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जीत को चुराने के जुगाड़ में भाजपा का चाल-चरित-चेहरा बिगड़ गया है

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प्रफुल्ल कोलख्यान

आज भारत में सवाल सिर्फ चुनाव का नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के चरित्र का भी है। याद किया जा सकता है कि किसी तरह से एक जमाने में भारतीय जनता पार्टी ढाक-ढोल के साथ अपने चाल-चरित-चेहरा की बात पर इतराया करती थी। जीत को चुराने के जुगाड़ में आज चाल बिगड़ गई है, चरित्र संदिग्ध हो गया है और चेहरा डरावना हो गया है।

भारत के नागरिक समाज को यह उम्मीद जरूर थी कि कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों की राजनीतिक शैलियों, विचारधारात्मक दुराग्रहों के चलते लोकतंत्र के आंगन में फैलनेवाली ‘दुर्गंध’ को चाल-चरित-चेहरा का ढाक-ढोल बजा-बजाकर नाचनेवाले जरूर दूर कर सकते हैं। भारत के लोकतंत्र में प्रकट होनेवाली कमियों की भरपाई कर सकते हैं।

लोकतंत्र में भारी कमी इमरजेंसी के समय सामने आई थी। इस कमी को दूर करने के लिए भारतीय जनता पार्टी के मूल राजनीतिक दल अखिल भारतीय जनसंघ, का गठन 21 अक्तूबर 1951 को ठीक आम चुनाव के पहले, कहा जा सकता है कि लगभग साथ-साथ ही हुआ था।

तब तक महात्मा गांधी की हत्या हो चुकी थी। अखिल भारतीय जनसंघ कई कारणों से इमरजेंसी लगने के पहले तक, लगभग राजनीतिक अलगाव में पड़ा हुआ राजनीतिक दल था।

हालांकि भीतर-ही-भीतर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ सक्रिय था। राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और अखिल भारतीय जनसंघ के राजनीतिक अलगाव के कई कारणों में से बड़ा कारण भारत के आजादी के आंदोलन से हर स्तर पर उनकी घनघोर असहमति, सचेत दुराव, जेहन में चुभनेवाला अलगाव और आजादी के तुरत बाद गांधी हत्या में लिप्तता या लिप्तता का गंभीर आरोप था।

इन सारी बातों को भुलाये जाने का माहौल इमरजेंसी के खिलाफ हुए राजनीतिक संघर्ष के दौरान बन गया। इस में जयप्रकाश नारायण की बहुत बड़ी भूमिका थी। जयप्रकाश नारायण की पहल पर इमरजेंसी के खिलाफ बने राजनीतिक गठजोड़ तथा जनता पार्टी में शामिल होने से अखिल भारतीय जनसंघ की राजनीतिक विश्वसनीयता बहाल हो गई।

पहली आजादी के आंदोलन में भाग न लेने की राजनीतिक क्षति की भरपाई हो गई। इस गठजोड़ और जनता पार्टी में विलय से अखिल भारतीय जनसंघ को बेदाग स्वीकार्यता मिल गई। जनता पार्टी से निकलकर भारतीय जनता पार्टी के नाम से भारत की अन्य राजनीतिक पार्टियों की जमात में शामिल हो गई।

इसके साथ ही वह अन्य राजनीतिक पार्टी के पोशाक में उन जैसी बनकर, उनकी राजनीतिक संगी बन गई। भारत की कई राजनीतिक पार्टियों में से एक पार्टी, भारतीय जनता पार्टी भी बन गई; हालांकि वह भीतर से उन जैसी थी नहीं।

जिन मुद्दों पर जनता पार्टी चरमराकर टूटी थी, उनमें से एक मुद्दा राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के साथ संबंध भी था। इंदिरा गांधी की हार, कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने और जनता पार्टी की सरकार बनने तक की राजनीतिक चालों और व्यवहारों से जयप्रकाश नारायण कोई बहुत प्रसन्न नहीं थे।

जयप्रकाश नारायण की अप्रसन्नता अकारण नहीं थी। स्वाभाविक ही है कि सत्ता की राजनीति से सदैव दूर रहनेवाले जयप्रकाश नारायण जनता पार्टी के घटक दलों के विभिन्न नेताओं की राजनीतिक वाचालता से प्रसन्न तो नहीं ही हो सकते थे।

