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उलझी गाथाएं

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डॉ.मंगल मेहता

(जाने-माने कहानीकार, समाजवादी लेखक डॉक्टर (स्व) मंगल मेहता का 31 अक्टूबर को 93 वां जन्मदिन है। इस अवसर पर हम उनकी कहानी प्रकाशित कर रहे हैं। अलग-अलग परेशानियों को इस कहानी में प्रस्तुत किया है -सम्पादक) 

  बस खाल के किनारे आकर रुक गई। साढ़े ग्यारह बजे थे। चार बसें पहले से ही खड़ी थी। पानी अभी भी बरस रहा था। कुछ दूर पहले नदी के पुल को पार किया था। पानी उफान लेता वेग से टकराता पुल के ऊपरी भाग को छू-छू रहा था। कुछ और बारिश आती तो पानी सड़क पर दौड़ता नजर आता। फिर एक उफनता नाला पार किया था। यहां सड़क पर खूब पानी था। बस वापस भी नहीं लौट सकती थी।

        बरसते पानी से आसपास के बबूल झर रहे थे। खाल का पानी इतना बढ़ चुका था कि ऊंचाई की ओर से उसका पानी सड़क के एक ओर बहा जा रहा था। हवा चल रही थी। नीचे भी नहीं उतर सकते थे। कौन भींगे। जो गए थे वे भी खाल के किनारे तक जाकर वापस मोटर में आकर बैठ गए थे। और मोटरों की सवारियां भी अपनी-अपनी मोटर में बंद थी। कुछेक जरूर भीगते हुए, गीले कपड़ों में ठिठुरते हुए खड़े थे। बतिया रहे थे। अपने अनुभव को बांट रहे थे। ड्राइवर पीछे की सीट पर जाकर लेट गया। अपने आप कह रहा था- ‘चार-पांच घंटे पर गई जानो।’ इतनी देरी की बात को सुनकर कंडक्टर, क्लीनर भूख महसूस करने लगें। ककड़ियों की तलाश में दूसरी बस की ओर चल दिये। जाने की जल्दी न होती तो इस बरसते पानी में आता ही कौन! पर खाल इतना चढ़ आएगा- उम्मीद नहीं थी।

       इस बेवकूफ रिश्तेदार का बचाव करना था। कोर्ट में समय पर पहुंचना था। अब वह परेशान नजर आ रहा था। चैन से अपनी सीट पर बैठ नहीं पा रहा था। नीचे उतरता, कुछ देर पश्चात निश्वास लेता-‘हे भगवान। सब तुम्हारे कारण है।’ 

         उसने सुना। ठिठक कर रह गया। निरीह निगाहों से उनकी ओर देखता रहा। वे दोनों ही सोच रहे थे यह लम्पटता नहीं जताता, समझदारी से काम लेता, आज यह सब परेशानियां तो नहीं होती।

          पिछले दरवाजे के पास वाली सीट पर एक औरत और उसकी ग्यारह साल के करीब की लड़की बैठी थी। उसने खिड़की से बाहर की ओर देखा फिर अपनी सीट पर से खड़ी होकर गीले कपड़ों को झटकारा और अपने आप से कहा- ‘आज का दिन भी बेकार गया। चारे का भारा भी न ला पाऊंगी।’ वह फिर अपनी जगह सिकुड़ कर बैठ गई। 

