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*साहित्य : आखिर मिला क्या हिंदी आलोचना से समाज को*

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         ~ सुधा सिंह

    पुराने समीक्षकों ने कहा था : -कविरेव प्रजापति: , कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू। कवि विधाता है , नयी सृष्टि या रचना करता है।

     इस प्रकार से यदि साहित्य को  जीवन का पुन:सृजन माना जाय तो  आलोचना जीवन के पुन:सृजन का  पुन:सृजन  है। रचना की पुन:रचना। यदि साहित्य को सागर माना जाय तो  आलोचक  साहित्य-समुद्र का गोताखोर  है,  मरजीवा  है। अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग। गहराई में डूब कर रत्न निकाल कर देने वाला है। 

अब सवाल है कि  हिन्दीआलोचना  ने समाज को क्या  दिया?

  विगत दशकों में “सृजन”  पीछे हो गया और “आलोचना” आगे हो गयी , आलोचना  के पीछे सत्ता की शक्ति थी , कुर्सी थी , विभाग थे , साम्राज्य था , अधिकार था , साधन थे , समितियाँ थीं , अकादमी थीं। यही कारण है कि सत्तातन्त्र और साधनों के बल पर  आलोचक आगे हो गया और साहित्यकार पीछे?

     आलोचक के पास कुर्सी थी न! सत्ता की शक्ति यों ही तो मिल नहीं सकती , दरबार साधना पड़ा ,  आलोचना में राजनैतिक मत-वाद आया , मत-वाद  साहित्य की कसौटी बनाया गया। सत्ता का अलक्षित सूत्र आलोचना को हिला रहा था।

    परिणाम हुआ कि सत्ता के साधना में लोक की धरती छूट गयी। सृजन भी प्रभावित हुआ। इस द्वन्द्व में हिन्दी आलोचना  लोक से और अपने सांस्कृतिक-मूल-आधार से विच्छिन्न हो गयी। संस्कृति दूर हो गयी और विचारधारा एक मद की तरह मन-मस्तिष्क पर छा गयी। 

हम दूसरे तरह के मनुष्य हैं , कुछ अधिक आदमी हैं और ये जनता वाले कुछ कम आदमी हैं।

आदमी ऐसा होना चाहिये , जैसा हम कुछ लोग सोचते हैं ,जैसा हमने अपनी  किताब में पढ़ा है – यूटोपिया। अचरज की बात यह कि यह यूटोपिया यथार्थ के कपड़े पहने हुए था।अपने को यथार्थवाद बतला रहा था।

      हिन्दी -आलोचकों ने रांगेयराघव को क्यॊं नहीं  पहचाना ? वह  पार्टी का नहीं था ,जनता का कवि था !जिसने सारा जीवन ही  हिंदी को, साहित्य को समर्पित  कर दिया था,जिसने मेधावी जैसा महाकाव्य लिखा,  कबतक पुकारूँ जैसा उपन्यास लिखा, गदल जैसी कहानी लिखी, तूफानों के बीच जैसे रिपोर्ताज लिखे.महायात्रा जैसी मनुष्यजीवन की युगयात्रा लिखी,  जिसने उन्तालीस वर्ष की उम्र में 151 महत्त्वपूर्ण कृतियाँ लिखीं. जिसकी रचनाओं पर फ़िल्म बनी,  धारावाहिक बने,  जिसके उपन्यास और कहानी  रूसी भाषा में अनूदित हुईं. उस तपस्वी मनीषी को   इन प्रच्छन्न  सत्ता (साहित्य)सेवियों ने,  इन मठाधीशों और महंतों ने  ,  हिंदी – साहित्य के इन  ठेकेदारों और  दलालों ने  विस्मृत कर दिया.

अपनी जाति का होता,  अपने इलाके का होता,  अपनी पार्टी का होता,  अपने अखाड़े का  चेला होता  तो वह अंतरराष्ट्रीय बना दिया जाता. इतनी संकीर्णता!

