस बरस की थीं तब उनकी आजी (नानी) की मौत हो गई। उनकी आजी का उनके ऊपर गहरा प्रभाव था।
“आजी के पास मरते समय एक गठरी और एक पीतल का लोटा था। गठरी खोलने पर उसमें चार-पांच गज सफ़ेद कपड़ा था और एकदम नया और एक छोटे कपड़े की थैली में कुछ रुपए बंधे थे, साथ में सिंदूर अबीर-गुलाल और विठोबा के मंदिर का प्रसाद था। आजी हर दम कहा करती थीं कि वह अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगी, किसी पर बोझ नहीं बनेंगी। अपने कफ़न का सामान भी वह खुद जुटाएंगी और उन्होंने अपनी बात पूरी करके दिखाई।”
स्वाभिमान की यह लहर कौसल्या जी तक उनकी आई (मां) से होती हुई आई थी। इसके बाद कौसल्या बैसंत्री अपने जीवनानुभवों को पन्ने-दर-पन्ने दर्ज करती रहीं। उनके आई-बाबा (माता-पिता) अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए जी-तोड़ संघर्ष करते हैं। बच्चों को पढ़ाने के कारण उन्हें बस्ती और समाज वाले बहुत कुछ सुनाते थे, लेकिन वे किसी की कुछ नहीं सुनते थे। उनको पढ़ाने की खातिर उनके माता-पिता को बहुत संघर्ष करना पड़ा। वह लिखती हैं–
“जब बड़ी भिड़े कन्याशाला में पांचवीं में प्रवेश लिया तब स्कूल की फीस ज़्यादा थी। …बाबा ने हमारी हेड मिस्ट्रेस से बहुत विनती की कि वे फीस नहीं दे सकते। बहुत मुश्किल से वह मान गई और कहा कि अच्छी पढ़ाई-लिखाई न करने पर स्कूल से निकाल देगी। बाबा ने हेड मिस्ट्रेस के चरणों के पास अपना सर झुकाया दूर से, क्योंकि वे अछूत थे, स्पर्श नहीं कर सकते थे। बाबा का चेहरा कितना मायूस लग रहा था उस वक्त! मेरी आंखें भर आई थीं। अब भी इस बात को याद करके बहुत व्यथित हो जाती हूं। अपमान महसूस करती हूं। जाति-पांति बनाने वाले का मुंह नोंचने का मन करता है। अपमान का बदला लेने का मन करता है।”
जैसे-जैसे कौसल्या पढ़ाई करती गईं, उनकी चेतना जागृत और विकसित होती गई। उनके समाज के लोगों ने अपनी शैक्षणिक समस्याओं को लेकर एक समिति बनाई थी। ‘अस्पृश्य विद्यार्थी परिषद’। उस वक्त वह नौवीं कक्षा में पढ़ती थीं। वह इस संगठन की उप-सचिव थीं। 1943 में नागपुर में इसका अधिवेशन किया गया।
उनके घर में संगठन से जुड़े लड़के आते थे। इसके लिए भी समाज परिवार के लोग बुरा-भला कहते। लेकिन वे लोग चुपचाप पढ़े जाते। कल्पना करने की बात यह है कि 40 के दशक में जब औरतों का सांस लेना दूभर था, उस वक्त उनके माता-पिता समाज से पंगा ले रहे थे।
दलित समाज को यह ताकत डॉ. आंबेडकर के विचारों से मिली थी। कौसल्या बैसंत्री लड़कपन से ही उनके प्रभाव में आ गई थीं। वह लिखती हैं कि उन्होंने उनका पहला भाषण दस साल की उम्र में नागपुर के कस्तूरचंद पार्क में सुना था। वहां डॉ. आंबेडकर ने कहा था– “अगर हिंदू हमें अपनी बराबरी का नहीं समझेंगे तो हम धर्मांतरण करेंगे।”
