अग्नि आलोक
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दलों के चरित्र में कपट और कर्मठता

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प्रफुल्ल कोलख्यान 

सांगठनिक अनुशास न के लिए एक विधि का इस्तेमाल किया जाता है, वह विधि है; विचार में भिन्नता लेकिन व्यवहार में समानता। दूसरा सिद्धांत यह कि विचार की भिन्नता का प्रकाश उन्हीं के सामने किया जाना चाहिए जो व्यवहार में समानता के लिए प्रतिबद्ध हों।

मोटे तौर पर किसी भी संगठन की यही सर्व-स्वीकृत आचार-संहिता होती है। आचार-संहिता के अनुसार बैठक में आते समय दिमाग में भिन्न-भिन्न तरीके के अलग-अलग विचार होने चाहिए, बैठक से जाते समय सब के विचार एक ही होने चाहिए।  

भिन्न भिन्न धार्मिक, राजनैतिक, प्रशासनिक आदि किसी भी प्रकार का संगठन हो उसमें विचार-विमर्श की गुंजाइश हमेशा बनाये रखनी होती है। हां, ‘गुंजाइश’ का दायरा अलग-अलग जरूर होता है। यह सामान्य  तौर पर, राजनीतिक संगठनों में यह दायरा किसी को बताया नहीं जाता है।

यह दायरा दल के भीतर कद और पद से समय-समय पर स्व-चालित तरीके से परिभाषित होता रहता है। अपना दायरा सदस्यों को खुद समझना होता है। समझदार सदस्य तो खुद ही अपना-अपना दायरा समझ लेते हैं। जो नहीं समझते, उन्हें भी यथा-समय समझा दिया जाता है।

यहां एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि संगठन में शक्ति की गहनता बड़े घेरे से छोटे घेरे की तरफ अधिक होती जाती है। अंतिम और छोटे घेरे में कुछ ही लोग बचते हैं, कभी-कभी तो ‘एक-अकेला’ ही बचता है। यह ‘एक-अकेला’ अकेला ही सब पर भारी पड़ने लगता है।

यह ‘एक-अकेला’ अपने ‘अकेला’ रह जाने पर ‘गर्व और गौरव’ से अभिभूत और मदमस्त हो जाता है। संगठन के किसी भी सदस्य की मदमस्ती संगठन के लिए जहर से कम नहीं होती है। मदमस्ती के जहर का फैलाव हो जाने पर सही अर्थ में ‘वही अकेला सब भारी पड़ते-पड़ते, एक दिन सब के लिए ‘भार’ बन जाता है।

राजनीति कला है। कला यानी बाहर से न दिखनेवाला लेकिन मन ही मन हमेशा चलनेवाला आंतरिक हिसाब-किताब। कलाकार तो वह जिस का न किताब दिखे, न हिसाब! दिखे तो बस प्रभाव दिखे।

कहा जाता है कि राजनीति शतरंज की तरह का खेल है। इस खेल में मोहरे को क्या पता कि कब और क्यों उसे आगे बढ़ाया जा रहा है, पीछे किया जा रहा है, यहां तक कि क्यों पिटवा ही दिया जाता है!

राजा पिटा तो सब पिट गये यही इस खेल का सच है। यही सच शतरंज और राजनीति दोनों को जोड़ता है। यही सच शतरंज और राजनीति दोनों में पूरी तरह से लागू रहता है।

शतरंज का खेल तो राजनीति का रूपक है, राजनीति नहीं! शतरंज के मोहरे खुद नहीं चल सकते हैं। राजनीति के मोहरे खुद भी चलते हैं और किसी अन्य मोहरा की जरूरत के इशारा पर चलते ही नहीं चलाया जाना भी चाहते हैं!

