डॉ. प्रिया
कर्म स्वाभाविक है। कर्म बन्धन नहीं है, कर्म-फल बन्धन है। कर्म-फल के प्रति आसक्ति, मोह, आकर्षण और लगाव–ये बन्धन हैं। कर्म मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार है जो जन्मजात है लेकिन कर्म-फ़ल मनुष्य के अधिकार में नहीं है।
यह नियति के अधिकार में है। मनुष्य कभी किसी पल बिना काम के निष्क्रिय भाव से बैठ ही नहीं सकता और कर्म-फ़ल है दूसरी ओर, उसके अधिकार के बाहर। कर्म-फल के प्रति आसक्ति ही हम-आपको जन्म और मृत्यु के बन्धन में बांधती है।
फलासक्ति के कारण हम-आपमें काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार का जन्म होता है। यदि आसक्ति नष्ट हो जाये तो फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि कहाँ ? तब तो आप एक परम सन्त हैं।
फलासक्ति के कारण ही हमारी इन्द्रियां सात्विक, राजस और तामस गुणों से प्रभावित होती हैं जिसके फलस्वरूप ज्ञान ढक जाता है। उस पर गुणों का ग्रहण लग जाता है और इस कारण अपने आपको, अपने अस्तित्व को और अपने आत्मस्वरूप को एकबारगी भूल जाते हैं हम।
मानव जीवन में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन कर्म-फल और अहं अर्थात् कर्ता का भाव नहीं है। वेदवादी, कर्मकांडवादी, कामनावादी, स्वर्ग को श्रेष्ठ मानने वाले, जन्म-मरणरूपी कर्म-फल में विश्वास रखने वाले तथा भोग और ऐश्वर्य के लिए ही कर्म करने वाले अज्ञानी हैं।
ऐसे अज्ञानियों पर नियति सदा हंसती है इसलिए कि ऐसे अज्ञानी, बुद्धि के अभाव के कारण यह नहीं जानते हैं कि कर्म का अच्छा-बुरा फल आज नहीं तो कल मिलेगा ही नियति के अनुसार।
लेकिन उसकी आशा अदृश्य रूप से एक ऐसे बन्धन में बांध रही है जिसके कारण आवागमन से कभी भी मुक्ति नहीं मिलेगी।