पिछले दो सालों के दौरान पर्यावरण मंत्रालय ने वन संरक्षण नियमों और वन संरक्षण अधिनियम में महत्वपूर्ण बदलाव किए, पहला जून 2022 में और दूसरा दिसंबर 2023 में. दोनों बदलावों की यह कहकर भारी आलोचना हुई थी कि इनसे सरकार के लिए वन भूमि निजी उपयोग के लिए देना आसान हो जाएगा, जिसके कारण वन में रहने वाले समुदायों के अधिकार कमजोर होंगे.
लेकिन जब जनजातीय मामलों के एक संवैधानिक निकाय के प्रमुख ने संशोधित नियमों की खामियों पर सवाल उठाया, तो उनकी चिंताओं को बिना चर्चा के खारिज कर दिया गया, और बाद में उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
सूचना का अधिकार कानून से प्राप्त दस्तावेजों से पता चला है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष हर्ष चौहान ने सितंबर 2022 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को पत्र लिखकर नए वन संरक्षण नियमों के बारे में गंभीर चिंताएं व्यक्त की थीं. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग एक संवैधानिक संस्था है.
चौहान ने लिखा था कि इन नियमों में “महत्वपूर्ण प्रावधानों को कमजोर और क्षीण कर दिया गया है” जिससे “बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक अन्याय को बढ़ावा मिलेगा”. उन्होंने कहा था कि इससे एफआरए (वन अधिकार अधिनियम) का मूल उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा. उन्होंने कहा कि यह “बड़ी चिंता” का विषय है कि एनसीएसटी से ऐसे संशोधनों पर चर्चा नहीं की गई जिनका अनुसूचित जनजातियों और वन में रहने वाले अन्य पारंपरिक समुदायों के “जीवन और वन अधिकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा”.
पत्र के अंत में चौहान ने मांग की थी कि नियमों में संशोधनों को “तुरंत” स्थगित किया जाए और भविष्य में कोई भी संशोधन एनसीएसटी के साथ उचित परामर्श के बाद ही किया जाए.
नवंबर 2022 में पर्यावरण मंत्री ने चौहान के पत्र का जवाब दिया. आरटीआई द्वारा मिली जानकारी के अनुसार, उन्होंने जवाब में केवल इतना कहा कि संशोधित नियमों से एफआरए के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं होगा. एक पैराग्राफ के इस रूखे जवाब में चौहान की शंकाओं को सिरे से ख़ारिज कर दिया गया.
लेकिन मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ.
ऐसा लगता है कि सत्ताधारियों को यह बात नागवार गुज़री की एनसीएसटी जैसी प्रमुख संवैधानिक संस्था ऐसे मुद्दों पर सवाल उठा रही है. जून 2023 में चौहान ने अपना कार्यकाल समाप्त होने से आठ महीने पहले ही इस्तीफा दे दिया.
मीडिया रिपोर्टों में तब इसके पीछे वन संरक्षण नियमों को लेकर “पर्यावरण मंत्रालय के साथ टकराव” की ओर इशारा किया गया था. ट्विटर (अब एक्स) पर कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने कहा कि चौहान ने “अपनी प्रतिबद्धता और साहस की कीमत चुकाई”.