असली कलाकार वह होता है जो ललकार के माध्यम से अपना ‘हिसाब’ छिपाना और प्रभाव जमाना जानता है। नरेंद्र मोदी असली कलाकार हैं। ललकार के माध्यम से अपना ‘हिसाब’ छिपाने और प्रभाव जमाने में उन्होंने अपने को अब तक सब से बड़ा माहिर साबित किया है।

लेकिन अब बाजी पलट गई प्रतीत होती है। अब उनकी ललकार से उनका ‘हिसाब’ छिप नहीं पाता है।

स्थिति यह बन गई लगती है कि न ‘हिसाब’ छिपता है और न ‘प्रभाव’ जमता है! ऊपर से दबाव बढ़ जाता है सो अलग! अब ऐसे दबावों को वे उसी नजर से देखते हैं, जिस नजर से महाभारत के बाद पार्थ कण्व की तपस्या, विश्वकर्मा की कुशलता और गांडीव की शक्ति को याद करते थे।

वक्त-वक्त की बात! “मनुज बलि नहीं होत है, होत समय बलवान! भिल्लन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बाण!” लेकिन चाणक्य को भी तो अब समझ में नहीं आ रही है कि “लेखा-जोखा थाहे लड़िका डूबल काहे”! क्या सारा ‘सांगठनिक सपना’ आनेवाले दिनों में बस ‘एक मुश्त-ए-गुबार’ बनकर रह जायेगा!

प्रमुख जी कह रहे हैं जो मांगता है दे दो, दे दो! जातिगत आरक्षण भी जस-का-तस रहने दो, जातिवार जनगणना भी करवा दो! कंबल छोड़ो बाहर निकलो! प्रमुख जी को क्या पता कि कंबल को तो वे कब का छोड़ चुके हैं, अब कंबलवा भी उनको छोड़े तब न बाहर निकलें!

अधिकतर लोगों को तो मालूम ही होगा। लेकिन हां, लोक में प्रचलित ‘कंबल कथा’ के सम्मान में उस घटना का सुमिरन प्रासंगिक है। ‘कंबल कथा’ को शुरू करने के पहले एक पते की बात याद दिलाना जरूरी है, लोक ‘बयानों’ को उतना तवज्जो नहीं देता है, जितना की घटनाओं को।

हां तो, घटना यह है कि जाड़े के मौसम में गुरु और घंटाल वेदवती नदी के किनारे विचार-विमर्श में लगे हुए थे। देखते क्या हैं कि नदी में एक कंबल बहा चला जा रहा है। दोनों ने एक दूसरे की आंख में ताक-झांक की। कहना न होगा कि दोनों ही ताक-झांक में माहिर थे।

इस ताक-झांक के सुगबुगाते मौन में सहमति पढ़कर घंटाल ने वेदवती नदी में छलांग लगा दी। गुरु ने गौर किया घंटलवा वेदवती नदी से कंबल छाने लाने की जगह कंबल के साथ बहा चला जा रहा है!

वेदवती नदी में कंबल और घंटाल के बीच युद्ध छिड़ गया। घंटाल को पस्त होते देख कुछ देर के लिए तो गुरु सहम ही गये! फिर क्रुद्ध होकर बोलने लगे अरे घंटलवा कंबल छोड़ो, लंगोटी भी छोड़ो, सब दे दो आरक्षण भी दे दो, जातिवार जनगणना भी करवा दो! ‘लेटरल एंट्री’ सब छोड़ो! बस वेदवती नदी से बाहर निकल आओ!

उधर घंटाल लस्त-पस्त! पता नहीं सच है या झूठ! कहते हैं अंग्रेजी के लॉस्ट-पोस्ट से कालांतर में हिंदी का लस्त-पस्त विकसित हुआ है। लस्त-पस्त सिपाही मतलब जो सिपाही अपनी सुरक्षित चौकी खो चुका है।

असली बात यह है कि लस्त-पस्त घंटाल ने मर्म-वेधी वाणी में कहा, गुरु जी मैं तो कंबल को कबसे छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं। मुश्किल यह है कि कंबल मुझे नहीं छोड़ रहा है! लपके थे कंबल, समझकर लेकिन वह निकला भालू!

कलाकार चाहे जितना कुशल हो, हिसाब-किताब का चाहे जितना भी पक्का हो, अपनी ही ललकार से आत्म-मुग्ध हो जाने पर ‘कलाकार’ को पता ही नहीं चलता है कि कब कंबल भालू में और भालू कंबल में बदल जाया करता है।

नदी कोई हो अपना मन समुद्र के पास ही खोलती है। पराभव समुद्र की लौटती लहरों की तरह से अपने पीछे ढेर सारी गाद छोड़ जाता है। कभी-कभी इस गाद में कुछ-कुछ बहुमूल्य तत्व भी अपने पीछे छोड़ जाता है। इस गाद में कुछ-न-कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक शिक्षा छिपी हो सकती है।

गिरिधर कविराय कह गये हैं, ‘पानी बाढ़ो नाव में घर में बाढ़ो दाम, दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।’ पानी में नाव का होना अच्छी बात है लेकिन नाव में पानी का बढ़ना खतरनाक है। उसी तरह से घर में पैसा बढ़ना भी खतरनाक है। ऐसी स्थिति में उदारता से दोनों हाथ से उलीचना ही बुद्धिमानों का काम है।

मुसीबत यह कि विवेक फिसल जाये तो ‘उलीचने’ की बुद्धिमानी भी काम नहीं करती हैं।

लोकतंत्र में सत्ता आती-जाती रहती है। विवेक यह कि सत्ता आये या जाये, सत्व बचा रहा चाहिए। सत्ता जायेगी तो फिर आ जायेगी, लेकिन सत्व एक बार गया तो फिर दोबारा बहुत मुश्किल से लौटकर आता है।

जाने कैसी हुई कुमति कि उसकी संतान की खिल्ली उड़ाने में सारा पुरुषार्थ खप गया जिन्होंने अपने खून पसीने से देश की मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में जान लड़ा दी। सत्ता का मद कहें या हंसी खेल कहें संघर्ष, त्याग और प्रगति की परंपरा में पलीता लगाने का काम हो गया।

प्रगति की परंपरा में पलीता में लगाकर ठहाकों के बीच सत्व का संहार होता रहा। इस तरह से भारतीय समय के वर्तमान की चौथाई सदी जाया हो गया। लेकिन भविष्य! हजार सालों के भविष्य का सपना फैलाने की परियोजना बनती रही।

सपना तो झूठा होता ही है! इस सपने का सामना जब वर्तमान के दुख से हुआ तो झूठ का भी एनकाउंटर हो गया।

अपनी मदमस्ती में प्रभु को लाने का गुरूरी गाना चलता रहा। नतीजा प्रभु ने ही आंख फेर ली। प्रभु के आंख फेर लेने के बाद कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा, कुछ-कुछ सुनाई जरूर दे रहा है, जैसे कि “हे! राम, हे! राम, हे! राम”! अब तो राम का नाम लेने पर गांधी मुख से निकला “हे! राम, हे! राम, हे! राम”!की ही गूंज सुनाई पड़ती है।

रक्षा करें जगन्नाथ! अपना हाथ जगन्नाथ तो पहले भी सुना था! लेकिन हाथ तो किसी और के पास है! अब क्या ही किया जा सकता है, प्रमुख जी!

आज-कल मीडिया में सक्रिय राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों के बीच सॉफ्ट हिंदुत्व की चर्चा हो रही है। कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियों के संदर्भ में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व का सवाल खास  तौर पर उठाया जा रहा है।

यह सॉफ्ट हिंदुत्व क्या है! सॉफ्ट से आशय यदि सहिष्णु होने से है तो इस के साथ ‘हिंदुत्व’ को जोड़ा नहीं जा सकता है। कारण यह है कि हिंदुत्व एक असहिष्णु राजनीतिक विचारधारा है जो गैर-हिंदुओं, खासकर मुसलमानों के खिलाफ उग्र नफरती माहौल बनाकर ‘हिंदू एकता’ को सुनिश्चित करने की कोशिश में लगी रहती है।

‘हिंदू एकता’ का मकसद वर्ण-व्यवस्था में अंतर्निहित भेद-भाव की स्थिति में सकारात्मक बदलाव का नहीं है। बल्कि साफ-साफ कहा जाये तो हिंदू धर्म में ‘अंतर्निहित भेद-भाव’ को राजकीय कवच प्रदान करते हुए हिंदुओं के ध्रुवीकरण माध्यम से ‘स्थाई-बहुमत’ का जुगाड़ करना ही मकसद है।

हिंदुत्व की राजनीति अपने से असहमत मुसलमानों को ही नहीं, हिंदुओं को भी हिंदू धर्म और भारत राष्ट्र का दुश्मन मानती है। इस अर्थ में उन के लिए भारत का मतलब हिंदू और भारत राष्ट्र का मतलब हिंदू राष्ट्र है।

जाहिर है कि हिंदुत्व की राजनीति अपनी विचारधारा और हिंदू राष्ट्र के सभी विरोधियों को भारत राष्ट्र के विरोधी के रूप में चिह्नित करती है।

देखा जाये तो भारत का संविधान भी हिंदू राष्ट्र का समर्थन नहीं करता है। इस अर्थ में हिंदुत्व की राजनीति भीतर-ही-भीतर भारत के संविधान को भी भारत राष्ट्र का विरोधी मानने से परहेज नहीं करती है। इसलिए हिंदुत्व की राजनीति शुरू से ही संविधान से असहमत थी। दीर्घकालिक असहमति के विरोधी बनते देर ही कितनी लगती है!

सत्ता में आने के बाद राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ हो या भारतीय जनता पार्टी भारत के संविधान से अपनी मौलिक असहमति या विरोध को औपचारिक रूप से घोषित करने का चुनावी दुस्साहस नहीं कर पाती है।

जाहिर है, असहमति या विरोध की औपचारिक घोषणा के झंझट में पड़े बिना भारतीय जनता पार्टी की राजनीति संविधान में बदलाव के प्रावधानों को अपर्याप्त मानते हुए संविधान के बदलाव का माहौल बनाने की परियोजना पर भिन्न-भिन्न स्तर पर गुप-चुप काम करती रही है।

सदियों चली आत्मसातीकरण की सामासिक प्रक्रिया से बनी भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति और भारत का सहमिलानी मिजाज ‘हिंदू एकता’ के नाम पर हिंदू-मुसलमान के बीच सतत शत्रुता की राजनीति को बिल्कुल पसंद नहीं करता है।

हिंदुत्व की राजनीति और हिंदू धर्म की जीवन-पद्धति न केवल परस्पर भिन्न हैं, बल्कि कई जगह विरोधी भी हैं। थोड़ा-सा ठहरकर देखने पर यह साफ-साफ दिख सकता है कि हिंदू धर्म की जीवन-पद्धति पर चलनेवाले कई निष्ठावान हिंदू हिंदुत्व की राजनीति के धुर विरोधी हैं।

दूसरी तरफ, हिंदुत्व की राजनीति करनेवाले कई लोगों की दैनिकी में हिंदू धर्म की जीवन-पद्धति के अनुपालन का कोई आग्रह और अपील नहीं होता है।  

अपनी दैनिकी में हिंदू धर्म की जीवन-पद्धति का पालन न करनेवाले हिंदू, के लिए भी हिंदुत्व की राजनीति में कोई दुविधा या बाधा नहीं होती है। अपनी दैनिकी में हिंदू धर्म की जीवन-पद्धति का अनुपालन करनेवाला, लेकिन हिंदुत्व की राजनीति का विरोधी हिंदू, हिंदुत्व की राजनीति करनेवालों की जमात में तो शंका की दृष्टि से देखा ही जाता है।

