अगर भारतीय और यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया तक की बात करें तो देखने में यही लगता है। 2019 लोकसभा चुनाव में असम में भाजपा को 64,84,596 वोट हासिल हुए थे, जबकि कांग्रेस के खाते में 63,73,659 वोट आये थे। दोनों दलों के बीच का अंतर मात्र 1 लाख 10 हजार वोटों का था।
लेकिन यह भी सच है कि तब कांग्रेस अकेले मैदान में थी, जबकि एनडीए की ओर से भाजपा, असम गण परिषद और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट की तिकड़ी ने मिलकर चुनाव लड़ा था। नतीजा भाजपा को 9, जबकि कांग्रेस के हाथ में 3, एआईयूडीएफ़ 1 और एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई थी।
असम के इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि छोटे दलों के साथ रणनीतिक साझेदारी कर कांग्रेस 2019 के परिणामों को अपने पक्ष में कर सकती थी, जो उसने नहीं किया। उधर 2014 में जीत के बावजूद भाजपा ने क्षेत्रीय शक्तियों के साथ गठबंधन बनाकर असल में अपनी जीत के मार्जिन को बढ़ा लिया था।
लेकिन 2019 से 2024 में एक बड़ा अंतर आ चुका है। आज कांग्रेस को अहसास हो चुका है कि उसके अकेले के बूते चुनाव जीतना नामुमकिन है, और सभी छोटी बड़ी क्षेत्रीय ताकतों को इंडिया गठबंधन के तले लाकर ही इस मुकाबले को बराबरी की टक्कर पर लाया जा सकता है।
2019 में भाजपा ने 2014 की तुलना में न सिर्फ अपनी सीटों 278 के मुकाबले 303 सीटें हासिल कर खुद को अपराजेय स्थिति में ला दिया था, बल्कि ध्यान से देखें तो उसकी यह बढ़त असल में क्षेत्रीय दलों में सेंधमारी कर हासिल किया गया था। 2014 में भाजपा के पास जहां 31% वोट प्रतिशत था, 2019 में यह बढ़कर 37.38% तक पहुंच चुका था।
यह बढ़ा हुआ मत प्रतिशत उसे कांग्रेस के मतदाताओं से नहीं मिला। 2014 में कांग्रेस 19.31% वोटों के साथ 44 सीटें ही जीत पाने में कामयाब हो सकी थी, जबकि 2019 में भी उसका मत प्रतिशत कमोबेश 2014 लोकसभा चुनाव की तरह 19.55% के साथ सीट संख्या बढ़कर 52 हो गई थी।
2019 में हुई थी क्षेत्रीय दलों के वोटों में भारी सेंधमारी
भाजपा, कांग्रेस, बसपा और तृणमूल के अलावा बाकी के क्षेत्रीय दलों के मत प्रतिशत में अचानक से 6.33% की कमी, भाजपा के पक्ष में 2019 में 6.38% की बढ़ोत्तरी में देखी जा सकती है। इन क्षेत्रीय दलों को 2014 में जहां 183 सीटों के साथ कुल 41.71% वोट हासिल हुए थे, 2019 में वह घटकर 155 सीट और 35.38% मत प्रतिशत पर सिमट चुकी थीं।
ऐसा लगता है क्षेत्रीय दलों ने भी इस बात का अहसास हो चुका है, और वे भलीभांति इस बात से वाकिफ हो चुके हैं कि केंद्र में एक पार्टी की मजबूती से नुकसान कांग्रेस से कहीं अधिक उन्हें होने जा रहा है। भारत की राजनीति अब बड़ी एकाधिकार पूंजी की तरह केंद्रित होती जा रही है। ऐसे में अपने अस्तित्व को बचाने एवं जीएसटी के तहत अपने आर्थिक अधिकारों को लगातार गंवाने से बचने का एकमात्र उपाय विपक्षी गठबंधन बनाने में है।
गठबंधन का फायदा किस प्रकार 2019 में बसपा के लिए रामबाण सिद्ध हुआ था, इसे हम 2014 से तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से जान सकते हैं। 2014 में बसपा अकेले दम पर मैदान में उतरी थी, और उसे 4.14% मत हासिल होने के बावजूद एक भी सीट हासिल नहीं हो सकी थी। जबकि 2019 में 2014 की तुलना में अपेक्षाकृत कम मत प्रतिशत (3.63%) हासिल करने के बावजूद उसे लोकसभा की 10 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी।
इस बार बसपा एक बार फिर से एकला चलो रे के आत्मघाती राह को अपनाने जा रही है। परिणाम जानने के बावजूद मायावती ने यह फैसला क्यों अपनाया, यह बात तो सिर्फ वही बेहतर बता सकती हैं।
इसे तृणमूल कांग्रेस के प्रयोग से भी समझा जा सकता है। 2014 में तृणमूल का मत प्रतिशत मात्र 3.84% होने के बावजूद उसे 34 सीट जीतने में कामयाबी हासिल हुई थी, लेकिन 2019 में जब उसके पक्ष में 4.07% मत प्राप्त हुए तो 34 से घटकर वह 22 सीटों पर सिमट गई थी।
ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि भाजपा ने पश्चिम बंगाल में अप्रत्याशित बढ़त हासिल कर तृणमूल से 12 और सीपीआई(एम) एवं कांग्रेस से 2-2 सीट छीनकर कुल 18 सीटों पर कब्जा करने में कामयाबी हासिल कर ली थी।
इसीलिए आज जब कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा पश्चिम बंगाल से गुजर रही है, तो ममता बनर्जी भले ही राज्य में अकेले चुनाव लड़ने का दावा कर रही हों, लेकिन कांग्रेस और वाम मोर्चे का पुरजोर विरोध करने के बजाय कहीं न कहीं अंदर खाते रणनीतिक रूप से भाजपा को अलग-थलग करती भी दिख रही हैं।