    यह बात दूसरी है कि आगरा के लोगों ने सेंट जॉन्स कालेज के पीछे वाले उस रोड का नाम डा रांगेय राघव मार्ग रख लिया है,  जहाँ वे कभी निवास किया करते थे.

     इन आलोचकों ने साहित्य को संकीर्ण-दायरों में विभाजित करने का अपराध किया है। एरंड को महावृक्ष सिद्ध करना था न! 

    गोपालदास नीरज के काव्य के साथ न्याय किया था? गोपालदास नीरज से इन आलोचकों को क्या लेना था?

      बात यह है कि  लोग पार्टी देख कर जाति पूछ कर आलोचना लिखते हैं , और विडंबना यह कि वे ही जाति मिटा देने का दंभ भी करते हैं। ऐसे आलोचक कबीर को तो एक खेमे में रख देते हैं और तुलसीदास को दूसरे खेमे मॆं ,फिर उनके युद्ध की कल्पना करते हैं।

     सत्ता के विचारों की पट्टी आंखों पर बंधी है , इस लिये भला कैसे देख सकते हैं कि लोक लकीरों में नहीं रहता ।लोक को कबीर उतने ही प्यारे हैं ,तुलसी भी उतने ही प्यारे हैं , सूर और मीरा ,दादू ,नाभा, नानक ,रैदास लोकमानस की गहराई में बसे हैं । सच तो यह है कि लोकदृष्टि ही समीक्षा का प्रतिमान  है।

साहित्य का एकमात्र प्रयोजन लोकमंगल है ,साहित्य का एक मात्र गंतव्य लोकजीवन है। 

     कोई साहित्यिक-कृति जीवित है या नहीं ? इस सवाल को हम यों भी सोच सकते हैं कि उस कृति के साथ लोकजीवन का संवाद किसी न किसी रूप में चल रहा है या नहीं ? यदि किसी साहित्यिक-कृति के साथ  लोकजीवन का संवाद चल रहा है तो साहित्यिक-कृति जीवित है और  उसका कृती साहित्यकार भी जीवित है!

     आलोचना ने  किसी रचना का  स्तुतिगान किया है ,उपेक्षा की है या तिरस्कार किया है इसका कोई अर्थ है नहीं क्योंकि  मोटामोटी  यों समझ सकते हैं कि आलोचना के प्रतिमान और आलोचना  का संबंध उनकी  जीविका  और उनके अस्तित्व  से है , उनके कैरियर से  है। कहीं न कहीं  उसमें स्वार्थ छिपा  है , लोकजीवन के प्रति उनकी न कोई निष्ठा है , न   प्रयोजन।

     ५ फरवरी १९१६ को नागरी प्रचारिणी सभा , काशी में महात्मागांधी ने  एक सूत्र  दिया था , जब उन्होंने कहा था कि ” साहित्य के बिना स्वराज्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। “साहित्य लोकजीवन का स्वर है।”

      आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बार-बार लोकहृदय की बात कही थी। प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है। सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो—आदि।

     १९९० का साहित्य-अकादमी का पुरस्कार प्राप्त करते हुए हिन्दी के वरिष्ठ उपन्यासकार डा. शिवप्रसादसिंह ने जो वक्तव्य दिया था , वह आज भी महत्त्वपूर्ण है! मैं मार्क्सवादी था !५० प्रतिशत अब भी हूं। परन्तु जब   भाई-भतीजावाद मार्क्सवाद का  रूप लेने लगा ,मार्क्स के नाम से जोड़ कर तरक्कीपसन्द अदब में  प्रतिबद्धता से जुड़े विज्ञापनों को साहित्य कह कर उछाला जाने लगा ,तब उस खेमे के समीक्षकों को मेरे मतभेद  ,मेरी आलोचना सहन करना मुश्किल हो गया!