हिंदुत्व की राजनीति के विरोधियों की नजर में भी कई बार किसी-न-किसी तरह से संदेहास्पद बन जाया करता है, बना दिया जाता है।

हिंदुत्व की राजनीति के विरोधी राजनीतिक दल का कोई नेता यदि अपनी दैनिकी में हिंदू जीवन-पद्धति का पालन करता हुआ दिख जाता है तो उस राजनीतिक दल को हिंदुत्व की राजनीति करनेवाले और उस का विरोध करनेवाले, दोनों ही तरफ के विश्लेषकों के द्वारा उस दल को ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राजनीति से जोड़ दिया जाता है!

हिंदुत्व की राजनीति के ऐसे विरोधी विश्लेषक अंततः हिंदुत्व की राजनीति की ही सेवा करते हैं।

इस प्रकार से हिंदुत्व विरोधी राजनीति ‘अपने’ और ‘पराये’ के दोहरे फंदा में फंसी रहती है। ‘सॉफ्ट-हिंदुत्व’ और ‘उग्र हिंदुत्व’ दोनों ही हिंदुत्व की राजनीति की दो रणनीतियां हैं।

भारतीय जनता पार्टी विरोधी किसी राजनीतिक दल को सॉफ्ट हिंदुत्व से जोड़नेवाला धर्म निरपेक्ष विश्लेषक भी जाने-अनजाने भारतीय जनता पार्टी का ही ‘छुपा समर्थक’ बन जाता है।

क्यों आम तौर पर कांग्रेस को ही सॉफ्ट हिंदुत्व से जोड़ दिया जाता है? कांग्रेस भी यदि हिंदुत्व के ही किसी संस्करण की राजनीति करती है तो फिर वाम-पंथ दलों के अलावा कौन-सा राजनीतिक दल धर्म निरपेक्ष बचेगा?

राजनीतिक रूप से धर्म निरपेक्षता की ‘वायवीय शुद्धता’ की मांग धर्म निरपेक्षता को राजनीतिक अकेलेपन में धकेल देती है।

संविधान में अंतर्निहित धर्म निरपेक्ष चेतना कहीं से भी हिंदू विरोधी नहीं है, न कांग्रेस का राजनीतिक व्यवहार ही हिंदू विरोधी है। लेकिन हिंदुत्व की राजनीति ने सफलतापूर्वक कांग्रेस के धर्म निरपेक्ष राजनीतिक व्यवहार को हिंदू विरोधी बना दिया।

मजे की बात यह है कि साथ-ही-साथ हिंदुत्व की राजनीति के विरोधी कांग्रेस को हिंदू समर्थक राजनीतिक दल बताते हैं। कांग्रेस को हिंदू-विरोधी या हिंदू -समर्थक बताना धर्म निरपेक्षता के प्रति संवैधानिक आकांक्षा में छेद करने से कम नहीं है।  

हिंदुत्व की राजनीति में बसी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया के खतरों से धर्म निरपेक्ष राजनीति के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से ही बचा जा सकता है।

‘शुद्ध धर्म निरपेक्षता’ का आग्रह अंततः ‘धर्म आधारित राजनीति’ की ही चौहद्दी के विस्तार का रास्ता खोलता है।

भारत के संविधान की मौलिक इच्छाओं में से एक इच्छा है, नागरिकों में वैज्ञानिक मनोभाव, मानवतावादी भावना विकसित करने के लिए जांच और सुधार की प्रक्रिया को दृढ़तापूर्वक जारी रखना। 

राजनीतिक दलों के चरित्र की भारत अनुकूलता में कपट और कर्मठता को परखने की कसौटी के रूप में संविधान की इस मौलिक इच्छा को मतदाता समाज की नजर से कभी कोई ओझल न करे इस के लिए खुद नागरिक समाज को सचेत और सक्रिय रहना है।

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