https://m.economictimes.com/news/india/ncst-chairman-chouhan-resigns-eight-months-before-end-of-term/articleshow/101466694.cms… In February 2021, Harsh Chouhan was appointed as Chairperson of the National Commission on Scheduled Tribes (NCST), a Constitutional body. He has been taking — like many activists & I have done — very strong objections to the way forest laws have been diluted in the last two years that hurt the interests of adivasis. He has confronted the Environment and Forests Ministry boldly. Now he has paid the price for his commitment and courage. He has been forced to resign 8 months before his term ends. So much for the Modi government’s concerns for the welfare of tribal communities and the independence of Constitutional authorities. वर्ष 2021 के फ़रवरी में हर्ष चौहान को राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। NCST एक संवैधानिक निकाय है। चौहान RSS परिवार से हैं। पिछले दो वर्षों में जिस तरह से वन कानूनों को कमज़ोर करके आदिवासियों के हितों को नुक़सान पहुंचाया गया, उसे लेकर उन्होंने – अन्य एक्टिविस्ट्स की तरह और जैसा कि मैंने भी किया – कड़ी आपत्तियां जताई थी। उन्होंने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का डटकर विरोध किया था। अब उन्हें अपनी प्रतिबद्धता और साहस की क़ीमत चुकानी पड़ी है। उन्हें कार्यकाल ख़त्म होने से 8 महीने पहले इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया गया है। आदिवासी समुदायों के कल्याण और संवैधानिक प्राधिकारियों की स्वतंत्रता के लिए मोदी सरकार की चिंताएं कितनी हैं, इस प्रकरण से साफ़ है।
NCST chairman Chouhan resigns eight months before end of term
हमने 26 जनवरी, 2024 को चौहान को एक ईमेल भेजकर उनके इस्तीफे के बारे में बातचीत करने के लिए समय मांगा. हमें अभी भी उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार है.
हमने 27 जनवरी को पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव से भी संपर्क किया और पूछा कि चौहान ने अपने पत्र में जो मुद्दे उठाए थे उन्हें क्यों संबोधित नहीं किया गया. इस बात पर भी उनकी प्रतिक्रिया मांगी कि कैसे इस घटनाक्रम से ऐसा लगता है कि चौहान ने जबरन इस्तीफ़ा दिया और एनसीएसटी अब प्रभावी रूप से निष्क्रिय है. यदि हमें उनकी कोई प्रतिक्रिया मिलती है तो यह रिपोर्ट संशोधित कर दी जाएगी.
अध्यक्ष ने की थी ‘सुधारात्मक कार्रवाई’ की मांग
इससे पहले वन संरक्षण नियमों में कहा गया था कि स्थानीय समुदायों के भूमि अधिकारों को एफआरए के अनुसार मान्यता दी जानी चाहिए और वनभूमि को किसी दूसरे उपयोग के लिए अंतिम मंजूरी देने से पहले ग्राम सभा के माध्यम से उक्त समुदायों की सहमति ली जानी चाहिए. वन अधिकार सुनिश्चित करना और भूमि उपयोग बदलने के प्रस्तावों के लिए सहमति प्राप्त करना केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की प्राथमिक जिम्मेदारी थी.
संशोधित नियमों में इस आवश्यकता को खत्म कर दिया गया, और अब भूमि उपयोग बदलने की मंजूरी बिना ग्राम सभा की पूर्व सहमति के दी जा सकती है. अब, स्थानीय समुदायों के वन अधिकार सुनिश्चित करने और ग्राम सभा की सहमति प्राप्त करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गई है. लेकिन यह भी केंद्र सरकार द्वारा भूमि उपयोग में बदलाव को मंजूरी दिए जाने के बाद किया जाएगा.
जानकारों का कहना है कि इससे ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी जिसे समुदायों को स्वीकार करना ही होगा. इससे उनके अधिकार और सहमति प्रभावी रूप से कमजोर हो जाएगी. इसके अतिरिक्त, 2013 में ओडिशा में वेदांता के खिलाफ एक मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्थानीय समुदायों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता को वनभूमि उपयोग बदलने की प्रक्रिया का एक हिस्सा बताया था.
चौहान ने पर्यावरण मंत्री को लिखे अपने चार पन्नों के विस्तृत पत्र में ये सभी मुद्दे उठाए थे.
एनसीएसटी वेबसाइट पर मौजूद चौहान की प्रोफाइल के अनुसार, उन्होंने मध्य प्रदेश में आदिवासी समूहों के साथ बड़े पैमाने पर काम किया है. उनका सबसे प्रमुख योगदान आरएसएस के वनवासी कल्याण आश्रम के सदस्य के रूप में रहा है.
गौरतलब है कि एनसीएसटी एक रिपोर्ट पर काम कर रहा था जिसमें दिखाया गया कि कैसे एफआरए लागू होने के 16 सालों बाद भी वनभूमि पर पट्टों की स्वीकार्यता कम है. इसलिए, चौहान ने पर्यावरण मंत्री को जो चिट्ठी लिखी, वह उन्हीं मुद्दों पर आधारित थी जो एफआरए की कमियों का आकलन करने लिए एनसीएसटी द्वारा गठित एक वर्किंग ग्रुप ने उठाए थे.
वर्किंग ग्रुप के सदस्य शरद लेले ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि चौहान एफआरए से जुड़े मुद्दों में “गंभीर रुचि” रखते थे.
लेले अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट के एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उन्होंने कहा, “वह (चौहान) मानते थे कि आदिवासी समूहों के हितों की रक्षा के लिए लागू होने वाले अधिनियम के साथ क्या हो रहा है, यह पता लगाने में एनसीएसटी की भी भूमिका है.”
चौहान ने अपने पत्र में कहा कि संशोधित नियम नीति से जुड़ा महत्वपूर्ण मसला है जो अनुसूचित जनजातियों को प्रभावित करता है.
यादव ने 10 नवंबर, 2022 को दिए जवाब में कहा कि एफसीए (वन संरक्षण अधिनियम) को लागू करने के लिए नए नियमों में संशोधन किया गया था और इससे अधिनियम के प्रावधान निरस्त नहीं होंगे. उन्होंने जवाब के साथ एक पन्ने का नोट भी संलग्न किया, लेकिन उसमें भी चौहान द्वारा उठाए गए विशेष मुद्दों का जिक्र नहीं था.
तब, यादव द्वारा चौहान की चिंताओं को खारिज करने के जवाब में एफआरए के वर्किंग ग्रुप ने एक पत्र तैयार किया. लेले ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उनकी राय थी कि “पर्यावरण मंत्री की प्रतिक्रिया मूल पत्र में उठाई गई चिंताओं का समाधान नहीं करती.”
लेकिन इससे पहले कि इस पत्र को अंतिम रूप देकर यादव को भेजा जाता, चौहान ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
‘एनसीएसटी बना सरकार को चुनौती देने का केंद्र बिंदु’
चौहान के इस्तीफा देने के बाद जुलाई 2023 में वन अधिकार के मुद्दों पर चर्चा के लिए एनसीएसटी के भीतर एक आंतरिक बैठक आयोजित होने वाली थी. लेकिन वर्किंग ग्रुप के सदस्यों के अनुसार, इसे बिना किसी स्पष्टीकरण के अंतिम समय में रद्द कर दिया गया.
इस बैठक में वन संरक्षण नियमों से संबंधित मामलों के साथ-साथ जिन विषयों पर चर्चा की जानी थी उनमें से एक था एफसीए संशोधन के कारण अधिनियम में प्रदत्त अधिकारों और सुरक्षा उपायों का उल्लंघन. इससे पहले मार्च 2023 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने एफसीए में संशोधन के लिए लोकसभा में एक विधेयक पेश किया था.
चौहान की अध्यक्षता में एनसीएसटी ने चार राज्यों- छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में एफआरए के तहत सामुदायिक वन अधिकारों की मान्यता की स्थिति पर एक रिपोर्ट कमीशन की थी. यह रिपोर्ट सेंटर फॉर ट्राइबल एथोस एंड इकोनॉमिक रिसर्च या ‘तीर’ द्वारा तैयार की जानी थी.
“हमारे निष्कर्षों से पता चला कि मध्य प्रदेश में सामुदायिक वन अधिकारों के लिए एक भी दावे को स्वीकार नहीं किया गया था. राजस्थान भी इस मामले में पीछे था,” तीर के संस्थापक और निदेशक और एफआरए वर्किंग ग्रुप के सदस्य मिलिंद थत्ते ने कहा.