जनता पार्टी के टूट जाने के बाद हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी की जबरदस्त वापसी ने, अल्प काल तक ही सही सत्ता का स्वाद चख चुके और अब सत्ता से बाहर हो गये विपक्ष की स्वाभाविक सत्ता-लोलुपता के चलते भारतीय जनता पार्टी का साथ विपक्ष की राजनीति की ‘राजनीतिक जरूरत’ बन गया।

इस तरह अखिल भारतीय जनसंघ की ऐतिहासिक अविश्वसनीयता से बाहर निकलकर भारतीय जनता पार्टी नये सिरे से विश्वसनीय राजनीतिक पार्टी बन गई।

कहना न होगा कि आकर्षक व्यक्तित्व, सुसंस्कृत व्यवहार और प्रसन्नचित्त स्वभाव व्यक्ति को उसकी समग्रता में अधिकतर के द्वारा स्वीकार किये जाने लायक बनाता है।

भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल विहारी बाजपेयी इन गुणों से संपन्न थे। अपने इन गुणों के राजनीतिक इस्तेमाल से वे राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की समस्त ‘राजनीतिक कट्टरताओं और कुत्सित इरादों’ को बड़ी कुशलता से आच्छादित कर लिया करते थे।

याद किया जा सकता है कि ज्योति बसु जैसे कम्युनिस्ट नेता ने कहा था कि आदमी सही हैं, मगर गलत पार्टी में हैं। कुछ लोग ने उस समय इसे व्यंग्य माना, लेकिन व्यंग्य में छिपी खिसियानी सच्चाई से इनकार भी तो नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के समर्थन पर अटल विहारी बाजपेयी ने 1996 में तेरह दिन की, 1998 से 1999 में तेरह महीने की और फिर 1999 से 2004 तक पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे।

याद किया जा सकता है कि इसी दौर में कम-से-कम चार बार ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव अन्य राजनीतिक दलों और नेताओं की तरफ से आया जो उन के अपने दल भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की तरफ से अमान्य हुआ।

ज्योति बसु ने इसे सार्वजनिक तौर पर ‘हिमालयन बलंडर’ कहा। हिमालयन बलंडर कहे जाने पर उन से जवाब-तलब किया गया। इस सार्वजनिक बयान के लिए माफी मांगने तक की नौबत आ गई।

इस तरह के राजनीतिक प्रकरणों से कुल मिलाकर हुआ यह कि भारत की संसदीय राजनीति में वाम-पंथ की विश्वसनीयता घटनी पहले शुरू हुई और फिर तुरत बाद में दक्षिण-पंथ की राजनीतिक विश्वसनीयता बढ़नी शुरू हुई। कहना जरूरी है कि इस दौर में विभिन्न वाम दलों के बीच प्राणहारी दूरियां भीतर-भीतर भी और बाहर-बाहर भी बढ़ती रही।

जबकि दक्षिण-पंथ के विभिन्न संगठनों के बीच ताल-मेल बढ़ता गया था। ध्यान में होना चाहिए कि यह सब 6 दिसंबर 1992 के बाद का प्रकरण है! इसी दौर में 31 मार्च 1997 को सीवान के एक चौक पर भाकपा (माले) द्वारा बुलाए गए एक बंद के समर्थन में रैली कर रहे बहुत ही संभावनाशील युवा कम्युनिस्ट चंद्रशेखर और उनके एक साथी श्याम नारायण यादव की हत्या कर दी गई।

संक्षेप में संकेत यह कि इमरजेंसी के खिलाफ संघर्ष के दौर में उस समय की राजनीतिक प्रक्रिया में संविद (संयुक्त विधायक दल) के राजनीतिक तौर-तरीका से बिल्कुल भिन्न गठबंधन का राजनीतिक सूत्रपात हो गया।

इसी राजनीतिक सूत्रपात का विकास राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और उस के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) और बदले हुए स्वरूप में इंडिया अलायंस में हुआ है। अटल विहारी बाजपेयी के बाद डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस साल तक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए-एक) सरकार चली।

