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पुस्तक समीक्षा : ‘घर के जोगी’

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एक शहर के रचनात्मक अवदान से परिचय की अनूठी पहल

रतलाम का साहित्य जगत में गौरवपूर्ण स्थान रहा है। लघु पत्रिका आंदोलन के दौर में यहां से ‘प्रकाशित ‘कंक’ व ‘आवेग’ की चर्चा ख़ूब हुई हैं। इस शहर की साहित्यिक बहसों व गोष्ठियों के चर्चे भी ख़ूब हुए हैं।” घर के जोगी”  पुस्तक का स्वागत किया जाना चाहिए, यह पाठकों को भी सम्पन्न व समृद्ध करेगी। 

 सुरेश उपाध्याय

‘घर के जोगी’ बोधि प्रकाशन, जयपुर से हाल ही में प्रकाशित युवा साहित्यकार आशीष दशोत्तर की आलोचना पर केंद्रित पुस्तक है. आशीष दशोत्तर साहित्य की विभिन्न विधाओं यथा कहानी, कविता, ग़ज़ल, नवगीत, व्यंग्य, आलोचना, साक्षात्कार आदि में सतत रचनारत हैं। अभी तक विभिन्न विधाओं में उनकी पंद्रह पुस्तके प्रकाशित हुई हैं । इसके अलावा नवसाक्षर लेखन के तहत पांच पुस्तकें , आठ वृत्तचित्रों में संवाद लेखन एवम पार्श्व स्वर के साथ सामाजिक सरोकार पर कई पुस्तकों का सम्पादन व लेखन वे करते रहे हैं। पुरस्कार की एक लम्बी फेहरिस्त भी उनके नाम हैं।

आलोचना की इस पुस्तक में आशीष ने एक अभिनव पहल की है, आज के संदर्भ में अपने शहर ‘रतलाम’ के ज्ञात, अल्पज्ञात व अज्ञात रचनाकारो के कविकर्म से वाबस्ता करने की महती कोशिश की है। किसी शहर की रचनाधर्मिता को लेकर मेरी जानकारी में यह प्रथम पहल है. अपनी बात में उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए वे इस अनुष्ठान को “ अपनी ज़मीन की कविता से कविता की ज़मीन की तलाश “ निरुपित करते हैं। एक शहर के छप्पन रचनाकारों को खोजना, ढूंढना, उनके रचनाकर्म को सहेजना, संकलित करना, अध्य्यन करना व प्रत्येक पर आलोचनात्मक आलेख तैयार करना एक श्रमसाध्य कार्य तो है ही, कृतिकार आशीष दशोत्तर की कर्मठता, लगन, निष्ठा, जीवटता, जिजीविषा, प्रतिबद्धता व रचनात्मक जिद्द का सुफल ही कहा जा सकता है। एक शोधार्थी की तरह गहन खोजकर उन्होने बगैर किसी आग्रह – पूर्वाग्रह के अपने शहर रतलाम के कवियों को एकसाथ देखने व दिखाने का महत्वपूर्ण उपक्रम किया है। कवियों के रचनाकर्म पर समीक्षात्मक आलेख उनकी मेधा, अध्ययन, दृष्टि व संकल्पशीलता के परिचायक हैं। पत्रकारिता के अनुभव का प्रभाव भी इसमे दिखाई देता है।

हिंदी कविता के विभिन्न रंग, रुप, तेवर को जिस तरह से ‘ घर के जोगी ‘ में संकलित किया गया है, उससे विभिन्न रंगों व खूश्बूओं के पुष्पों से गूंथी हुई माला या पुष्प गुच्छ की संज्ञा देना, अतिशयोक्ति नही होगी। इस पुस्तक में कई नाम ऐसे हैं जो आज की पीढ़ी के लिए नए हैं या पुरानी पीढ़ी भी जिन्हें भूल चुकी है। इस पुस्तक ने उनको स्मरण करने, उनके रचनाकर्म से परिचित होने तथा प्रेरणा प्राप्त करने की जरुरत रेखांकित की है। नई कविता, अकविता, प्रगतिशील कविता, जनवादी कविता, छंद्युक्त कविता, छंदमुक्त कविता, ग़ज़ल, गीत के प्रतिनिधि  हस्ताक्षर में दिवंगत सर्वश्री गोपालसिंह नेपाली , विष्णु खरे, डा. चंद्रकांत देवताले, कैलास जायसवाल, जयकिरण, सुदीप बैनर्जी, डा. जयकुमार जलज, रमेश शर्मा, डा. हरीश पाठक से लेकर वर्तमान में भी सक्रिय सर्वश्री निर्मल शर्मा, , प्रो. रतन चौहान, श्याम माहेश्वरी, डा. मुरलीधर चांदनीवाला, लक्ष्मीनारायण राजोरा (अलीक), जनेश्वर, प्रभा मुजुमदार, रश्मि रमानी, यूसुफ़ जावेदी को देखना सुखद तो है ही, समृद्ध करता है. कविता को मंच पर गौरव के साथ प्रतिष्ठित करने वाले दिवंगत कवि सर्वश्री दिनकर सोनवलकर, डा. देवव्रत जोशी, प्राणवल्लभ गुप्त, पीरुलाल बादल से लेकर आज भी सक्रिय प्रो. अज़हर हाशमी की रचनाधर्मिता उत्साह व ऊर्जा का संचार करती है।

रतलाम का साहित्य जगत में गौरवपूर्ण स्थान रहा है। लघु पत्रिका आंदोलन के दौर में यहां से ‘प्रकाशित ‘कंक’ व ‘आवेग’ की चर्चा ख़ूब हुई हैं। इस शहर की साहित्यिक बहसों व गोष्ठियों के चर्चे भी ख़ूब हुए हैं और उनके  अतिरंजनापूर्ण उल्लेख को दिवंगत कथाकार व चित्रकार श्री प्रभु जोशी के परिहास में कहे गए संवाद में देखा जा सकता है – ‘ क्यो रे, वैसी खूनी गोष्ठियां, अब भी होती है?’  संवादहीनता, असहिष्णुता के बाहुल्य के इस समय में भाषाविद व  साठ के दशक के महत्वपूर्ण गीतकार डा. जयकुमार जलज की चिंताएं भी सहसा याद आ रही है – “ हम असहमत होते थे, लड़ते –झगडते थे लेकिन परस्पर प्रेम, सम्मान व संवाद बनाए रखते थे।”

इस शोधपरक आलोचना पुस्तक का स्वागत किया जाना चाहिए, यह पाठकों को भी सम्पन्न व समृद्ध करेगी, ऐसा विश्वास है। हिंदी साहित्य के शोधार्थियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ भी हो सकती है तथा अनेको नव रचनाकारों के लिए प्रेरणास्त्रोत भी हो सकती है। श्री आशीष दशोत्तर को इस गुरुत्तर कार्य के सफल निर्वहन के लिए हार्दिक बधाई व साधुवाद।

पुस्तक : घर के जोगी
लेखक  : आशीष दशोत्तर
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य : रुपए 499/-

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