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*बोधकथा : श्रेष्ठ दशा*

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       प्रखर अरोड़ा 

    बौद्धकाल में शूद्रों और चांडालों को अध्ययन का अवसर मिलने लगा था. वे नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में अध्ययन करने जाते थे. इससे उनके भीतर आत्मविश्वास बढ़ा था. 

     वाराणसी के प्रसिद्ध आचार्य के प्रधान शिष्य का नाम था, श्वेतकेतु. वह जातीय अभिमान से भरा था.

     एक दिन वह शहर से बाहर जा रहा था कि दूसरी ओर से आते हुए चांडाल पर उसकी नजर पड़ी. इस भय से  चांडाल को छूकर आने आने वाली वायु उसे दूषित न कर दे, वह चिल्लाया—‘मनहूस कहीं के, जिधर हवा जा रही है, उधर होकर चल.’ 

इतना कहकर वह जिस दिशा से हवा आ रही थी, उसी दिशा में हो गया. चांडाल चपल था. वह भी जिस दिशा में श्वेतकेतु था, उससे भी ऊपर की ओर हो गया. इसपर श्वेतकेतु गालियां देने लगा. तब चांडाल ने उससे पूछा—‘तू कौन है?’

‘मैं ब्राह्मण-माणवक हूूं.’

‘ब्राह्मण, क्या मेरे इस प्रश्न का उत्तर दे सकेगा?’

‘क्यों नहीं.’ 

‘यदि नहीं दे सका तो मेरी दोनों टांगों के बीच से निकलना होगा.’ 

श्वेतकेतु अपने ज्ञान से अभिमान से भरा हुआ था. अपने सामर्थ्य का अंदाजा लगाकर बोला—‘पूछ?’ 

तब चांडाल ने लोगों को साक्षी बनाकर पूछा—‘युवा ब्राह्मण दिशाएं कितनी हैं?’

    ‘पूरब आदि कुल चार दिशाएं हैं?’

‘मैं तुझसे इन दिशाओं के बारे में नहीं पूछता. तू प्रश्न को ठीक से समझ नहीं पाता और मेरे शरीर को छूकर आई हवा से नफरत करता है.’ उसके बाद ब्रह्मचारी ने अपनी हार मान ली और उसे शर्त के अनुसार चांडाल के आगे झुकना पड़ा. 

आश्रम लौटकर उसने गुरु से वही प्रश्न किया. इसपर गुरु ने कहा—‘उसपर क्रोधित मत हो….जो तूने देखा-सुना नहीं, ऐसा बहुत है. हे श्वेतकेतु! माता-पिता पूर्व दिशा हैं.  आचार्य श्रेष्ठ दक्षिण दिशा कहलाते हैं. अन्न-वस्त्र देने वाले, गृहस्थ जन, मित्र-संबंधी उत्तर दिशा हैं और पुत्र तथा पत्नी पश्चिम दिशा. इनमें भी वह दिशा परम श्रेष्ठ है, जिसे प्राप्त कर दुखीजन सुखी होते हैं।

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