(अशोक मधुप के कविता संगृह युग−पीड़ा की समीक्षा वयोवृद्ध साहित्यकार हितेश कुमार
शर्मा ने की है। हिंदी साहित्य के लिए हितेश कुमार शर्मा जाना−माना नाम है।)
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प्रिय अशोक मधुप काव्य प्रेमी हैं। साहित्य प्रेमी हैं ।यह तो मैं जानता था ,किन्तु कवि भी है यह उनकी पुस्तक युग पीड़ा को पढ़कर पता चला। आद्योपान्त पुस्तक को पढ़कर मैंने यह अनुभव किया कि जितनी सरलता से गम्भीर बातों को कविता काव्य में लिखा है वह कोई नया आदमी नहीं लिख सकता। एक सिद्धहस्त कवि ही लिख सकता है। यह प्रतिभा अभी तक कहाँ छुपी थी। अन्य व्यक्तियों की कविताओं को मेरी भी कविता को अमर उजाला में प्रकाशित कराने वाले अशोक मधुप ने अपनी कविता लिखकर अब तक क्यों नहीं प्रकाशित कराई। अब जीवन में ऐसा कौन सा विरह व्याप्त हो गया जिससे कविता की अजस्रधार निर्झर बनकर बह निकली और सुमित्रानन्दन पंत की यह पंक्तियाँ साकार हो गईं। वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अन्जान। लेकिन तभी नजर पढ़ी पुस्तक के नाम पर और तब यह अहसास हुआ कि इस युग की पीड़ा ने ही अशोक मधुप के कवि को जागृत किया है युग पीड़ा की कुछ पक्तियों को देखिए तब मेरी बात आपको आसानी से समझ में आ जायेगी। इस कविता की शुरू की पक्तियाँ देखिये।
कितने ही युग बदले,
अनेक महान् पुरुष देवता भी,
धरा पर अवतरित हुए
समाज-सुधारक अपनी ओर से,
नारी के लिए
आवाज बुलंद करते दिखाई दिए
पर नहीं बदला,
नारी! तुम्हारे उत्पीड़न का
सिलसिला
इस कविता में द्रोपदी, अहिल्या, सूर्पनखा, अनुसुईया, सीता, सभी की पीड़ा का वर्णन करते हुए। अन्त में कवि कहता है।
आज दिल्ली में निर्भया के साथ,
हैदराबाद में महिला डाक्टर के साथ
जो हुआ,
जो हो रहा है,
वह आज की नहीं,
युगों की व्यथा है
युगों की पीड़ा है।
हमने और मैंने भी सीता का माँ रूप देखा, द्रोपदी की प्रतीज्ञा देखी, सुर्पनखा, को गलत समझा लेकिन मेरे अशोक मधुप ने प्रत्येक नारी की पीड़ा को समझा और कविता में स्थान दिया। इसके लिए मैं उन्हें साधुवाद और आशीर्वाद देता हूँ।
यहीं नहीं सभी कविताऐं अपने बजन में कम नही हैं ।पुस्तक की जो व्याख्या उन्होंने पुस्तक की पहली कविता में की है वह सराहनीय हैं उसकी कुछ पक्तियाँ नीचे लिखी है।
पुस्तकें ज्ञान देती हैं,
जीवन को सम्मान देती हैं,
वीणावादिनी का वरदान हैं,
बाइबल, वेद, गीता, कुरान हैं
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पुस्तकें देती बहुत कुछ
कभी मनोरंजन तो कभी,
अकेलेपन हरण करती हैं
कुछ पुस्तकें मेरे लिए खास हैं,
वे आज भी मेरे पास हैं।
प्रत्येक बड़े साहित्यकार ने कहा कि पुस्तकें सच्ची दोस्त है। उसी बात को नये ढंग से अशोक मधुप ने लिखा है। यही नहीं कि युग पीड़ा में ही लिखकर कलम रख दी हो। अपनी पीड़ा भी उन्होंने ने अपनी कविता ताउम्र में व्यक्त की है उसकी चार लाईन इसका वर्णन करती है। एक सच्चाई जो अब तक रही मन में छुपाई वह सामने आई। शाबाश मधुप भाई।
तुम शिक्षिका ही रही
मन नहीं पढ़ सकीं
शब्दों की गलती
संवारतीं रहीं;
कभी उनके अर्थ
नहीं जान सकीं।
सभी कविताओं को उद्ध्रत करना ना सम्भव है ना उचित है लेकिन कुछ कविताऐं ऐसी है जो मन को छूती है जैसे पृष्ठ 35 पर लिखी गयी कविता। की चार लाईने।
कुछ भी बनना मित्र!
सुकरात मत बनना,
मीरा मत बनना,
शंकर मत बनना
जब इन्होंने जहर पिया तो
समय की मांग थी,
वक्त का तकाजा था।
पूरी कविता पढ़ेगे तो बहुत कुछ समझ में आ जायेगा। अशोक मधुप बहुत बहादुर है लेकिन पृष्ठ-67 पर उन्होंने अपना डर भी बयान किया है। और यह डर अकेले उनका नहीं प्रत्येक व्यक्ति का है।
तुमने पूछा, किससे डरते हो?
आफत से या तूफान से?
मैंने कहा, आफत से
आफत से क्यों?
मैंने कहा-
वह स्त्रीलिंग है।
हर कविता में नई बात है डर कर कुछ नहीं लिखा है सब निर्भीक होकर लिखा है और इन लाईनों में मेरे मन की बात लिखी है जो मेरी हितेश की हर किताब में मिलेगी।
बुजुर्ग कहते थे
तेल देखो, तेल की धार देखो
मैं कहता हूँ
एससी एक्ट देखो
उसकी मार देखो
आरक्षण में,
प्रतिभाओं का संहार देखो।
और अन्तिम से पहली पृष्ठ-123 पर सबसे ऊपर लिखी चार पक्तियाँ सम्भवतः अपनी सहधर्मिणी के लिए लिखी है। अथवा…
बैठी रहो मेरे सामने
मैं तुम्हारी आँखों से,
पढ़ लूँगा वह सब,
बिना जाने, बिना सुने भी
जो मैं जानना चाहता हूँ
जो मैं सुनना चाहता हूँ।
बस और नहीं क्योंकि एक से बढ़कर एक कविता आपको पढ़ने को मिलेगी इस पुस्तक में। पुस्तक प्राप्त कीजिए। पढ़िये और अपने मन की बात अशोक मधुप को लिखिए। आशीर्वाद देता हूँ अशोक मधुप को कि वह काव्य में वह ऊचाँईया प्राप्त करे जो मुझे प्राप्त नहीं हो सकी। सराहना करता हूँ श्रीमति निर्मल के भाग्य की जिन्हें ऐसा योग्य प्रेमी सुशील सुन्दर साहित्यिक पति मिला।
पुस्तक का नाम – युग पीड़ा
मुल्य-रु. 250 पृष्ठ-128
प्राप्ति स्थान 25 अचारजान, कुंवर बाल गोविन्द स्ट्रीट बिजनौर 246701
मोबाइल− 9412215678