वह कहती हैं कि डॉ. आंबेडकर के विचारों का अस्पृश्य समाज के लोगों के ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव पड़ना स्वभाविक ही था, क्योंकि उन्होंने ही पहली बार अस्पृश्य समाज में यह बोध जगाया कि वे भी इंसान हैं। इस देश पर उनका हक़ है, उन्हें भी सम्मानित जीवन जीने का अधिकार है। डॉ. आंबेडकर ने उनकी हिम्मत बढ़ाई और अपने मानवीय हक़ के वास्ते लड़ने के लिए उन्हें प्रेरित किया। आज जो भी उन्नति अस्पृश्य समाज कर रहा है और करने के लिए अग्रसर हो रहा है, यह बाबा साहब की देन है।
वह बताती हैं कि अस्पृश्यों की बस्तियों में चक्की में गेहूं पीसती हुई औरतें बाबा साहब के गीत गाती थीं। लड़का पैदा होने पर उसे झूले में डालने के समय और बच्चे के जन्म दिवस पर भी बाबा साहब के गीत गाए जाते और कामना की जाती कि बच्चा बाबा साहब जैसा बने।
कौसल्या अपनी बस्ती की औरतों की कहानी सुनाती हैं। ज़्यादातर औरतें मेहनतकश लेकिन ज़्यादातर पितृसत्ता के दंश से दुखी। ठुमी अपने पति की दूसरी पत्नी है, जो सुबह से शाम तक काम करती है और हर साल बच्चा पैदा करती है। उनके घर में ढेर सारे बच्चे थे। बच्चों के लिए बाज़ार से पुराने कपड़े आते। उनके घर में हमेशा आलू-बैगन की सब्जी बनती थी।
एक अन्य महिला सोगी मरे हुए जानवर का मीट बेचती थी। एक अन्य महिला रामकुंवर मिल में काम करती थी। उसका पति जयराम निठल्ला था। पहली तारीख को मिल के गेट पर खड़ा हो कर पत्नी की पगार छीन लेता। उसकी पत्नी को मिल में ही किसी से इश्क हो गया। इसकी उसे सज़ा मिली। उसे निर्वस्त्र करके गधे पर बस्ती में घुमाया गया। अपमान बर्दाश्त न कर पाने के कारण उसने कुंए में छलांग लगा दी और मर गई। और अंततः एक कहानी बन गई।
अपनी बस्ती का जिक्र करते हुए कौसल्या बताती हैं– “बस्ती में ज़्यादा घर मिट्टी के थे। कुछ घास-फूस की झोपड़ियां भी थीं, पर बहुत कम। जो थोड़े पैसे वाले थे, उनके मकान ईंट के थे। ऐसे घर पूरी बस्ती में 5-6 ही होंगे।… ज्यादातर महार जाति के अछूत यहां रहते थे। कुल 10-15 घर आंध्र प्रदेश के चमारों के थे। क़रीब 30-40 घर सफ़ाईकर्मियों के थे। मांग (अछूत) जाति के भी लगभग 15 घर थे।…महार लोगों की संख्या बस्ती में ज़्यादा थी।… महार जाति के कुछ लोग नागपुर के इम्प्रेस और मॉडल मिल में काम करते थे… मांग जाति से महार लोग छुआछूत बरतते थे…”
बाबा साहब की जलाई लौ हमेशा उनके अंदर जलती रही। संभवतः इसी कारण से जातीय अपमान का दंश उन्हें बहुत सालता था। वे कहती हैं– “मैं अस्पृश्य हूं, यह भावना मन से कभी जाती ही नहीं थी।” लेकिन, स्कूल में, समाज में हर जगह तमाम जातीय उत्पीड़न और अपमान का सामना करते हुए भी उन्होंने बाबा साहब द्वारा दिए गए शिक्षा का मूल मंत्र कभी नहीं त्यागा।
