अग्नि आलोक
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अधर्म का नाश हो* *जाति का विनाश हो*(खंड-1)-(अध्याय-35)

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संजय कनौजिया की कलम”✍️

302 ईसा पूर्व यूनान के महान सम्राट एलेक्जेंडर (सिकंदर) का दूत मेगा-स्थनीज़ और सेनापति सेल्यूकस-नेक्टर ने भी मौर्यकालीन पाटलिपुत्र में काफी समय बिताया..270 ईसा पूर्व अशोक महान ने भी बिहार की धरती पर राज किया, भारत के राष्ट्रीय निशान अशोक स्तंभ और राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र सम्राट अशोक की ही देन के रूप में ही स्वीकार किया गया..यही नहीं बिहार विश्व प्रसिद्ध सुंदरी आम्रपाली की नगरी भी रहा है..आम्रपाली लिच्छवी राज्य में वैशाली की एक गणिका थी, जिसने अपनी सुंदरता और चातुर्य से यह साबित कर दिया कि उस समय में भी स्त्री शक्ति हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर सकती है..अपनी वैशाली यात्रा के दौरान कई महारानियों का निमंत्रण प्रस्ताब मिलने के बावजूद बुद्ध ने आम्रपाली के साथ भोज लेने का निर्णय लिया था..गुप्तकाल के दौरान बिहार, नालंदा विश्व विद्यालय, विश्वभर में प्रसिद्ध था, पढ़ने वाले छात्र दुनियांभर से यहाँ आते थे, आज भी इसके खंडहर बिहार में मौजूद हैं..बिहार का राजगीर क्षेत्र मौर्यकालीन राजा बिंबिसार की राजधानी रहा है..बुद्ध और महावीर यहाँ प्राय: आते रहते थे..आज भी यहाँ बौध्दिक अवशेष मिलते है..तब यह क्षेत्र अपनी औषधीय संबदाओ के लिए जाना जाता था..!
मध्यकालीन इतिहास को देखें तो, लगातार हुए विदेशी शासकों के आक्रमण से बिहार को काफी क्षति पहुंची और मध्ययुगीन इतिहास में बिहार एक राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में अपनी प्रतिष्ठा गँवा चुका था..मुग़लकाल में दिल्ली सत्ता का केंद्र बन गया, तब बिहार से एक ही शासक काफी लोकप्रिय हुआ, जिसका नाम था शेरशाह सूरी, आधुनिक मध्य-पश्चिम बिहार का सासाराम शेरशाह सूरी का केंद्र था..शेरशाह सूरी के उनके राज्य में हुए सार्वजनिक निर्माण के लिए भी जाना जाता है..आधुनिक इतिहास को देखें तो ब्रिटिश शासन में बिहार, बंगाल के प्रांत का हिस्सा था जिसके शासन की बागडोर कलकत्ता में थी..हालाँकि इस दौरान पूरी तरह से बंगाल का दबदबा रहा लेकिन इसके बावजूद बिहार से कुछ ऐसे नाम निकले, जिन्होंने राज्य और देश के गौरव के रूप में अपनी पहचान बनाई..इसी सिलसिले में बिहार के सरन जिले के जिरादेई के रहने वाले “डॉ० राजेंद्र प्रसाद” का नाम पहले आता है, वह भारत के पहले राष्ट्रपति बने..!
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक तरह से बिहार का पुनरुथान हुआ..बिहार से ही “राष्ट्रपिता महात्मा गांधी” ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की..गांधी जी के पहले आंदोलन की शुरुआत भी चम्पारण से हुई थी..अंग्रेजों ने गांधी जी को बिहार यात्रा के दौरान उन्हें मोतिहारी में जेल भेज दिया था..आजादी के बाद “जयप्रकाश नारायण” के छात्र आंदोलन को कौन भुला सकता है..जे. पी. आंदोलन न सिर्फ बिहार की राजनीति और सामाजिक स्थिति में इसके बाद काफी बदलाव हुए..कांग्रेस से सत्ता बिहार में इसलिए भी दूर होने लगी, कि डॉ० लोहिया और लगभग पूरी समाजवादी धारा पर गांधी का बड़ा गहरा प्रभाव था, लोहिया भाषा-नीति के स्तर पर गांधी जी कि
