पुष्पा गुप्ता
कइयों को मैंने देखा है कहीं भी सार्वजनिक स्थल पर बैठे हुए नाक या कान से ध्यानस्थ योगी जैसी तल्लीनता के साथ मैल निकालते रहते हैं या पाकेटमार जैसी कुशलता से कहीं हाथ घुसाकर खुजली करने का आनंद लेते रहते हैं, ऐसा दिव्य आनंद जो कामोत्तेजना के आनंद से बस कुछ ही सीढ़ी नीचे होता है।
ऐसे लोगों का यह भ्रम दुनिया के सबसे बड़े भ्रमों में से एक होता है कि वे कुशल छापामार की तरह अपनी गुप्त कार्रवाई कर रहे हैं और उन्हें कोई देख नहीं रहा है।
मेरा विनम्र विचार है कि कविता के वैचारिक मूल्य और सौन्दर्य का तक़ाज़ा है कि वह अपने में मगन होकर पब्लिक प्लेस में नाक से नकटी और कान से खोंठ निकालने का या गुप्तांगों को खुजलाकर आनन्द लेने का काम न करे। ऐसा काम अक्सर आत्मरतिरत या आत्ममुग्ध अवांगार्द “विद्रोही” कविगण करते हैं और एक छोटे से मनोरुग्ण साहित्यिक समाज की मनोग्रंथियों को सहला कर लाइमलाइट में रहने के लिए बहुविध धतकरम किया करते हैं।
ऐसे अवांगार्द सूरमा जैसे-जैसे अपने काव्यात्मक प्रयोगों में आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे सामाजिकता के प्रदेश से निकलकर असामाजिकता के प्रदेश में गहरे धँसते चले जाते हैं। राजनीति उन्हें कविता के लिए एकदम अनुपयुक्त लगती है या फिर राजनीति में कोई पक्ष लिये बिना वे समूची राजनीति को ही मनुष्यता के लिए नुकसानदेह बताने लगते हैं और कहने लगते हैं :
“भई, हम तो सत्य के आग्रही और प्रेम के पुजारी हैं। यही प्रेम हमें अयोध्या, काशी, मथुरा, मगहर, सारनाथ — यहाँ-वहाँ भटकाता रहता है।
गुजरात से दिल्ली तक राजनीति का ख़ूनी रथ घरघर चलता रहे, हमें क्या! और हम कर भी भला क्या सकते हैं, प्रेम और शान्ति की बातों के सिवा?”
हिन्दी के इन कवियों में कुछ रामभद्राचार्य, धीरेन्द्र जोशी, चम्पक राय, शंकराचार्य समान हैं तो कुछ आसाराम और राम रहीम के समतुल्य हैं। इन्हें देश में जारी फ़ासिस्टों के हत्या और आतंक की मुहिम से कुछ भी नहीं लेना-देना। सौन्दर्य के आराधक और ऐन्द्रिक व आध्यात्मिक आनन्द मार्ग के साधकों को राजनीति से भला क्या लेना-देना!
इनके अतिरिक्त कुछ वे चतुर सुजान भी हैं जो कभी-कभार कविता में उपरोल्लिखित प्रयोग भी कर लिया करते हैं, और फिर अपने को जन पक्षधर राजनीतिक प्राणी बताते हुए फ़ासिस्ट उभार पर एक चिन्तित कविता भी लिख डालते हैं जिसमें फ़ासिज़्म की वैचारिक समझदारी के अतिरिक्त और सबकुछ हुआ करता है। ‘ऑपरेटिव पार्ट’ के तौर पर ये सभी कविताएँ बस प्रेम, करुणा, शान्ति आदि के क़सीदे पढ़ती हैं और एक ऐसे विकट ऐतिहासिक समय में जनता को वैचारिक तौर पर निश्शस्त्र करने का काम करती हैं जब उसे जगाने और एक सैलाब की तरह सड़कों पर उतरकर फ़ासिस्ट शैतानों से आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए ललकारने की ज़रूरत है।
मज़े की बात है कि ऐसे “राजनीतिक” कवियों की ऊपर वर्णित “अराजनीतिक” अवाँगार्द कवियों से ख़ूब गलबहियांँ और चूमाचाटी चलती है और समय-समय पर लेख और साक्षात्कार आदि में अमूर्त लच्छेदार भाषा में ये एक-दूसरे को ‘युग का महानतम कवि’ आदि घोषित करते रहते हैं।
ऐसे जंतु एक साथ पूँजी और सत्ता के भव्य सांस्कृतिक-साहित्यिक महोत्सवों में जा पहुँचते हैं ताकि ‘जनता के बड़े हिस्से तक पहुँचा जा सके।’ सच तो यह है कि शाहरुख़, सलमान और अक्षय आदि तो बहुत पैसा लेकर रजनीगंधा बेचते हैं। हमारे ये साहित्यकार बस थोडे़ से सिक्कों और “बड़े मंच” पर चेहरा दिखाने के निकृष्ट लोभ में रजनीगंधा बेचते हैं, वैचारिक-साहित्यिक गाँजे की पुड़िया के साथ-साथ!
