पुष्पा गुप्ता
अपने देश की ‘गंगा-जमनी’ तहज़ीब और आपसी भाईचारे के क़सीदे पढ़ते हुए हमें इस कड़वी सच्चाई को भी नज़रअन्दाज़ नहीं कर देना चाहिए कि हम एक बर्बर, निरंकुश और जहालत से भरे, लम्बे समय से ठहरे हुए समाज में रह रहे हैं जहाँ फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के पनपने और फलने-फूलने के लिए प्रचुर खाद-पानी मौजूद है। आम जन की सदियों की ग़ुलामी (यहाँ मतलब जनता की दासता से है, संघी शब्दावली में देश की सदियों की ग़ुलामी से नहीं) ने अज्ञान, अशिक्षा, ग़रीबी, कूपमंडूकता और ठहरावग्रस्त जीवन के जिस अँधेरे में उन्हें क़ैद करके रखा है उसमें इंसान का रह-रहकर जानवर बन जाना कोई अनहोनी बात नहीं है।
गाँवों में डायन के नाम पर औरतों को या पकड़े गये चोरों को ठण्डे बर्बर ढंग से यातना दे-देकर मारे जाते हुए जिन्होंने देखा है वे इसे आसानी से समझ सकते हैं। हमारे देश में हुए विकृत क़िस्म के पूँजीवादी विकास ने सामन्ती जीवन की जड़ता और निरंकुशता को एक झटके से ख़त्म नहीं किया बल्कि अन्धी स्वार्थपरता, अलगाव, असुरक्षा और खोखलेपन की जिस संस्कृति को उसने बढ़ावा दिया है उसने और भी ज़्यादा मानवद्रोही, आदमख़ोर और वहशीपन की प्रवृत्तियों को उपजाया है।
बेशक़, आम लोग अपने जीवन के सामान्य क्रिया-व्यापार में एक-दूसरे के साथ मेलजोल से रहते हैं, और रहना चाहते हैं। लेकिन आर.एस.एस. जैसे फ़ासिस्ट संगठन उनके बीच मौजूद सबसे निकृष्ट भावनाओं, पिछड़ेपन, असुरक्षा और भय-सन्देह की प्रवृत्तियों को उकसाकर उनके एक हिस्से को उन्मत्त और पागल पशुओं की भीड़ में तब्दील कर देने में सफल हो जाते हैं। इसके मुक़ाबले के लिए लोगों के बीच सतत्, निरन्तर जारी शिक्षा और प्रचार, राजनीतिक और सांस्कृतिक काम की दरकार होती है।
उनकी ज़िन्दगी के वास्तविक सवालों पर उन्हें सचेत और संगठित करने की ज़रूरत होती है। यह एक लम्बा, कठिन मगर बेहद ज़रूरी, अनिवार्य काम है।
बहरहाल, गोर्की की यह छोटी-सी कहानी पढ़िए, और अपने समाज का अक्स इसमें ढूँढ़िए :
*भण्डाफोड़*
गाँव की सड़क पर से, सफे़दी-पुते उसके कच्चे घरौंदों को पार करती, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते लोगों की एक भीड़ गुज़र रही थी। मजमा, एक बड़ी लहर की भाँति, धीमी गति से बढ़ रहा था। और उसके आगे-आगे एक मरियल-सा घोड़ा सिर झुकाये चल रहा था।