    सारी कहानी बतलाऊं तो यातना की भयंकरता में जो स्थान हावर्डफास्ट के नेफेडगाड को मिला उससे भी गन्दी जगह हिन्दी-आलोचना को मिलेगी!  [जनसत्ता २४फरवरी १९९७ ]

  “मुझमें बहुत-कुछ अनगढ़ है”–बातचीत  में  आचार्य कुबेरनाथ राय  ने कहा था – “यहाँ मैं एक खास बात की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। हिन्दी में नई आलोचना के नाम पर ऐसे आलोचक आये ,जिन्होंने साहित्य में संवेदना की उपेक्षा की। ये ही लोग विश्वविद्यालयों में हैं और निर्णायक पदों पर बैठे हुए हैं। उन्होंने ऐसा वातावरण बनाया कि साहित्य में भावनाओं और संवेदनाओं की जगह ही न रहे। समकालीन राजनीति ने भी हमारी संवेदना और साहित्य को भोतरा किया है। आज आदमी को जाति और धर्म के संकुचित घेरे में सीमित कर दिया गया है। हम आदमी की पीड़ा को नहीं देखते ,बल्कि यह देखते हैं कि वह किस जाति अथवा संप्रदाय का है। 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक दिन बोले कि “आज के आलोचक तो पुस्तक को बिना पढे ही उसकी आलोचना कर देते हैं , वह भी ऐसी कि त्रैलोक्यविकंपित !”

   [साप्ताहिक हिन्दुस्तान ४ दिसंबर १९८८]

आलोचना= आ समंतात् , समंतात् = चारों ओर से! लोचनम्= अवलोकनम् !  आलोचना  ‘लुच्‌ ‘ धातु से  निष्पन्न  है ,  अर्थ  है- ‘देखना’। प्रत्येक कोण से देखना !   

    वैसे प्रत्येक कोण से देखना ,समग्रता से  जानना,  है  तो बहुत कठिन, परन्तु आलोचना शब्द का अर्थ तो यही है ! आलोचना  तो साधना है,  भली प्रकार से समझना, जानना !  किसी रचना या कृति में   निमग्न हुए बिना उसे कैसे समझेंगे ?  किसी वस्तु या कृति  अथवा कृतिकार की सम्यक् व्याख्या कैसे करेंगे ! किन्तु इतने कठिन कार्य को यार -लोगों ने सबसे सरल बना लिया है !

      आलोचना को इतना सस्ता बना दिया है कि ग्यारहवीं कक्षा का लड़का रामचन्द्रशुक्ल की आलोचना कर रहा है! सूप बोलै सो बोलै , चलनी ऊ बोली जामें बहत्तर सौ छेद! 

     विश्वविद्यालय के पदों के घटाटोप और चकाचौंध के कारण सृजन से भी अधिक आलोचना की महिमा बढ़ गयी.आलोचना का स्वरूप निंदास्तुति का बन गया.

आलोचक की रुचि और आलोचक का नफ़ा-नुकसान ही कसौटी बन गया।आलोचना का मतलब  मक्खी की तरह खुंड पर बैठना है।

      क्या आलोचना का काम  पार्टी-नेता को खुश करना है अथवा राजनैतिक मतवाद का खंडन-मंडन है? आलोचना यदि साहित्य की ही विधा है तो आलोचना का प्रयोजन साहित्य से भिन्न कैसे हो सकता है? 

    भरत मुनि ने  नाट्यशास्त्र  का प्रयोजन बतलाते हुए कहा था :

   दु:खार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्‌!

 विश्रान्ति जननं काले नाट्यमेतन्मया कृतम्‌! 

     जो दुख से व्याकुल हैं , जो अत्यन्त परिश्रम के कारण थक गये हैं , जो शोकसंतप्त हैं और जो कठिन तप कर रहे हैं ,उनको कुछ विश्रान्ति मिल सके , मेरा प्रयास तो उन्हीं के लिए है!  

    धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्द्धनम्‌ !

लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद्भविष्यति ! 

     समाज में धर्म की व्याख्या कर सके  यश , आयुष्य ,विशाल हित की  व्याख्या कर सके , सामाजिक-विवेक की प्रतिष्ठा कर सके , लोकशिक्षण कर सके , मेरा प्रयास तो इसी के लिए है!