बेशर्मी की यह लहर ऐसी चली है कि कलतक जिन प्रगतिशील कवियों की कविताओं से हमने बहुत कुछ सीखा था उनमें से भी कई अपनी धोती-पैंट-कमीज़ उतारकर लाल लंगोट और जनेऊ धारण किये इस फ़ासिस्ट कुम्भ में डुबकी मारने के लिए उस नदी में उतर पड़े हैं जिसमें ख़ून बहता है और लाशें तैरती हैं।
और कुछ तो ऐसे हैं जो इस फ़ासिस्ट समय को चिरस्थायी मानते हुए सीधे हत्यारों की गोद में जा बैठे हैं या उनके दरबार में सारंगी बजाने लगे हैं। कुछ कुशल मौसम वैज्ञानिक भी हैं जो मौसम का रुख बदलते ही फिर जनवाद की पिपिहरी बजाने लगेंगे।
साठ के दशक में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अवांगार्द कविता का जो प्रवाह आया था वह परम्परा और व्यवस्था के विरुद्ध एक अराजक मध्यवर्गीय विद्रोह था। उसमें आवेग था और आग थी। ये जो आजके अवांगार्द अराजक प्रयोगधर्मी कवि हैं, ये घोर अराजनीतिक लम्पट हैं जिनका छद्म वामपंथियों के साथ एक मज़बूत संयुक्त मोर्चा बना हुआ है।
ये दरअसल नवउदारवाद के सांस्कृतिक ‘नियोकॉन्स’ हैं। इनकी अराजकता और कामुकता में और प्रेम की अभिव्यक्तियों में वित्तीय पूँजी की बीमार और अराजक संस्कृति ही परावर्तित हो रही है। फ़ासिस्ट और हर किस्म की बुर्जुआ निरंकुश सत्ता के लिए ये उतने ही काम के लोग हैं जितने किसिम-किसिम के बुर्जुआ लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स!
पहले के ज़माने में अक्सर ऐसे मेहमान लोगों के घर आया करते थे जो मेजबान से ही लुंगी, कुरता और गमछा माँगते थे, और कभी-कभी तो जाँघिया-बनियान भी। अभी कविता की दुनिया में यह चलन जारी है। कुछ कवि कथित अवांगार्द विद्रोहियों, जनेऊ-तुलसीवादी वामियों, फासिस्टों से गाँठ बाँधे वामियों, सर्वोदयियों और अन्य ईमानदार जनवादियों के साथ जीवन और कविता — दोनों क्षेत्रों में संतुलन साधते हैं। वे जिस घर जाते हैं वहीं का कुर्ता, लुंगी, बनियान, जाँघिया पहन लेते हैं।
कई बार भूलकर साथ भी लिए आते हैं। उनकी कविताएँ भी ऐसी ही लगती हैं। कभी किसी का धोती-पैंट-कमीज़-बनियान-जाँघिया पहने हुए तो कभी किसी का। और कई बार तो कई घरों से लिए कपड़ों का एकदम बेमेल घालमेल! और समय ऐसा है कि कोई भी नहीं कहता कि महोदय, आप एकदम जोकर लग रहे हैं। और जब ज़्यादातर ऐसे ही हैं तो कौन किसको क्या कहे!
वैसे भी साहित्य महोत्सवों और सरकार एवं सेठों के जलसों में आजकल साहित्यिक जोकरों की डिमांड बहुत तगड़ी है।