जब भी वह अपना अगला पाँव उठाता तो उसका सिर कुछ इस तरह डुबकी खाता मानो वह अभी मुँह के बल आगे की ओर गिर पड़ेगा और उसकी थूथनी सड़क की धूल चाटती नज़र आयेगी। और जब वह अपने पिछले पाँव को हरकत में लाता तो उसका पिछला हिस्सा इस तरह डगमगाता मानो वह अभी ढेर हो जायेगा।
एक युवा स्त्री, जिसने अभी अपनी बीसी भी मुश्किल से ही पार की होगी, बहुत छोटी और पूरी नग्न, उसकी नंगी कलाइयाँ गाड़ीवान के सामने वाले तख़्ते से बँधी हुई। वह बग़ल के रुख चल रही थी, उसके घुटने काँप रहे थे जैसे अभी जवाब दे जायेंगे, काले और अस्त-व्यस्त बालों से घिरा उसका सिर ऊपर की ओर उचका था और उसके फटे हुए दीदे सूनी अमानवीय दृष्टि से शून्य में ताक रहे थे।
उसका बदन काली और नीली धारियों तथा निशानों से भरा था। कुमारियों जैसी दृढ़ उसकी बायीं छाती में गहरा घाव था और उसमें से ख़ून की धार निकल रही थी। ख़ून की एक लाल लकीर उसके पेट के ऊपर से होती हुई नीचे बायीं टाँग के घुटने तक खींची थी और उसकी नाज़ुक टाँगों की पिण्डलियों पर धूल के थक्के चढ़े थे। ऐसा लगता था जैसे स्त्री के शरीर से खाल की एक लम्बी डोरी उतार ली गयी हो। और उसके पेट को, इसमें ज़रा भी शक नहीं, मुंगरी से पीटा या बूटदार एड़ियों से रौंदा गया था – वह इतनी बुरी तरह से सूजा और बदरंग बना हुआ था।
स्त्री के लिए भूरी धूल में एक डग के बाद दूसरा डग घसीटना मुश्किल हो रहा था। उसका समूचा बदन ऐंठ रहा था और यह देखकर अचरज हो रहा था कि उसकी टाँगें, जो, उसके बदन की भाँति, चोट के निशानों-खरोंचों से भरी थीं, किस प्रकार उसका बोझ सँभाले थीं, किस प्रकार वह अपने आपको गिरने से और कुहनियों के बल घिसटने से रोके थी।
लम्बे क़द का एक देहाती गाड़ी में खड़ा था। वह सफ़ेद रंग की रूसी कुरती और काले रंग की अस्त्राख़ानी टोपी पहने था जिसके नीचे से निकलकर चटक रंग के लाल बालों का एक गुच्छा उसके माथे पर झूल रहा था। एक हाथ में वह लगाम थामे था और दूसरे में एक हण्टर, जिसे वह बाक़ायदा पहले घोड़े पर और फिर छोटे क़द की उस स्त्री पर झटकार रहा था जो पहले ही इतनी मार खा चुकी थी कि पहचानी तक नहीं जाती थी।
आदमी की आँखें लाल अंगारा बनी थीं, प्रतिशोध की विजयी भावना उनमें चमक रही थी और उसके बाल उनमें हरी परछाइयाँ डाल रहे थे। उसकी कुरती की आस्तीनें ऊपर तक चढ़ी थीं और उसकी लाल रोएँदार मांसल बाँहें साफ़ दिखायी दे रही थीं। उसका मुँह खुला था जिसमें सफे़द पैने दाँतों की दो पाँतें चमक रही थीं और रह-रहकर, बैठी हुई आवाज़ में, वह चिल्ला उठता था –
”ले, यह ले, कुतिया! हा-हा-हा! और ले, यह और ले!”
