राहुल वर्मा
अगर आप कांग्रेस के हमदर्द हैं, तो आपने पार्टी के तीन दिवसीय चिंतन शिविर में सोनिया गांधी के उद्घाटन भाषण के बारे में पढ़ा होगा, जिसका समापन कुछ दिन पहले हुआ। उन्होंने कहा कि एक असाधारण स्थिति के लिए असाधारण समाधान की जरूरत होती है। शिविर में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई और जो प्रस्ताव पास हुए, आप उनसे खुश हैं या निराश, यह इस बात पर निर्भर करता है कि पार्टी की मौजूदा लीडरशिप को लेकर आप क्या महसूस करते हैं।
जाखड़ को सुनिए
सोनिया का भाषण तो ठीक है, लेकिन आपको पंजाब के पूर्व पीसीसी प्रमुख सुनील जाखड़ को सुनना चाहिए था। जब उदयपुर की बैठक चल रही थी तो उन्होंने 14 मई को कांग्रेस छोड़ दी थी। पार्टी की असाधारण स्थिति के बारे में जाखड़ का निदान कहीं बेहतर था। फेसबुक पर आए उनके 40 मिनट के भाषण में कांग्रेस के संकट की प्रकृति पर चिंतन शिविर में चर्चा की तुलना में अधिक स्पष्टता थी, कंटेंट भी अधिक था।
जाखड़ ने अपने संबोधन में वसीम बरेलवी का एक शेर पढ़ा, जिसने बहुत ही बारीकी से यह बता दिया की शिविर की चिंतन बैठक में क्या रह गया या क्या होना चाहिए था। यह शेर कुछ यूं है, ‘घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है, पहले ये तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे।’
उदयपुर में जो विचार-विमर्श हुआ, अगर पार्टी भारत के वर्तमान वैचारिक स्पेस का नक्शा बनाने और अपने लिए मीडियम टर्म गोल निर्धारित करने में कामयाब हो जाती, तो वह उसके हित में महत्वपूर्ण कदम होता। उसे कम से कम एक विजन डॉक्युमेंट तो पेश करना ही चाहिए था, जिसमें बताया जाता कि कांग्रेस की विचारधारा क्या है और भारतीयों को इसके साथ क्यों आना चाहिए। इसके बजाय पार्टी ने कुछ छोटे-मोटे सांगठनिक मसलों पर – जैसे परिवार के सदस्यों को नामित करने पर प्रतिबंध, राज्यसभा नामांकन में कार्यकाल की सीमा, पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में हाशिए के समूहों के लिए आरक्षण, युवा नेताओं को शामिल करना आदि – फैसले करके शिविर का समापन कर दिया।
भले ही ये परिवर्तन अक्षरश: लागू हो जाएं, क्या इनसे पार्टी का कायाकल्प हो सकता है? मुझे नहीं लगता कि इन्हें लागू करने से बहुत बदलाव आएगा। जाखड़ के शब्दों में ही कहें तो कांग्रेस पार्टी चिंतन शिविर में ऐसा व्यवहार कर रही थी जैसे कि देश की सारी जिम्मेदारी उसी पर है। वह भी ऐसे समय में, जब वह खुद वजूद बचाने से जूझ रही है। ऐसा क्यों है? इसका जवाब तलाशने के लिए हमें पार्टी में अपने लिए गढ़े गए मिथकों की गहरी जड़ों तक जाना होगा। इनमें से एक मिथ यह भी है कि पार्टी और गांधी परिवार देश और लोकतंत्र के एकमात्र रक्षक हैं।
इन मिथकों को गांधी परिवार के वफादारों की एक करीबी मंडली ने कायम रखा है, जिसमें न केवल कांग्रेस के राजनेता शामिल हैं, बल्कि इसे पत्रकारों, शिक्षाविदों, सिविल सेवकों, व्यापारियों और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं से बना ‘दिल्ली दरबार’ भी कहा जा सकता है। इस दरबार की मेंबरशिप परमानेंट नहीं है। कई बार पुराने सदस्य अपना विश्वास खो देते हैं और हाशिये पर चले जाते हैं। वे नए लोगों के लिए जगह बनाते हैं।
ये मिथक न केवल दरबार के निहित स्वार्थ के संरक्षण की बल्कि पार्टी में उच्च पदासीन लोगों के साथ साथ गांधी परिवार के अस्तित्व की भी चाबी हैं। इस आश्रित रिश्ते ने एक ऐसा सूचना तंत्र बनाया है, जिसे आसानी से हिलाया ही नहीं जा सकता। दरबारी अच्छे से अच्छे बदलावों के लिए तर्क देंगे, लेकिन नए विचारों और नई प्रतिभाओं को प्रेरित करने की किसी भी कोशिश को बड़ी चालाकी से गर्क कर देंगे। यथास्थिति बनाए रखने में ही दरबार का हित निहित है।
राजनीतिक पार्टियां अपने संगठन में टूट और नेतृत्व संकट के चलते अक्सर फेल होकर खत्म हो जाती हैं। लेकिन जब वे अपनी विचारधारा खो देती हैं तो उनके फेल होने की आशंका और प्रबल हो जाती है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस यह नहीं देखती कि फिलहाल उसके सामने जो संकट है, उसका बड़ा हिस्सा आंतरिक है। मसलन संगठनात्मक कमजोरियां, विश्वसनीय नेतृत्व की अनुपस्थिति और एक अस्पष्ट वैचारिक दृष्टि- ये आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
कांग्रेस की सबसे महत्वपूर्ण विफलता यह है कि वह बिल्कुल साफ-साफ यह कहने में असमर्थ है कि उसके पास देश के लिए क्या विजन है। वैसे एक ऐसे वैचारिक मंच को परिभाषित करना मुश्किल ही है, जो मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के साथ प्रतिध्वनित हो। कांग्रेस को समझना चाहिए कि सिर्फ बयानबाजी से मदद नहीं मिलेगी, वह भी तब जब पार्टी सत्ता में नहीं है।
एक वैचारिक कार्यक्रम की पुन: कल्पना को बाकी के छोटे मोटे सांगठनिक परिवर्तनों पर क्यों तरजीह देनी चाहिए? असल में इससे संगठन-निर्माण की प्रक्रिया बेहतर होती है। इससे नया नेतृत्व उभरता है। केवल एक स्पष्ट वैचारिक दृष्टि ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को कड़ी मेहनत करने और मतदाताओं को रिझाने के लिए प्रेरित करती है।
जब प्रशांत किशोर ने कांग्रेस की प्रस्तावित कमिटी में शामिल होने के प्रस्ताव को नामंजूर करते हुए कहा था कि पार्टी को परिवर्तनकारी सुधारों को लागू करने और संरचनात्मक दिक्कतों को दूर करने के लिए मन बनाना होगा। इसके लिए सामूहिक इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए। शायद वह जानते थे कि कांग्रेस के इस शिविर से क्या हासिल होने वाला है।
मिथकों में फंसी कांग्रेस
उदयपुर में जो पूरी कवायद हुई, यह पार्टी में संगठनात्मक जड़ता का लक्षण मात्र है। कांग्रेस इस हद तक सिकुड़ गई है कि बाकी के दल इसे अखिल भारतीय विरोध के स्वाभाविक आधार के रूप में नहीं देखते। कांग्रेस कमजोर पड़ गई है। इसलिए आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने की कोशिशें तेज कर रही हैं। अगर कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख बचा कर रखना चाहती है , तो उसे पहले इस दिखावे को रोकना होगा कि देश के लिए सोचने वाली वही एकमात्र पार्टी है।
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं)