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पुस्तक समीक्षा:सार्वजनिक क्षेत्र की महत्ता तथा उसके संरक्षण की जरुरत का रेखांकन

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सुरेश उपाध्याय 

आलेख संकलन – सार्वजनिक क्षेत्र राष्ट्र की जीवन रेखा (बैंकिंग के विशेष संदर्भ मे)

परिकल्पना एवम संकलन – विजय दलाल

अनुवाद व सम्पादन – अरविंद पोरवाल

आवरण व विन्यास  – अशोक दुबे व मुकेश बिजोले

प्रकाशक – मेहनतकश,  म.प्र.बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन व म.प्र. बैंक आफिसर्स एसोसिएशन

सार्वजनिक क्षेत्र की महत्ता तथा उसके संरक्षण की जरुरत का रेखांकन

आजादी के बाद देश मे उत्पादन वृद्धि, रोजगार निर्माण व अधोसंरचना के विकास मे सार्वजनिक क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. 1969 मे बैंको के राष्ट्रीयकरण ने बडे औधोगिक व व्यवसायिक घरानो के एकाधिकार को ध्वस्त कर लघु व मध्यम उध्योग / व्यवसाय व कृषि के लिए साख सुविधा की राह आसान बनाई तथा खाद्यान उत्पादन मे देश को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा मे ठोस योगदान दिया है. 1991 की नई आर्थिक नीतियो ने भूमंडलीकरण, उदारीकरण व निजीकरण के मूलमंत्र के साथ जो रास्ता चुना था उसके दुष्परिणामो की आशंकाए देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन को थी और उसने प्रारम्भ से ही इनके विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की है. इन नीतियो के तीन दशक बाद आकलन करे तो आज बेरोजगारी आज सबसे बडी समस्या के रुप मे हमारे सामने खडी है तथा विषमता की खाई विकराल हो गई है. ठेकेदारी प्रथा ने श्रमिको के शोषण के पथ प्रशस्त किए है तो रोजगार व सामाजिक सुरक्षा के संदर्भ मे स्थिति बहुत भयावह बनी हुई है. 2014 के बाद इन नीतियो को और सघनता से लागू किए जाने के प्रयास किए जा रहे है तथा कोविड-19, बेतुकी नोटबंदी व दोषपूर्ण जी एस टी के लागू किए जाने ने समस्याओ को और जटिल बना दिया है. लाकडाउन के अनियोजित लागू किए जाने के परिणामस्वरुप मजदूरो के विस्थापन व पलायन के पीडादायी दृष्य आज भी विचलित कर देते है. आपदा मे अवसर का लाभ लेते हुए श्रम कानूनो मे श्रमिक विरोधी संशोधन कर चार श्रम सन्हिता को इस दौर मे थोप देना तथा चंद हाथो को देश की सार्वजनिक सम्पत्तियो  को औनेपौने दामो मे सौपने के प्रयास सरकार की वर्गीय दृष्टि को स्पष्ट करते है. बाजारीकरण की नीति व अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा संचालित अर्थतंत्र से उपजी बेरोजगारी, गरीबी व  विषमता का समाधान केवल सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से किया जा सकता है.

     ‘सार्वजनिक क्षेत्र राष्ट्र की जीवन रेखा पुस्तक’ मे संकलित आलेखो का सार यही है. बैंकिग के विशेष संदर्भ मे संकलित पुस्तिका के आलेख तथ्य व आंकडो के साथ समूचे आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक परिदृष्य को देखने व समझने मे सहायक सिद्ध होते है. पुस्तक के आलेख पांच खंडो – 1.पूंजीवाद का संकट और भारत, 2.सार्वजनिक क्षेत्र के बैंको का निजीकरण और बैंकिग का भविष्य, 3. जीवन बीमा, सामान्य बीमा एव अन्य क्षेत्र, विनिवेश, निगमीकरण, निजीकरण, 4. श्रम सन्हिताओ के निहितार्थ तथा 5. श्रम आंदोलन और एआईबीईए मे विभक्त है. आल इंडिया बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन के 75वे स्थापना वर्ष के अवसर पर कोविड-19 के दौर मे देश के विभिन्न अनुशासनो के विशेषज्ञो यथा अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र, ट्रेड यूनियन , विधि, पत्रकारिता आदि के वेबिनार व्याख्यान मे व्यक्त विचारो के आधार पर यह पुस्तक संकलित की गई है. किसान आंदोलन के परिणाम स्वरुप भूमि अधिग्रहण कानून तथा कृषि सुधार कानून वापस लिए जाने को रेखांकित करते हुए संघर्ष व आंदोलन को ही एकमात्र विकल्प बताया गया है तथा इस पुस्तक का उद्देश्य जनजागरण व व्यापक आंदोलनो से जनता को जोडने की दिशा मे कदम निरुपित किया गया है.

पुस्तक की परिकल्पना एवम संकलन विजय दलाल, अनुवाद व सम्पादन अरविंद पोरवाल तथा आवरण व विन्यास  अशोक दुबे व मुकेश बिजोले ने किया है. बीमा कर्मचारी संगठनो के अग्रणी नेता तथा देशभर मे मार्क्सवाद के अध्येता व श्रेष्ठ शिक्षक के रुप मे ख्यात कामरेड छगनलाल दलाल की स्मृति मे गठित संस्था ‘मेहनतकश’, म.प्र.बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन व म.प्र. बैंक आफिसर्स एसोसिएशन ने इसे प्रकाशित किया है.

तथ्य, तर्क व आंकडो पर आधारित यह पुस्तक जानकारीपरक व सूचनापरक होकर लोकोपयोगी होगी, ऐसा मेरा मानना है.

सुरेश उपाध्याय 

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