‘तुम काजल की डिबिया लाए न! कितने रुपए में?’
‘मैं नहीं लाया मुझे जरूरत नहीं। जिसे चाहिए लाए अपने लिए।’
‘तेरी यह कौन सी औरत है रे?’
‘छठवीं’
सुनकर सभी चौंक पड़े। सीटों से उचक उचक कर उसकी ओर देखने लगे थे।
‘मत मारी गई रे! धन भी गया, ढोल्या भी गया।’
दोनों ने सुना। कहना चाहते थे कुछ पर मोटर की अन्य सवारियों का ध्यान में ला चुप हो गए।
‘कुछ नहीं भैय्या, किस्मत को बखान रहा हूं। गजब की रे गिरधारी, तेरी माया गजब की।’
आगे की सीट से वही व्यक्ति कह रहा था-‘भुगते बैठा हूं भैया।’ काली स्याह देही, दुबला पतला। साधारण कद का। बड़ी-बड़ी बिना तराशी हुई मूछें। पैंतीसेक साल की वय होगी।
किसी एक मनचले ने लोकगीत उच्चारा। ऊंची टेर में लय से-
‘पीली ओढ़नी को कई ओढ़नो जी,
धूप पड़े कुमलाय।
असा संगेति की कई संगती के,
भीर पड़े भग जाए।’
‘अरे वाह! खूब गाया भाई’
‘अरे ऐसी क्या भीर पड़ गई तुम पै, सुनाओ तो आप बीती’
‘आप लोगों को सुना कर अपनी हंसी उड़वाऊं। क्यों दादा?…. कह चकवा, सुन चकवी….’- कह वह लोक गायक फिर हंस पड़ा।
….उसे चैन नहीं था। खिड़की से बाहर मुंह निकलता। पानी तो उसी भांति बह रहा था। जरा भी कम नहीं हुआ था। फिर अपनी जगह पर खिसक आता। निश्वास लेता…. पत्नी की याद हो आई। उसकी आदतों से वह घर में कलेश करती थी। वह मारता-पीटता था। यह तो वह थी कि निभा ले गई। दुख सहते-सहते मर गई….
‘हंसने का अवसर ही कहां है रे! देखते नहीं, कैसी टैम है सबकी। घर बार से दूर, नदी का किनारा। बाढ़, उफनता, हहराता पानी। चिंघाड़ता लगता। चारों ओर पानी ही पानी, क्या हंसी की टैम है?
‘भाई जहां हंसी का अवसर होगा- हंसेंगे ही। तुम तो सुनाओ। सुना कर तुम्हारा जी हल्का होगा। तुमको अपना आगे का रस्ता सूझेगा।’
…..उसकी मौत के बाद एक औरत ले आया। लगता है यह सभी का षड्यंत्र था। उसके बाद उसके भाइयों ने आकर उसके यहां डेरा डाल दिया। फिर सभी खेत पर रहने चल दिए। झोपड़ी थी ही। वे बार-बार एक ही बात याद दिलाते थे- उनकी बहन का पक्का बंदोबस्त हो। इज्जत गंवाई तो फिर भूखों न मरना पड़ें। वह चुप रह जाता। इच्छा होती कहे- बहिन ही नहीं, उसके मुस्टंडे तुम भाई लोग भी खा-खा कर मोटे हुए जा रहे हो। पर कह नहीं पाता। उनके व्यवहार में दिन प्रतिदिन क्रूरता आती जा रही थी।
वह फिर अपनी जगह से उठ बैठा। मोटर के फाटक तक गया। नीचे उतरा पर बौछारों से भींगता फिर मोटर में चढ़ गया। अपनी जगह आकर बैठ गया।
‘दादा बात ये है कि औरत, औरत है। मैं उसे माथे पर नहीं बिठता। रहना हैं, रहो घर में। मेहनत मजदूरी करो। गिरस्ती का रेंकडिया खींचे। अफलातूनी बघारनी है तो गांव-गोठडों में क्यों जलम लिया। जलम लेना था- मुंबई, दिल्ली, जैपुर, भोपाल। वहां नहीं मालूम पड़ती -अथमाणे की, उगने की। ढोल्या से नीचे नहीं उतरती और नीचे भी ऐसे बिछावने बिछे रहते कि पैर धरो, हाथ भर नीचे धसक जाये, नहीं बा’साब।’
….फिर उसे खेत पर ही नहीं आने देने लगे। औरत घर पर आती, उसके लिए रोटी बनाती‌ भाइयों के लिए बनाती। खेत पर ले जाती। वे भाई लोग उसे मारने पीटने भी लगे। खेत पर आया तो हाथ पैर तोड़ देंगे। ऐसे ही मारपीट करके उससे खेत का बेचान लिखवा लिया।
सिर नीचा करके बैठा-बैठा वह सोच रहा था।
‘ठीक कह रहे हो मोटियार। मिलजुल कर ही खिचना पड़ती है गिरस्ती की गाड़ी।’
‘औरत चली गई तो चली गई। मैं नहीं गया उसकी खुशामत करने। दाणकी करूं कि उसके आगे पीछे घूमूं, नहीं दादा?’
‘औरत, यह कह कर जाए कि तू आदमी में नहीं तो?’- एक नवयुवक में प्रश्न उछाला।
