कुमार चैतन्य
पलटूदास कहते हैं : यहां तुम्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता; जंगल में भी आंख तो यही होगी, तुम तो यही होओगे—ठीक यही, जरा सा भी तो भेद न होगा। परिस्थिति बदल जाएगी, मनःस्थिति तो न बदल जाएगी।
तुम यहां नहीं देख पाते उसे, वहां कैसे देख पाओगे? इन वृक्षों में नहीं दिखाई पड़ता, जंगल के वृक्षों में कैसे दिखाई पड़ेगा? लोगों में नहीं दिखाई पड़ता, पत्थर—पहाड़ों में कैसे दिखाई पड़ेगा?
लेकिन आदमी बेईमान है। तीर्थों में खोजने इसलिए नहीं जाता कि तीर्थों में परमात्मा मिलता है। तीर्थों में खोजने इसलिए जाता है कि यह भी परमात्मा से बचने की अंतिम व्यवस्था है, आखिरी चालाकी—कि खोज तो रहे हैं भाई, और क्या करें!
इतना श्रम उठा रहे हैं, नहीं मिलता तो भाग्य में नहीं होगा; नहीं मिलता तो शायद होगा ही नहीं; नहीं मिलता तो शायद मिलना ही नहीं चाहता है। लेकिन अपनी तरफ से तो हमने सब दांव पर लगा दिया है, घर छोड़ दिया, द्वार छोड़ दिया, खोजने निकल पड़े हैं। यह आखिरी तरकीब है।
कभी तुम धन खोजते थे, उस कारण परमात्मा को न पा सके। कभी पद खोजते थे, उस कारण परमात्मा को न पा सके। अब तुम परमात्मा को ही खोज रहे हो और उस कारण परमात्मा को न पा सकोगे, क्योंकि खोजने वाला चित्त वासनाग्रस्त है। और जहां वासना है वहां प्रार्थना नहीं है। और जब तक तुम्हारे मन में तनाव है कुछ पाने का, तब तक तुम पा न सकोगे। जब तक दौड़ोगे, चूकोगे। रुको और पा लो।
लगेगी तो बात चोट जैसी। कोई संन्यासी हो गया है घर—द्वार छोड़ कर, कोई मुनि हो गया है, कोई भिक्षु हो गया है। लगेगी तो चोट पलटू की इस बात से—
पूरन ब्रह्म रहै घट में सठ
तीरथ कानन खोजन जाई
और तू बेईमान, खोजने जा रहा है तीरथ, जंगल, पर्वत! आंख भीतर मोड़! जाना है कहीं तो अपने भीतर जाना है। और अपने भीतर जाना है, यह कहना सिर्फ भाषा के कारण। भीतर जाने का एक ही अर्थ होता है—बाहर जाना रुक जाए, बस। भीतर जाने को न कोई स्थान है कि जहां पैर उठासको, कदम उठा सको। भीतर तो तुम हो ही, वहां जाना क्यों है? वहां से तो तुम कभी इंच भर हटे नहीं हो।
इसलिए बाहर जाना बंद हो जाए कि आदमी भीतर पहुंच गया। भीतर जाने का अर्थ इतना ही है—बाहर जाने की दौड़ बंद हो गई, बस तुम अपने को भीतर पाओगे। तुम विराजमान पाओगे अपने को परम प्रभु की गोद में।
नैन दिए हरि—देखन को
पलटू सब में प्रभु देत दिखाई
आंखें तो दी थीं प्रभु को देखने को। और जिन्होंने आंखों का ठीक उपयोग किया उन्हें अपने भीतर ही नहीं दिखाई पड़ा, सबके भीतर दिखाई पड़ा। लेकिन तुम्हारी आंखों में क्या दिखाई पड़ता है? पत्थर दिखाई पड़ते हैं, पहाड़ दिखाई पड़ते हैं, रुपया—पैसा दिखाई पड़ता है, हीरे—जवाहरात दिखाई पड़ते हैं, लोग दिखाई पड़ते हैं; परमात्मा भर नहीं दिखाई पड़ता! आंखों का तुमने ठीक उपयोग ही नहीं किया। तुमने आंखों को बाहर पर अटका दिया है। तुमने आंखों को बहिर्गामी बना दिया है।
आंखों को बंद करो और देखो! आंख खोल—खोल कर तो बहुत देखा, अब आंख बंद करो और देखो। आंख बंद करके देखने का नाम ध्यान है। और आंख बंद करके जिसको दिख जाए, उसको समाधि।
आंख खोल कर फिर दिखाई पड़ेगा, पहले आंख बंद करके दिखाई पड़ जाए। अपने में जिसने उसको पहचान लिया, उसे फिर सब में उसकी पहचान हो जाती है।
बस पहली पहचान कठिन है, बाकी तो सब पहचान बड़ी सरल है, बड़ी सुगम है.