पश्चिम बंगाल में पूरी संभावना है कि मुकाबला एक बार फिर से त्रिकोणीय हो, लेकिन 2019 के विपरीत इस बार मोर्चेबंदी कुछ इस प्रकार हो कि ममता बनर्जी के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी का फायदा भाजपा के बजाय कांग्रेस-वाम की झोली में जाये। यह बेहद ट्रिकी मामला है, और इसे वोटर किस रूप में लेता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
मोदी-शाह की जोड़ी भी इस बात को भली-भांति भांप रही है। यही वजह है कि पूर्वोत्तर में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ को मिल रही अप्रत्याशित सफलता ने भाजपा की रणनीति को सिरे से उखाड़ दिया, जिसका नतीजा हमें हाल के दिनों में बिहार, झारखंड सहित अन्य राज्यों में देखने को मिल रहा है।
केंद्र सरकार की नीतियों का प्रचार करने वाली विकसित यात्रा का रथ देश के कोने-कोने में प्रचार कर रहे हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार के पास नीति आयोग प्रदत्त आंकड़ों में आर्थिक सफलता का रिपोर्ट कार्ड है, जिसे मीडिया और तमाम प्रचार तंत्र के माध्यम से जोरशोर से रात-दिन बजाया जा रहा है।
22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन से हिंदी पट्टी में अपने कोर वोटर्स पर पकड़ मजबूत करने के बाद भी बिहार में विपक्षी एकता का शूल लगातार परेशान कर रहा था, जिसे नीतीश कुमार को एक बार फिर अपने पाले में लाकर साधने का काम संपन्न किया जा चुका है।
इसी प्रकार जो न सधे, उसके कस-बल ढीले करने के उपाय को अब झारखंड सहित आम आदमी पार्टी (आप) पर आजमाने की प्रक्रिया जारी है। हमारे सामने पीएम मोदी की अपराजेय तस्वीर को भले ही रोज-रोज परोसा जाये, हकीकत यह है कि अभी भी 27 पार्टियों के इंडिया गठबंधन से भाजपा-आरएसएस की नींद हराम है। इसे समझने के लिए आइये 2019 के लोकसभा के आंकड़ों को आधार बनाकर देखा जाये।
गणित के हिसाब से इंडिया गठबंधन कड़ी टक्कर दे रहा है
2019 में एनडीए गठबंधन भाजपा, अकाली, एआईएडीएमके, जेडीयू, शिवसेना सहित अन्य छोटे-छोटे दलों का स्वरूप लिए हुए था, इनमें से अधिकांश गठबंधन से छिटक चुके हैं, लेकिन तेजहीन नीतीश कुमार अंतिम समय पर वापस आ चुके हैं। भाजपा के लिए यह एक बड़ी मोरल बूस्टिंग का काम करेगी, लेकिन जमीन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने जा रहा है। लेकिन बूंद-बूंद से घड़ा भरा करता है, यह बात शायद भाजपा से बेहतर कोई नहीं समझता।
कांग्रेस नेतृत्व में आज जितने दल हैं, उनके 2019 के प्रदर्शन को ही आधार बनाकर चलें तो इंडिया गठबंधन के पास करीब 37.37% मत प्रतिशत बैठता है। इसकी तुलना में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को जेडीयू की घर वापसी के बाद 40.48% मत प्रतिशत के साथ मामूली बढ़त मिल गई है।
इसके अलावा, बसपा, आंध्रप्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस, ओडिसा में बीजू जनता दल, तमिलनाडु में एआईएडीएमके, बीआरएस और शिरोमणि अकाली दल के मत प्रतिशत को देखें तो इनका योग लगभग 11% बैठता है।
इसके अलावा निर्दलीय, नोटा और बेहद छोटी पार्टियों के 4.60% को भी यदि जोड़ दें तो कुल योग 94% हो जाता है, जिसका अर्थ है अभी भी 6% वोट उन दलों के पास हैं, जो 2 लाख से लेकर 4 लाख के बीच वोट पाते रहे हैं।
2014 और 2019 की एंटी इनकंबेंसी, बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि और 5 किलो अनाज पर टिका दिए गये 80 करोड़ लोग रोज-रोज के भुलावे में आकर भी इसमें से एक बड़ा हिस्सा पेट की भूख और ससम्मान जीने की चाह रखता है। इसी के मद्देनजर, ऐसा जान पड़ता है कि इस बार का चुनाव भारत के लोकतंत्र के इतिहास में सबसे दागदार होने जा रहा है।
भूतो न भविष्यतो की तर्ज पर लुटा-पिटा लोकतंत्र अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। अगर भूले से विपक्षी गठबंधन को जीत भी हासिल हो जाती है, तो भी भारत का आर्थिक ढांचा आज जिन नीतियों पर तेजी से फिसलकर चंद बड़े कॉरपोरेट्स की जकड़ में पूरी तरह से फंस चुका है, उससे निजात पाने की चाभी उसके पास दूर-दूर तक नहीं दिखती।
इस बार का चुनाव जमीनी हकीकत और मानसिक विक्षिप्तता के बीच का संघर्ष है। इसमें सामूहिक विपक्ष हारी हुई बाजी लड़ता दिख सकता है, लेकिन सवाल तो यह भी है कि क्या देश का आम इंसान भी अपने बारे में इससे अलग सोचता है?