सुधा सिंह
_हमारे देश में एक तरफ सच्चे साधु- संतों की एक लंबी परंपरा रही है तो दूसरी तरफ साधु-संतों के रूप में ढोंगी लुटेरे बाबाओं की भी कोई कमी नहीं है। बीच-बीच में किसी-किसी का बड़ा ज़ोर चलता है और अनेक लोग उसके जाल में फंसते, लुटते और बर्बाद होते हैं। पर यह भी उतना ही सही है कि ऐसे पाखंडियों के पर्दाफाश की मुहिम भी सदा चलती रही है।_
‘बागेश्वर धाम सरकार’ प्रकरण में मुझे अपने सामने चमत्कार दिखाकर एक लाख रुपये जीतने की चुनौती देने वाले प्रसिद्ध मनोचिकित्सक और सचेत वैज्ञानिक डॉ. अब्राहम टी. कोवूर (1898-1978) की याद आ रही है।
यह चुनौती हवा में हाथ घुमाकर दुनिया के किसी कोने से कोई चीज प्राप्त कर लेने का दावा करने वाले उस बहुचर्चित वीआईपी ‘चमत्कार गुरु’ सत्य साईं बाबा के लिए भी थी जिसके मरने के बाद उसके कमरे से 98 किलो सोना, 307 किलो चांदी और 12 करोड़ नकद बरामद हुए थे!
पर इन महाशय सहित कोई भी पाखंडी उनके सामने आने की हिम्मत न जुटा सका। एक आया भी तो अपनी जमानत की राशि जब्त करा बैठा! लगभग आधी सदी तक डॉ. कोवुर अपना पोल-खोल अभियान चलाते रहे।
डॉ. कोवुर ने चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों के दावों से अपनी लंबी मुठभेड़ के आधार पर अनेक किताबें लिखीं। उनकी वहमों, भ्रमों, जादू-टोनों, भूत-प्रेत तथा ढोंगियों की असलियत बताने वाली पुस्तक “Begone Godmen” दुनिया भर में काफी मशहूर हुई। “…और देव पुरुष हार गये ” नाम से 1986 में रैशनलिस्ट सोसाईटी, पंजाब की ओर से इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ, जिसके बिहार में प्रचार-प्रसार से मैं सक्रिय रूप से जुड़ा रहा।
यह पुस्तक “चमत्कार, योग-शक्ति, काले इल्म, जादू-टोना, प्रेत, टेलिपैथी एवं धार्मिक पाखंडों से भोले-भाले लोगों को लूटने” वालों के प्रति प्रभावी रूप में सचेत और सावधान करती है।
इसमें “अलौकिक चमत्कार” या “दैवी शक्ति” के रूप में प्रचारित अनेक बातों को ठोस उदाहरणों और साक्ष्यों के जरिए अकाट्य रूप से झूठ-फरेब, मनोवैज्ञानिक परिघटना या “जादूगर का तमाशा” साबित किया जा चुका है। ऐसी और अनेक किताबें भी उपलब्ध हैं।
बहरहाल, डॉ. कोवुर इस पुस्तक में जो लिखते हैं वह आज भी कितना दुखदायी सच बना हुआ है :
“आजकल भारत में एक और किस्म का पाखंड फैला हुआ है, जिसके अनुसार, अपने आपको हिंदू देवताओं के अवतार के रूप में घोषित किया जाता है।
इस देश के बुद्धिमान धोखेबाज लोगों ने, कम मेहनत के साथ ज्यादा धन इकट्ठा करने का सुगम तरीका खोज निकाला है।वे ऐसे आदमी को चुनते हैं जो हाथ की सफाई दिखाने में माहिर हो और फिर उसको अवतार घोषित कर देते हैं।
ऐसे देव पुरुषों के चमत्कारों और दैवी शक्तियों के बारे में पूरी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं।इस तथाकथित देवता को लोगों के सामने प्रकट किया जाता है, तो उसके एजेंट उस पर फूल-माला चढ़ाते हैं और अपना सिर उसके चरणों में झुकाते हैं।