स्त्री और गाड़ी के पीछे लोगों की भीड़ चल रही थी – चीख़़ती-चिल्लाती, हँसती, आवाज़ें कसती, सीटी बजाती, कोचती-उकसाती, खिल्लियाँ उड़ाती। बच्चे इधर से उधर लपक-झपक रहे थे। कभी-कभी उनमें से कोई एक दौड़कर आगे निकल जाता और स्त्री के मुँह पर गन्दे शब्दों की बौछार करता। तब भीड़ ठहाका मारकर हँस पड़ती और उसकी हँसी की आवाज़ में हण्टर के हवा में सनसनाने की पतली आवाज़ डूब जाती।
भीड़ में स्त्रियों के चेहरे असाधारण उछाह से लहरा रहे थे और उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक रही थीं। पुरुष गाड़ी में खड़े देहाती को लक्ष्य कर निर्लज्जता का बघार लगा रहे थे और वह, भट्टे-सा पूरा मुँह बाये, उनकी ओर मुड़-मुड़कर हँस रहा था। सहसा हण्टर सनसनाकर स्त्री के शरीर से टकराता। लम्बा और पतला, वह उसके कन्धों का चक्कर काटता और बाँहों के नीचे उसकी चमड़ी में धँस जाता। इस पर देहाती उसे अचानक एक झटका देता और स्त्री, एक तेज़ चीख़़ मारकर, कमर के बल धूल में गिर जाती।
भीड़ के लोग उछलकर आगे बढ़ते, झुक करके उसके इर्द-गिर्द एक दीवार-सी खड़ी कर देते और वह आँखों से ओझल हो जाती।
घोड़ा ठिठककर खड़ा हो गया, लेकिन क्षण-भर बाद वह फिर डगमगाता-सा लुढ़क चलता और लांछित स्त्री उसके पीछे-पीछे घिसटने लगती। घोड़ा रह-रहकर अपने कोढ़ियल सिर को इस तरह हिलाता मानो कह रहा हो –
”कितनी बुरी बीतती है उस घोड़े के साथ, जिसे लोग अपने जैसे चाहे घिनौने काम में जोत लेते हैं।”
और आकाश – दक्खिनी आकाश – एकदम स्वच्छ और साफ़ था। बादलों की कहीं ज़रा-सी भी निशानी नज़र नहीं आ रही थी और सूरज जी खोलकर धरती पर अपनी गर्म किरनों की बौछार कर रहा था।
प्रतिशोधपूर्ण न्याय का यह चित्र, जो मैंने यहाँ दिया है, मेरी कल्पना की देन नहीं है। नहीं, दुर्भाग्यवश यह कोई मनगढ़न्त चीज़ नहीं है। इसे ‘भण्डाफोड़’ कहा जाता है और इसके द्वारा पति विश्वासघात करनेवाली अपनी कुलटा स्त्रियों को दण्डित करते हैं। यह जीवन से लिया गया चित्र है। यह उन प्रथाओं में से एक है जो हमारे यहाँ प्रचलित हैं और इसे 15 जुलाई 1891 के दिन, निकोलायेवस्की विला में ख़ेरसोन गुबेर्निया के कान्दीबोवका गाँव में, ख़ुद अपनी आँखों से मैंने देखा था।
वोल्गा प्रदेश में, जहाँ का मैं रहने वाला हूँ, यह मैंने सुना था कि अपने पतियों के साथ विश्वासघात करने वाली पत्नियों के शरीर पर कोलतार पोता जाता था और उसपर पंख चिपका दिये जाते थे। यह भी मैं जानता था कि कुछ अधिक सूझ-बूझ वाले पति और ससुर और भी आगे बढ़कर विश्वासघात करने वाली अपनी पत्नियों पर गर्मियों के दिनों में शीरा पोतकर उन्हें पेड़ों से बाँध देते थे और कीड़े-मकोड़े काट-काटकर उनके बदन में घाव कर डालते थे।
कभी-कभी ऐसी स्त्रियों के हाथ-पाँव बाँधकर उन्हें चींटियों-दीमकों की बाँबी में डाल दिया जाता था।
यह सब मैंने सुना ही था। अब उसे ख़ुद अपनी आँखों से देखकर सिद्ध हो गया कि जाहिल और हृदयहीन लोगों के बीच – उन लोगों के बीच, जिन्हें ‘कुत्ता कुत्ते को खाये’ वाली जीवन प्रणाली ने लालच और ईर्ष्या से धधकते जंगली जानवरों में परिवर्तित कर दिया था – इस तरह की चीज़ों का होना सचमुच में सम्भव है!