जिसमें सीपीआई शामिल थी और सीपीआई (एम) बाहर से समर्थन कर रही थी। अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के विरोध में सीपीआई (एम) ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए-एक) से अपना समर्थन वापस ले लिया, लेकिन सरकार बच गई थी।

न सिर्फ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए-एक) की सरकार बच गई बल्कि अगले चुनाव के बाद फिर से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए-दो) की भी सरकार बनी। सीपीआई (एम) के समर्थन वापस लेने के बावजूद सरकार के चलते रह जाने के राजनीतिक प्रभाव और प्रभाव के प्रसार पर अलग से चर्चा की जा सकती है, जरूर की जानी चाहिए।

फिलहाल तो यह कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार को सीपीआई (एम) समर्थन वापस लेकर भी 2009 के चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को चुनाव में पराजित किये जाने की व्यूह रचना नहीं कर पाई।

लेकिन पांच साल बाद 2014 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर भारतीय जनता पार्टी न सिर्फ चुनाव जीत गई बल्कि ‘अकेले दम’ पर सरकार बनाने का जनादेश हासिल करने में भी कामयाब रही।

2019 के चुनाव में 2014 से भी बड़ी जीत हुई। ‘अकेले दम’ पर हर तरह के राजनीतिक मनमानेपन के लिए भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के सामने कोई राजनीतिक रुकावट नहीं थी। कांग्रेस मुक्त भारत का इरादा बार-बार घोषित किया जानने लगा।

अघोषित या छिपा हुआ इरादा क्या था! छिपा इरादा था सीमित इलाकों में ‘प्रभावशाली’ राजनीतिक दलों को ‘निगलना’। इसके लिए जरूरी था हिंदू-मुसलमान तनाव के बल पर स्थाई बहुमत का जुगाड़। स्थाई बहुमत के बल पर बहु-दलीय राजनीतिक प्रणाली की जगह एक-दलीय राजनीतिक और शासन प्रणाली की संभावनाओं को संभव करना।

संघात्मक ढांचे की जगह एकात्मक ढांचा खड़ा करना। इस तरह से चक्रवर्त्ती राजा के तर्ज पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और हिंदुत्व की राजनीति के ‘मन की बात’ यानी सर्वसत्तावादी हिंदुत्व की राजनीति की हिटलरशाही या हिंदू शाही के दबदबेवाले हिंदू राष्ट्र के सपनों को साकार करने का इरादा था!

इसके लिए जनता के ‘सहयोग’ से अधिक कॉरपोरेट सहयोग और समर्थन की जरूरत थी, जो पहले ही क्रोनी कैपिटलिज्म के रास्ते हासिल कर लेना संभव हो चुका था। जनता के सहयोग में कोई भी बाधा नहीं थी। प्रार्थना के पश्चात प्राप्त सच्ची और न्याय-निष्ठ प्रेरणा से निपटा लिये गये मामले के बाद राम मंदिर भी बन गया।

राम मंदिर के बनने के काम का पूरा नहीं होने के कारण विभिन्न शंकराचार्य कि असहमति की परवाह किये बिना चुनावी जरूरतों के लिहाज से राम मंदिर का ‘काम’ पूरा कर लिया गया।

‘सब कुछ’ दुरुस्त ही था। लेकिन अपने नये रूप में राहुल गांधी और इंडिया अलायंस की राजनीति से ‘ऐसा कुछ’ हो जायेगा कि ‘सब कुछ’ बिगड़ जायेगा! ‘चार सौ के पार’ का मनोरथ चें बोल देगा ऐसा ‘नॉन-बायोलॉजिकल’ और ‘महा-पुरुषों’ ने सपने में भी नहीं सोचा था।

मामला 240 पर लटक गया। लेकिन भला हो एन चंद्रबाबू नायडू और समाजवाद के ‘फिनिश्ड प्रोडक्ट’ नीतीश कुमार का! भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बराबरी हो गई और यह ‘खुश’ होने के लिए कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी। जी, संविधान है और सम्मान के साथ सुरक्षित और पूजित है।

यह अलग बात है कि शासन संविधान से नहीं प्रार्थना से चल रहा है। चुनाव प्रक्रिया की मूल प्रेरणा प्रार्थना से ही मिल रही है तो अन्य रुकावटी प्रसंगों की क्यों परवाह की जाये! चाहे कोई रुकावटी प्रसंग संविधान से जुड़ा हो या इस अर्थ में कहीं से ही जुड़ा क्यों न हो!