….मारपीट बर्दाश्त के बाहर हो गई, खेत पर आना जाना भी रुक गया तो उसने अपने रिश्तेदारों से मदद लेने की सोची। वकील से सलाह ली। विलासिता की विडंबना। योजना बनी। उन लोगों को कुछ नगद राशि दी गई। और एकमुश्त देने का लालच दिया गया। उन्हें खेत से हटना पड़ेगा। इस गांव से जाना होगा। अपनी बहिन को ले जायें, जहां चाहे उसका ‘नाता’ दें। वे तैयार नहीं थे। कानून की बारीकियां समझाई। उसकी लिखत की खामियां बताई गई। और उनकी ताकत के आगे की ताकत को दिखाया गया। दिखाया ही नहीं गया, क्रूरता की सीमा से आगे वाली झलक दिखलाई गई। एक मुस्टंडे का पैर तुड़वा दिया गया। वे राजी हो गए। उन्हें दारू की दावत भी दी गई। आज उसी के कागजात कोर्ट में पेश करने थे।
सीट की टेक लगा ढीला सा बैठा था वह। लगता था जैसे ऊंघ ले रहा हो।
उस नवयुवक का तर्क सुन सभी हंस पड़े थे।
वह बोला, बिना झिझक के- ‘मैं नहीं कह दूंगा यह गली गली में, माटी करती फिरती थी कैसे रखूं।’
‘अच्छा?’
‘एक गई तो दूसरी आ गई। वह गई तो तीसरी आ गई। फिर चौथी आई…’
‘ऐसे कितने विवाह किये रे!’
‘विवाह नहीं। औरत की। शादी रचाने में रुचि नहीं। बरात कहां जुटाता फिरुं? तलवार से तोरण मारना होता है। भाई, चाहे लकड़ी का ही हो, है तो मोर ही ना। उस पर तलवार चलाना-रस्म कहो। यह भी घमंड ही है न’
‘वाह भाई, वाह! क्या बात छांटी। ये औरतें छोड़ता जा रहा?’
‘छोड़ता जा रहा पर मिलती भी तो है। मेरे में भी कुछ होगा तो आ जुड़ती है।’
‘मिल जाती है तुझे?’
‘छटवीं है घर में। कहा न खुशामद करने नहीं जाता। आ जाती है। रहो। मेहनत करो। मैं भी कर रहा हूं मेहनत। साथ साथ रहो। इच्छा न हो, यह रहा दरवाजा’
‘फिर न मिले तो?’
‘हमारा कोई चटक-मटक वाला समाज नहीं। अफड़ा-लफड़ा-कपड़ा वाला समाज नहीं।’
‘ऐसे में अफडा नहीं होगा रे?’
‘अरे, झगड़ा तो चुकाना ही होगा। झगड़ा, लेना देना तो चलता ही रहता है। औरत भी रखो और झगड़ा भी न चुकाओ ऐसा तो चलेगा नहीं, नहीं दादा?’
‘मोटर में भी बैठो और टिकट न चुकाओं!’
‘खूब कही रे दादा! भींगा हुआ जान पड़ता है।’
‘मोटर वाले से यारी कर लो, फिर ना देना पड़ेगी टिकट।’
‘यारी कि यहां भी तो बात है।’
‘पूरा खाया खेला है रे भाई ये तो।’
‘राजी खुशी की ही तो बात कर रहा हूं मैं भी तो।’
….व्यभिचार, दुराचार। पनपा हो कहीं। इज्जत गई। खेती गई। रुपैया पैसा गया। अब बचा ही क्या है! ये तो कहो इन्होंने साथ दे दिया। रिश्तेदारी में कहां दिया था, रुपयों के लालच में दिया। कुछ झटक लेंगे। मुट्ठी ढीली करना पड़ी थी।
वह बेचैन हो उठा, अपनी जगह से। चारों ओर देखा कोई नहीं लगा उसे हिमायती। होता भी कौन? वह कहता भी तो लोग हंसकर रह जाते। जैसी ठठ्ठा टोली कर रहे हैं, वैसे उसकी भी करते। वह नीचे उतरा। पानी बरसना बंद हो गया था। खाल के किनारे किनारे चल दिया।
बस में चर्चा जारी थी।
‘राजी खुशी का सौदा। न जमे तो न रहो। मरजी जमे वहां सैर-सपाटा करो। कोई खोज खबर रखने वाला नहीं। पीछे पड़ने वाला नहीं। कोई रोड़ा बनने वाला नहीं। अपना रास्ता पकड़ों।’
‘औरतों में भी जीवन होता है दादा। यह नहीं कि बीड़ी की तरह यहां वहां दे दिया। तुम क्या करो, जमाना ही ऐसा आ गया।’-अपने स्थान से पिछले दरवाजे के पास वाली सीट पर बैठी औरत बोली। यह बातें सुनते सुनते वह उकता गई थी।
वह लौट आया। बोला- ‘पानी उतर रहा है अब तो। आगे वाले ने अपनी मोटर डाली है खाल में।’
‘बड़ी जल्दी मची है तुम्हें जाने की!’
‘हां, अपने कर्मों का भुगत रहे जी और क्या कहें।’- उसने अपने साथियों से कहा।
‘जवानी का उफान भी ऐसे ही अटकता है। फिर उतरता है तो…’
लोक गायक फिर जाग पड़ा था जैसे, गा उठा-
‘कई रे जुआब करूं रसिया से,
दल-बादल रे बी चमके जी तारों,
सांझ-समय पीऊजी लागे जी प्यारो,
कई रे जुआब करुं रसिया से।’
मोटर खाल में पानी उछालती, पानी ऊलीचती रपट पार कर रही थी। चिल्लाहट मची थी। उल्लास था। एक प्रकार की प्रसन्नता की छाया उतर आई थी सभी चेहरों पर। उसने घड़ी की ओर देखा चार हो रहे थे।
आसमान फिर भी कभी बरस सकता था।

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