चूंकि बहुत-से श्रद्धालुओं को दूसरों की नकल करने की ही आदत होती है, इसलिए हजारों ही दर्शकगण चमत्कार करनेवाले ढोंगी के सामने सिर झुकाना शुरु कर देते हैं। इस तरह लाखों रुपया इकट्ठा हो जाता है, जो मदारी और उसके शिष्यों में बांट लिया जाता है।
परन्तु यह बात अत्यंत दुखदायक है कि इन तथाकथित देवताओं को स्थापित करने के लिए कई वैज्ञानिक भी सहायक होते हैं।… इन पाखंडियों के कार्य मुजरिम,डाकू, ठग, स्मगलर, चोर, जेबकतरे व काला धंधे करने वालों जैसे ही हैं।”
जीवन पर्यंत, लगभग पचास वर्षों तक, डॉ. कोवुर मनोवैज्ञानिक और आत्मिक चमत्कारों की बहुत ही गहराई से जांच करते रहे, उन पर शोध करते रहे और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ऐसी बातों में लेशमात्र भी सत्य नहीं होता।
आम लोगों में ऐसे ठोस उदाहरणों के जरिए इन पाखंडियों के दावों के प्रति तर्क-बुद्धि जगाने की जरूरत बनी हुई है।
निश्चय ही वैज्ञानिक सोच और विवेक के आधार पर चीजों को देखने- समझने और ढोंग-अंधश्रद्धा के उन्मूलन को लेकर कमोवेश प्रयास अड़गेबाजी के बावजूद जारी रहे हैं। पर इधर के वर्षों में दो बातों से इस प्रयास को और धक्का लगा है। पहले तो सिर्फ “पत्र-पत्रिकाओं में ही ढोंगियों की कहानियां छपती थीं”, पर अब तो अविवेक की आग में चौबीसों घंटे घी डालते टीवी चैनल हैं, सोशल मीडिया के विविध रूप हैं!
दूसरी बात और चिंताजनक है। पहले ढोंग- अंधविश्वास- चमत्कार या अलौकिक शक्ति के दावों को मानने से इंकार करने पर “धार्मिक भावनाएं” बात- बात पर इतने उग्र रूप में “आहत” नहीं होती थीं या “आहत” नहीं करायी जाती थीं! मेरा दशकों का निजी अनुभव इसकी पुष्टि करता है। मेरे कम्युनिस्ट पिता का तो सचमुच आखिरी सांस तक यह ख़ास मिशन था।
उन्होंने स्वयं ऐसे कई ढोंगी बाबाओं का पर्दाफाश किया। वे कहानियां भी दिलचस्प हैं! कभी शायद लिख सकूं। बहरहाल, 18 साल पहले लगभग 90 साल की उम्र में आखिरी क्षणों तक दिमागी रूप से सक्रिय मेरे पिताजी को जब गांव के पुरोहित जी ने कहा कि “अब तो भगवान का नाम ले लीजिए” तो छूटते ही उन्होंने जवाब दिया: “आज तक नाम नहीं लिए तो अब क्या लेंगे! भागिए, ढोंग फैलाकर लोगों को बेवकूफ बनाकर ठगते रहिए!”
पर किसी की भावना आहत नहीं होते देखी! वे कुछ ही दिन बाद जब चल बसे तो उलटे कई लोग बार-बार इस बात को याद कर सराहना के अंदाज में कहते रहे: “वे सिद्धांत के बड़ा पक्का थे। अंत तक डंटे रहे।”
कहना न होगा कि खास तौर से पिछले आठ-नौ सालों से किसी-न- किसी बहाने “धार्मिक भावनाएं” कुछ ज्यादा ही “आहत” होने लगी हैं, क्योंकि इस माहौल में चुनावी फसल अच्छी होती है!
_पर हर हाल में हमें तर्क-बुद्धि-विवेक- विज्ञान के आधार पर धूर्तों-पाखंडियों का पर्दाफाश तो करना ही है, क्योंकि यह न केवल व्यक्तिगत ठगी से बचने के लिए, बल्कि सामाजिक प्रगति के लिए भी जरूरी है।_