इस बात के कायल थे कि भारत से अंग्रेजी हटनी चाहिए, कुछ नहीं तो कम से कम इसकी अनिवार्यता समाप्त होनी चाहिए, ताकि देशी भाषाओँ का विकास हो सके और लोग अपनी भाषा में पढ़-लिख सकें..वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु लिमय के अनुसार, डॉ० लोहिया ने कर्पूरी ठाकुर को दिल्ली बुलाया और भाषा-नीति पर लगातार तीन दिन तक परामर्श करते रहे..कर्पूरी ठाकुर उस वक्त बिहार के उप-मुख्यमंत्री थे, और शिक्षा विभाग अपने पास रखा था..डॉ० लोहिया ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि जिस तबके के उत्थान की लड़ाई आप लड़ रहे हैं, उसमे तब तक सफलता नहीं मिलेगी जब तक उस तबके को शिक्षित नहीं किया जाएगा..आपका पिछड़ा व दलित तबका अंग्रेजी से बहुत डरता है..एक बार जब वो फेल हो जाता है पढ़ाई छोड़ देता है..इसलिए उस तबके को “राज और समाज” में उसका वाजिब हक़ दिलाने का सबसे बड़ा अस्त्र है, पढ़ाई व परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करना..कर्पूरी ठाकुर ने तीसरे दिन पटना आकर पहला अध्यादेश जारी करवाया और बिहार में चल पड़ा “कर्पूरी डिवीज़न” जो अंग्रेजी में फ़ैल वह भी पास..!
डॉ० नरेंद्र पाठक ने अपनी पुस्तक जिसका शीर्षक है “कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद” में दर्शाया है, कि देशभर में लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ अख़बारों में लिखा जाने लगा, तब देश और बिहार के बौद्धिक जगत में चिंता व्याप्त हो गई कि अंग्रेजी के नहीं रहने से पूरा सामाजिक विकास ही अवरुद्ध हो जाएगा, उनकी चिंता भी जायज़ थी..क्योकिं बौद्धिक जगत के सामाजिक विकास और कर्पूरी-लोहिया के सामाजिक विकास का पैमाना और दृष्टि अलग-अलग थी..दोनों का समाज भी अलहदा था..दुर्भाग्यवश लोहिया-गांधी की भाषा-नीति को समझने वाले और उनकी प्रशंसा करने वाले लोगों की संख्या इतनी कम थी कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता था..वरिष्ठ समाजवादी नेता किशन पटनायक ने लिखा है, “जब लोहिया ने अंग्रेजी विरोधी आंदोलन खड़ा करके गांधी की भाषा-नीति को पुनर्जीवित किया और पिछड़ों के लिए साठ फीसदी आरक्षण की मांग कर, डॉ० अंबेडकर के जाति विनाश कार्येकर्म को गतिशील बनाया तो ब्रिटिश गुलामी में फले-फूले बुर्जुआ द्विजों के मन में भी लोहिया के प्रति तिरस्कार और घृणा का अंत नहीं रहा..उन्हें अखबारों के किसी कोने में भी जगह मिलना भी मुश्किल हो गई..उनके प्रति घृणा करने वालों में वामपंथी और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी, एकसमान व्यवहार कर रहे थे”..!
वर्ष 1967 में संविद सरकारों के दौर में डॉ० लोहिया बिहार में ही अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करा पाए, जबकि उनकी पार्टी बहुमत के बावजूद सहायक भूमिका में थी..इसका कारण बुद्धप्रिय मौर्य ने बताया है कि डॉ० लोहिया को कर्पूरी जी पर इतना विशवास था कि अक्सर वे कहा करते थे, “कर्पूरी जी के बिहार से बाहर निकलने की परिस्थितियां बन जाएँ तो 10 वर्ष के अंदर पूरे देश में समाजवादी धारा का संगठन खड़ा कर उसकी सरकार बना दें”..डॉ० लोहिया बिहार को समाजवाद की प्रयोगशाला बनाना चाहते थे और कर्पूरी ठाकुर को मुख्य प्रयोगकर्ता….

धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक हैं)

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