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*कायिक आकर्षण का केंद्र*

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        ~ अनामिका (प्रयागराज)

स्त्रीपुरुष के कायिक आकर्षण के मूल में निश्चित रूप से कुछ है, क्योंकि आपका शरीर स्त्री और पुरुष के शरीर के मिलन से बना है. आधा स्त्री ने दान किया है, आधा पुरुष ने दान किया है।

      हर व्यक्ति आधा पुरुष है, आधा स्त्री है; दोनों का मेल है। आपका रोआं-रोआं आधा स्त्री है, आधा पुरुष है; अधूरा-अधूरा है। जो भीतर स्त्री का हिस्सा है, वह पुरुष की आकांक्षा करता रहता है; जो पुरुष का हिस्सा है,  स्त्री की आकांक्षा करता रहता है।

मनोविज्ञान की नवीनतम खोजें कहती हैं कि हर पुरुष के भीतर अचेतन में छिपी स्त्री है और हर स्त्री के भीतर अचेतन में छिपा पुरुष है। जब तक आपके भीतर की स्त्री भीतर के पुरुष से न मिल जाए, या भीतर का पुरुष वहाँ की स्त्री नहीं मिल जाये तब तक आप बाहर खोजते रहोगे।

     जब तक भीतर का पुरुष भीतर की स्त्री के साथ एक न हो जाए, जब तक आपका चेतन मन अचेतन मन संयुक्त होकर एक न हो जाएं, तब तक जीवन में विजातीय का–स्त्री का पुरुष के लिए, पुरुष का स्त्री के लिए–आकर्षण शेष रहेगा।

अर्धनारीश्वर की प्रतिमा देखो. इसमें शंकर आधे हैं स्त्री और आधे पुरुष. जब तक आपके भीतर भी आधे पुरुष और आधी स्त्री की अर्धनारीश्वर प्रतिमा निर्मित न हो जाए, जब तक आप अपने भीतर ही पूरे न हो जाओ, तब तक तलाश बाहर जारी रहेगी।

     आप चाहोगे, स्त्री से मिल कर शायद पूर्णता हो जाए। कुछ खोया-खोया लगता है। स्त्री आपके भीतर ही तुम्हारे अचेतन में पड़ी है। यही बात स्त्री के लिए भी लागू होती है.

    इसलिए समस्त ध्यान, योग, तंत्र, मौलिक रूप से आपके भीतर की शक्तियों को मिलाने की प्रक्रिया है। जब भीतर जुड़ कर एक हो जाते हो, तब भीतर से बाहर की आकांक्षा समाप्त हो जाती है।  बाहर की आकांक्षा समाप्त हो, तो ही आप अपने भीतर मिल कर एक हो सकते हो। ये दोनों बातें एक-दूसरे पर निर्भर हैं, अन्योन्याश्रित हैं। अद्वैत ही मंज़िल है.

     प्रकृति को संतुलित रखने के लिए ये होना अनिवार्य है. ये व्यस्था प्रकृति द्वारा ही बनयी गयी है और मात्र हम इसे स्त्री पुरुष का नाम न देकर नर और मादा का नाम दें तो ज्यादा व्यापक और संतुलित होगा क्योकि आप प्रकृति की किसी भी जिवित इकाई को उठाकर देख लो नर और मादा के योगदान से ही इस धरती पर जीवन का चक्र चल रहा है. यह आवश्यक भी है और सुंदर भी.

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