अग्नि आलोक
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सारी सहूलियतों के बावजूद अगर संगत नहीं, तो सब बेमजा

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 *राजकुमार जैन*

 सूरज की तपिश से दहकती दिल्ली से निजात पाने के लिए एक मित्र ने कुल्लू मनाली के अपने घर पर गर्मी में ठंडक का आनंद लेने का इसरार किया। यह कहकर भी दबाव बनाया कि आप कह रहे हो कि अमुक विषय पर एक किताब लिखनी है, परन्तु सोशल मीडिया की रसमयता में आप इतना मशगूल हो कि मुझे नहीं लग रहा। एक तरह से यह उलाहना भी था और हकीकत भी। मैंनें भी सोचा पूरा मन लगाकर किताब लिखने के कार्य में भी गति आ सकेगी तथा बेदम करती गर्मी से भी राहत मिलेगी, मैंने हामी भर दी। कहीं मैं फिर ना मुकर जाऊं, उन्होंने अपने साथ मेरे टिकट की फोटो कॉपी भी मुझे भेज दी। सर्दी से बचने के लिए पूरे गर्म कपड़ों के साथ-साथ किताब से मुतालिक किताबें तथा अन्य सामग्री भी ट्रंक में भर ली। हिमाचल पहुंचने पर मौसम ने एहसास दिलाया की जून की जगह अक्टूबर नवंबर महीने में पहुंच गया हूं। पहाड़ पर बना यह मकान, सेब के बगीचों  से धिरा हुआ, चारों तरफ ऊंचे ऊंचे दरख्तों, हरियाली, पहाड़  पर बिछी बर्फ की सफेद चादर,  नीले आकाश के बादल, ठंडी ठंडी मंद मंद समीर, कोलाहल के नाम पर इक्का दुक्का मोटर के आने-जाने की आवाज। घर क्या था, एक रिसॉर्ट अथवा सितारा होटल की सारी सुविधाओं से लैस। मित्र  मेरे रहन-सहन, खान-पान की आदतों से पूरी तरह वाकिफ है। किचन में सारी खाद्य सामग्री, तरह-तरह के चाय, कॉफी बिस्कुटो के बड़े पैकेट, स्थानीय गाय  का शुद्ध 1 किलो देसी घी तथा हर रोज गाय का 1 किलो दूध। तरह-तरह के फल, हर वक्त ड्राइवर सहित मोटर कार, सफाई एवं अन्य  कार्यों के लिए सहायक कर्मी, ओढ़ने बिछाने के लिए धवल साफ सुथरे रजाई गद्दे, मुहैय्या करवा दिये।  जिस मकसद से मैं वहां गया था उसको पूरा करने के लिए नयी रिवाल्विंग चेयर, कारपेंटर को बुलाकर लिखने पढ़ने के लिए मेज, और उस पर टेपर के रूप में लकड़ी का एक प्लेटफार्म,जिससे लिखने पढ़ने के लिए ज्यादा झुकना ना पड़े बनवा कर सारे साजो सामान जुटा दिए। मेहमान नवाजी करने में मशहूर मित्र, जिसका  नाम ना भी लिखो तब भी दोस्त लोग समझ जाएंगे।

दो महीने का इरादा बनाकर गया था, की किताब के काम पर जूटूंगा, परंतु एक महीने से पहले ही दोस्त को बिना बताए दिल्ली वापस आ गया। इसका क्या कारण है? इसको जानना भी जरूरी है। सारी सुख सुविधाओं के बावजूद वहां मेरे मिजाज के मुताबिक बात करने वाला कोई नहीं था। मित्र भी तीन-चार दिन के बाद अन्य  व्यस्तताओं के कारण वहां से चले गए। मन उचाट हो गया,  किताबों में तो जरूर पढ़ा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, परंतु उसका असली एहसास अब हुआ। अनेक बार जेलो में दिन बीते, परंतु वहां की संगत, वैचारिक मुठभेड़, गप्पबाजी के कारण, साधारण सी सुविधा न होने के बावजूद बोरियत का शिकार नहीं होना पड़ा। लिखने पढ़ने में भी मन लगा। इसलिए लगता है की जिस्मानी सहूलियत की जितनी अहमियत है,  दिमागी खुराक भी उससे कम नहीं है।

           *राजकुमार जैन*

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