क्या परवाह और क्यों परवाह! यह सच है कि सत्ता बदल के बावजूद पहले से जारी व्यवस्था में कम-से-कम हेर-फेर करने और जीवनयापन की संभावनाओं को जिलाये रखने और बढ़ावा देने की आवश्यकता को ही नागरिक समाज हमेशा महत्वपूर्ण मानता रहा है।

मौजूदा व्यवस्था में कम-से-कम हेर-फेर करने की आवश्यकता को नहीं समझने से जो राजनीतिक परिस्थिति उत्पन्न होती है वह दो स्पष्ट दिशा पकड़ती है, एक वह जो उसे तहस-नहस के मलबे पर खड़ा कर देती है और दूसरी वह जो क्रांति के मैदान में पहुंचा देती है। चुनावी लोकतंत्र के लिए दोनों ही रास्ता विनाशकारी होता है।

यह समझना कि हिंदुत्व की राजनीति किसी तरह के संवैधानिक प्रावधानों के नियंत्रण को आगे चल कर कभी मान लेगी, भारी भूल होगी। इसलिए फिर कहूं कि मामला चुनाव परिणाम का नहीं है। सवाल तो भारत के लोकतंत्र के स्वरूप और भारत के राजनीतिक स्वरूप के संघात्मक ढांचा मिजाज और महत्व को बनाये रखने का है।

इस समस्या को यथार्थनिष्ठता के साथ स-समय समझा और सुलझाया नहीं गया तो फिर तहस-नहस के मलबे पर चढ़कर ‘बांग’ देनेवाले नेताओं की बांग से सुबह होने की सूचना के इंतजार के अलावा जो बचेगा वह ‘वोट-बैंक’ की राजनीति से नहीं संभलेगा!

राजनीतिक यथार्थ को समझना और यथार्थनिष्ठता के साथ समस्या को सुलझाना कोई आसान काम नहीं है। ऐसे दौर में कब-कब, क्या-क्या और कैसे-कैसे हो जाता है इसको समझना बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि आकाश में घुमड़ते-घूमते हुए, पल-पल बदलते हुए दृश्यों की जल-छवियों में न पानी का यथार्थ छिपा होता है और न जमीन का।

इन जल-छवियों को देखकर अधिक-से-अधिक आकाश के हलचल का थोड़ा-बहुत अनुमान लग सकता है। बादल के बरसने और बिजली के गिरने का हिसाब-किताब लगाने में यथार्थनिष्ठता के निष्फल रहने का पूरा जोखिम होता है।  

उम्मीद की बात यह है कि विपक्षी नेताओं और खासकर राहुल गांधी के चेहरे पर पुते हुए बदनाम रंगों और जनता की आंख में झोंके गये धूल का असर अब खत्म नहीं भी तो निर्णायक स्तर पर कम जरूर हो गया है। सत्ता की राजनीति में इसके चलते भिन्न तरह की बेचैनी और परेशानी साफ-साफ देखी जा सकती है।

दूसरी तरफ यह समझ में आने लायक बात है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की कुटिल रणनीति का मुकाबला करना विपक्ष के लिए बहुत भारी पड़ेगा, इसके राजनीतिक कारण तो हैं ही, बड़े खतरनाक कारण गैर-राजनीतिक भी हैं, जिन्हें निर्वाचित सरकार पर अ-निर्वाचित शक्तियों के कब्जा की राज-दशा (Deep State) से जोड़कर कुछ हद तक समझा जा सकता है, किंतु कुछ हद तक ही।

विपक्ष के नेताओं से, खासकर राहुल गांधी से कई समर्थक लोगों की भी शिकायत है कि विपक्ष के लोगों में कहीं-न-कहीं राजनीतिक चुस्ती की कमी है। यह बहुत स्वाभाविक शिकायत है।

लेकिन यह तो माना ही होगा कि जितनी चुस्ती धूर्तता में होती है उतनी चुस्ती सरलता में नहीं होती है। इसलिए न तो चुस्ती को व्यवहार से बाहर किया जा सकता है और न ही, सरलता को किसी तरह की मूर्खता से जोड़कर समझा जा सकता है।

