नीलू व्यास और कपिल सिबल के साथ साक्षात्कार में मैंने कहा था कि पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ अपने पूरे न्यायिक कैरियर में कैरियरिस्ट रहे हैं और हमेशा इस तरह का बेईमानी भरा फैसला देने के लिए तैयार रहते थे जब उनको लगता था कि सही फैसला देने से उनके सीजेआई बनने के सामने खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
इस बेईमानी भरे फैसले का सबसे ठेठ उदाहरण बाबरी मस्जिद केस था।
वह अपने पिता जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की ही तरह थे जिन्होंने एडीएम जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला मामले में बहुमत के साथ इमरजेंसी के दौरान एक नागरिक के जीने का अधिकार और उसकी स्वतंत्रता खत्म हो जाती है, का अन्याय पूर्ण फैसला सुनाया था। ऐसा इसलिए उन्होंने किया था जिससे कि उनके सीजेआई बनने का मौका खतरे में न पड़ जाए। केवल बहादुर और ईमानदार जस्टिस एचआर खन्ना ने चीफ जस्टिस बनने की कीमत पर अपना डिसेंट जाहिर किया था।
सुप्रीम कोर्ट में मई, 2022 में ज्ञानवापी मस्जिद मामले की सुनवाई के दौरान चंद्रचूड़ ने बेईमानीपूर्ण तरीके से यह टिप्पणी की कि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 ढांचे के धार्मिक चरित्र का परीक्षण करने से नहीं रोकता है। दूसरे शब्दों में कोर्ट पूजा के स्थलों के ऐतिहासिक पहचानों की जांच कर सकता है। हालांकि उस खोज के आधार पर उसे बदला नहीं जा सकता है।
पूजा स्थल अधिनियम कहता है कि एक ढांचे का धार्मिक चरित्र जो 15 अगस्त, 1947 को है, उसे नहीं बदला जा सकता है। और इस कानून का उद्देश्य धार्मिक ढांचों से जुड़े विवादों पर स्थाई विराम लगाना था। इसलिए एक मस्जिद अगर मंदिर को ध्वस्त करके भी बनायी गयी है लेकिन यह 15 अगस्त, 1947 से पहले किया गया है तो इसे फिर से हिंदू मंदिर में नहीं बदला जा सकता है।
चंद्रचूड़ की व्याख्या मस्जिद पर सर्वे करने की इजाजत देता है, जिसमें यहां तक कि स्थल पर कोई हिंदू मंदिर के अवशेष हैं इसकी जांच के लिए खोदने की कार्रवाई भी उसमें शामिल है।
यह चंद्रचूड़ का बिल्कुल अंधापन है और महाभारत में युधिष्ठिर के उस बयान की याद दिलाता है जिसमें वह गलत रूप से कहते हैं कि अश्वथामा मर गया है वह नरो वा कुंजरो वा।
यह जानते हुए कि यह पूजा स्थल अधिनियम को प्रभावहीन कर देगा क्योंकि किसी मस्जिद के सर्वे का कोर्ट आर्डर उसके ध्वंस की शुरुआत है, चंद्रचूड़ ने ऐसा क्यों किया। बिल्कुल स्पष्ट है कि वह उस समय केवल एक वरिष्ठ जज थे, सीजेआई नहीं, और सीजेआई बनने के अपने मौके को खतरे में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने निश्चित तौर पर सोचा होगा कि अगर वह यह फैसला दिए होते कि पूजा स्थल अधिनियम के चलते मुकदमा सुनने योग्य नहीं है तो शायद बीजेपी उनसे नाराज हो जाती और फिर उनकी जगह किसी और को बैठा देती।
कोर्ट मस्जिदों के सर्वे का आदेश दे रहे हैं, जैसा कि वाराणसी में ज्ञानवापी मामले में हुआ,(उसके बेसमेंट पर हिंदू कट्टरपंथियों ने कब्जा कर लिया और उसमें आरती शुरू कर दी) इसका नतीजा है कि शाही मस्जिद मथुरा, जामा मस्जिद संभल और अब प्रसिद्ध अजमेर शरीफ दरगाह से संबंधित मुकदमों का स्वागत किया जा रहा है।
चंद्रचूड़ ने एक पैंडोरा बॉक्स खोल दिया है जो भारत के सामाजिक ताने-बाने को बिखेर सकता है। भारत में हजारों मस्जिदें हैं। और यह आरोप लगा कर कि वे हिंदू मंदिरों को तोड़कर बनायी गयी हैं, बहुत सारे स्थानों पर विवाद खड़ा किया जा सकता है। और उसके बाद फिर सर्वे की मांग की जा सकती है। यह तथाकथित सर्वे मस्जिद के परिसर को खोद कर किया जाएगा और इस बात की घोषणा की जाएगी कि वहां कभी हिंदू मंदिर था जिसे ध्वस्त कर दिया गया। उसके बाद हिंदू कट्टरपंथियों की एक भीड़ आएगी मस्जिद या फिर दरगाह को ध्वस्त कर देगी जैसा कि बाबरी मस्जिद में किया गया था।
चंद्रचूड़ ने भारत को वह नुकसान पहुंचाया है जिसका कोई अंदाजा भी नहीं की जा सकता है।
(मारकंडेय काटजू सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज हैं। उनकी यह टिप्पणी द फिलोक्स से साभार ली गयी है।)
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