21 वर्ष की आयु में कौसल्या बैसंत्री की शादी बिहार के रहने वाले देवेंद्र कुमार से हुई। तब एम.ए., एलएलबी करके वह बनारस विश्वविद्यालय से डीलिट कर रहा था। उस समय के हिसाब से अपनी बड़ी उम्र के दबाव, देवेंद्र कुमार की उच्च शिक्षा और सामाजिक कामों की सक्रियता के कारण कौसल्या ने दबे मन से इस विवाह के लिए हामी भर दी थी।
दलित होने के बावजूद देवेंद्र कुमार भयंकर सामंती आदमी था। किसी भी समस्या में अपनी पत्नी से सलाह लेना उसकी मर्दानगी के ख़िलाफ़ था। वह घर चलाने के लिए एक पैसा उनके हाथ में नहीं रखता। सब्जी आदि के लिए गिन कर पैसा रखता। बाकि तेल, साबुन, चीनी सब अपनी अलमारी में बंद रखता। बाद में वह लेबर इंस्पेक्टर हो गया। कौसल्या का जीवन नरक बन चुका था। वह बात बात पर गंदी गालियां देता और भयंकर क्रूरता से मारता। आज़ाद रहने वाली कौसल्या पति की गुलाम बनकर रह गई। इतनी पढ़ी-लिखी लड़की विवाह संस्था में दासी बन गई। वह कौसल्या के प्रति हमेशा असम्पृक्त रहता। ख़ासतौर से जब उनके बच्चे होते तो वह उनकी खैरख्वाह लेने भी नहीं जाता।
भोपाल के हमीदिया अस्पताल में पैदा हुए उनके पांचवे बच्चे की पैदाइश का ज़िक्र उन्होंने विस्तार से किया है। जिस दौरान पता होने के बावजूद वह दौरे पर निकल जाता है और लौटने के बाद भी उससे मिलने तक नहीं आता। कौसल्या अपमान के घूंट पीकर रह जाती हैं। वह लिखती हैं– “इस प्रसंग की याद आते ही मेरा खून खौलने लगता है।”
इतना अपमान झेलने के बाद भी इस रिश्ते से निकलने का फैसला करने में उन्हें 40 साल का वक्त लगा।
भोपाल से वह दिल्ली आ गई। उनके बच्चे बड़े हो गए थे। उन्होंने एक बार फिर से अपना सामजिक काम शुरू किया और दलितों तथा महिलाओं के संघर्ष के साथ जुड़ गईं। 24 जून, 2011 को उनकी मौत हो गई।
कौसल्या बैसंत्री की पूरी आत्मकथा में उनकी लेखन शैली बिलकुल बिखरी-बिखरी है, अधिक तारतम्यता नहीं है। जैसे किसी की जीवन डायरी के लिखे पन्ने हों जिन्हें पुनर्सृजित कर दिया गया हो। लेकिन मुझे लगता है शायद यही उसकी खूबसूरती भी है। उनकी समूची जिंदगी भी तो कितनी बिखरी-बिखरी थी। इसलिए उनकी इस आत्मकथा की अपनी एक भाषा शैली है, अपना व्याकरण है और सबसे जुदा अपना एक सौंदर्यशास्त्र है। मूलतः मराठी भाषी होते हुए, हिंदी में लिखना एक चुनौती भी थी। दरअसल सभी साहित्यकार अपनी भाषा अपने साथ भी लेकर आते हैं। कौसल्या बैसंत्री की भी अपनी अलग भाषा है, जो बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात कहती चलती हैं और यही उनका सौन्दर्यशास्त्र भी है।
इस तरह कौसल्या यह बताने की कोशिश करती हैं कि एक ओर तो औरतें घिनौने पितृसत्ता की मार झेल रही थीं तो दूसरी ओर उनका पूरा परिवार, समाज दलित होने का अपमान झेल रहा था। इसे ही कौसल्या ‘दोहरा अभिशाप’ कहती हैं शायद!