यह सच है कि स्पष्टवादिता में एक भिन्न तरह की शक्ति होती है। स्वाभाविक स्पष्टवादिता और कुटिलता की स्पष्टवादिता में फर्क होता है। सच पूछा जाये तो भारतीय जनता पार्टी में एक तरह की स्पष्टवादिता भी रही है।

मामला जम्मू-कश्मीर का हो, राम मंदिर का हो, नागरिकता कानून का हो, सिविल कोड का हो, हिंदू-मुसलमान रिश्ता का हो उस के बयानों में एक किस्म की स्पष्टवादिता देखी जा सकती है।

असल में अपने तरीके से ‘स्पष्ट को अस्पष्ट’ और ‘अस्पष्ट को स्पष्ट’ करने और ‘अपने मुंह, मियां मिट्ठू’ बनने के मामले में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं का कोई जोड़ नहीं है। ‘मुट्ठी में सत्ता और शक्ति’ हो तो फिर कहने ही क्या!

पिछले दस साल तक विपक्ष बहुत कमजोर था, लगभग मरणासन्न। लेकिन इस समय तो विपक्ष कमजोर नहीं है। कमजोर नहीं है लेकिन विपक्ष की उस पहलेवाली कमजोर स्थिति के हवाले से सत्ताधारी दल के प्रवक्ताओं को मीडिया के सहारे हमलावर होने और घुमा-फिराकर नफरती माहौल बनाये रखने का मौका मिलता रहता है।

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रवक्ताओं के उक्ति पराक्रम में मिथ्या तत्व का जबरदस्त बोलबाला रहता है। पराक्रमी और शक्तिशाली लोग बहुत आसानी से कमजोर लोगों की विफलता को कमजोर लोगों के ही किसी-न-किसी दोष से जोड़कर अपनी विद्वेषी कार्रवाइयों को छिपा ले जाते हैं।

बस उदाहरण के लिए क्षमा याचना के साथ याद किया जा सकता है कि किस प्रकार से माननीय ने जाते-जाते कह दिया कि ‘वे’ विपक्ष का काम नहीं कर सकते हैं। ‘सत्ता का काम’ कर सकते हैं कि नहीं यह तो बस कहने की नहीं, यह पूछने की नहीं समझने की बात है।

मजे की बात यह भी है कि अधिकतर कमजोर लोग शक्तिशालियों की इस चतुराई को पकड़ नहीं पाते हैं और अपनी ही गलती मानते हुए विद्वेषियों और शोषकों के प्रति हमदर्दी रखने लगते हैं; शिकार खुद शिकारी का हिमायती बनकर खड़ा हो जाता है।

मासूमियत ऐसी कि कब कमजोर लोग अपने और अपनों के खिलाफ इस्तेमाल कर लिये जाते हैं, पता ही नहीं चलता! एक बात साफ-साफ समझ लेनी चाहिए कि यह वह दौर है जिसमें सत्ता के मिजाज में न कोई विपक्ष है, न विपक्षी।

सत्ता है तो सत्ताधारी दल की मनमर्जी के खिलाफ तर्क-वितर्क करना मनमानेपन से सहमति न रखना विद्रोह है। उनकी समझ बिल्कुल साफ है, सत्ताधारी दल से सहमति न रखनेवाले विद्रोही हैं, सरकार से सहमति न रखनेवाले देश-द्रोही हैं।

इस समय सत्ता में रहकर जो खेल खेला जा रहा है उसका सीधा असर जनता के जीवनयापन पर पड़ता है। अभी चुनाव में उम्मीदवारों के ‘बागी’ होने से परेशान सत्ता के दावेदार तब क्या करेंगे जब उसी अर्थ में जनता ‘बागी’ होने के लिए बाध्य हो जायेगी, मन बनाने लगेगी! यह ठीक है कि सपनों में किये गुनाह का कोई सबूत नहीं होता है।

लेकिन यह ध्यान रहे, सभ्यता का अपना अनुभव है कि भूख से अधिक खतरनाक कोई आग नहीं होती है और अन्याय से बड़ा कोई विस्फोटक नहीं होता है! जी, प्रक्रिया है तो परिणाम भी होगा।(

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