अब आप वर्तमान आलोचना की परख करिये :

    कविरत्न गोविन्द जी के शब्द हैं : काहू कों चढ़ाबै और काहू कों उतारै है! यदि आलोचना  किसी राजनैतिक- मतवाद  की चेरी है  तब तो यह  चुनावीसाहित्य या परचेबाजी  है !इसे साहित्य भी क्यों कहा जाय? पिछले दशकों में आलोचना के वेश में राजनीति ने साहित्य में प्रवेश किया था। कुछ लोग आलोचना के नाम पर राजनीति कर रहे हैं ! छिपे हुए एजेंडे हैं ! साहित्य को अपने व्यक्तिस्वार्थ के लिए  संकीर्ण-दायरों में विभाजित किया जा रहा है।

    न जाने कबसे सुन रहे हैं कि  तुलसीदास वर्णवादी थे  सूरदास सौन्दर्यवादी थे। विद्यापति सामन्त थे ,शृंगारी थे। मैथिलीशरण गुप्त हिन्दुत्ववादी थे। अभी दो दिन पहले श्रीविमलकुमार जी ने फ़ेसबुक पर होने वाली बहसों के संबंध में व्यंग्य में लिखा था -प्रेमचंद -प्रगतिशील पर दलित विरोधी स्त्री विरोधी थे। प्रसाद पुनरुत्थानवादी थे. इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ते थे। राहुल सांकृत्यायन-साम्यवादी पर यौन स्वछंदतावादी थे। शिवपूजन सहाय-मानवतावादी पर धर्मवादी थे।राजा राधिकारण प्रसाद सिंह -सामंतवादी थे।

     निराला -क्रांतिकारी पर ब्राह्मणवादी थे। पंत -विचार शून्यवादी थे।भगवती चरण वर्मा-,नियतिवादी थे।यशपाल-क्रांतिकारी पर साड़ी जम्फरवादी  थे। दिनकर -उग्र राष्ट्रवादी थे। जैनेंद्र- यथास्थिति वादी  थे। अज्ञेयः -अभिजात्य वादी थे।रामविलास शर्मा- हिंदूवादी थे। मुक्तिबोध -किसान दलित स्त्री चेतना से वंचित थे। निर्मल वर्मा -हिंदुत्ववादी थे। नामवर सिंह- अवसरवादी थे।आदिआदि। 

     और बस  हिन्दीसाहित्य का अनुष्ठान पूरा  हो गया।  “जीवन के पुन:सृजन का  पुन:सृजन” हो गया और  रत्न  भी  निकाल कर  दे दिये।  जौहरी जो ठहरे।

यदि करुणा  या संवेदना  या दर्द कविता का मर्म है तो कोरी बहसबाजी से साहित्य को कोई समझ सकता है ,यह कल्पना से भी बाहर की बात है।

      हिन्दी आलोचना ने आगे वाली पीढी को जाति की भँवर में धकेल  दिया। बेटा , मनुष्य नहीं , जाति ही बड़ी है , जाति-जाति करो , इसी से कुछ मिलेगा। सोचिये आपने  हिन्दी के  जो एम ए  पैदा किये  हैं , उनमें से कितने हैं , जिनको आपके पाठ याद हैं , उन पाठों के आधार पर  वे क्या कर सके हैं , क्या कर रहे हैं? क्या करने लायक बन सके हैं? क्या वे उन्हीं पाठों की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं?राणाजी को ले डूबी गंगौर। हिंदी की कक्षाएँ सूनी- सूनी हो गईं। झंडा आपके हाथों में है ,कभी सोचा कि ऐसा क्यों हुआ?

हिन्दी-आलोचना पर  ऐसे शीर्षक के अंतर्गत अनुसंधान की आवश्यकता है : 

1- हिन्दी-आलोचना में सत्ता और राजनीति की घुसपेंठ

अथवा

2-हिन्दीआलोचना में सत्ता और राजनीति के ताने-बाने

अथवा

3-साहित्य का राजनैतिक-भाष्य:हिन्दी-आलोचना:

(अपवाद तो होते ही हैं, किंतु सामान्य परिदृश्य ऐसा ही है, ऐसा न होता तो आलोचकों के शिविर  क्यों होते?)

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