यह रिपोर्ट मार्च 2023 में पूरी हुई और एनसीएसटी को सौंपी गई. जुलाई 2023 में रद्द हुई बैठक में थत्ते की रिपोर्ट भी पेश की जानी थी और उस पर चर्चा की जानी थी. वर्किंग ग्रुप के एक अन्य सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “(तीर की) रिपोर्ट ने एफआरए के कार्यान्वयन की स्थिति के संबंध में कई समस्याएं उजागर की हैं.” एनसीएसटी ने अभी भी इस रिपोर्ट पर औपचारिक रूप से हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए इसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया.
उक्त सदस्य ने यह भी कहा कि वन संरक्षण नियमों पर चौहान का पत्र वह “बिंदु” था जिसके बाद घटनाओं का ऐसा क्रम शुरू हुआ कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि इसके द्वारा एनसीएसटी ने संशोधनों के माध्यम से एफआरए को कमजोर करने पर गंभीर आपत्ति जताई थी.
मामले ने तब “राजनैतिक रंग” ले लिया जब कांग्रेस अध्यक्ष और नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय समन्वयक और पार्टी में एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक विभागों के प्रभारी के राजू जैसे विपक्षी नेताओं ने भी यह मुद्दा उठाया. जुलाई और अगस्त 2022 के बीच, खड़गे और राजू ने नियमों में संशोधन के कारण एफआरए उल्लंघन के बारे में एनसीएसटी को पत्र लिखे. उन्होंने एनसीएसटी से आग्रह किया कि वह पर्यावरण और जनजातीय मामलों के मंत्रालयों को एफआरए का अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश दे.
वर्किंग ग्रुप के उक्त सदस्य ने कहा, “संक्षेप में कहें तो एनसीएसटी सरकार और पर्यावरण मंत्रालय को चुनौती देने का केंद्र बिंदु बन गया था.”
‘निष्क्रिय हो चुका है आयोग’
चौहान के इस्तीफे के बाद अब मामला अधर में लटक गया है.
थत्ते ने कहा कि तीर को राज्यों में एफआरए से जुड़े दावों को अस्वीकृत किए जाने के मामलों को सत्यापित करने के लिए एक और अध्ययन करने को कहा गया था. “लेकिन फंडिंग रुकी होने के कारण यह काम पूरा नहीं हो सका. दूसरी समस्या यह है कि केवल (एनसीएसटी के अध्यक्ष) ही इस अध्ययन के लिए आवश्यक डेटा जारी करने की अनुमति दे सकते हैं.” वर्तमान में एनसीएसटी अध्यक्ष का पद खाली है.
यहां जिस डेटा की बात हो रही है उसमें राज्य सरकारों द्वारा एफआरए अस्वीकृतियों पर सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे हैं, जो उन्होंने वाइल्डलाइफ फर्स्ट बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में दायर किये थे, जिसके तहत एफआरए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी.
थत्ते ने कहा, “चूंकि अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया है, यह आयोग निष्क्रिय हो गया है.”
लेले ने कहा कि सामूहिक रूप से वर्किंग ग्रुप का कामकाज भी रुक गया है.
“हम तब तक बैठकें नहीं कर सकते जब तक हमें बुलाया न जाए. सामुदायिक वन अधिकारों पर (तीर द्वारा) अध्ययन अभी भी औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि यह एनसीएसटी के पास लंबित है. हमने कोई नया अध्ययन भी शुरू नहीं किया है जो हमें (वन गांवों जैसे विषयों पर) करना चाहिए था. हम पूरी तरह से रुक गए हैं.”
थत्ते ने कहा, “वर्किंग ग्रुप के सदस्यों के तौर पर, हम जानते थे कि एनसीएसटी ने अध्यक्ष के शेष कार्यकाल के दौरान क्या काम करने की योजना बनाई है. इसलिए, उनका इस्तीफा अप्रत्याशित था.”