नीलम ज्योति
बुद्धिवाद और विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित उन मान्यताओं के संबंध में हमें सतर्क होना होगा, जो मनुष्य को अनास्थावान एवं अनैतिक बनाती हैं। विचारों को विचारों से, मान्यताओं को मान्यताओं से, प्रतिपादनों से काटा जाना चाहिए। समय-समय पर यही हुआ भी है।
वाममार्गी विचारधारा को बौद्धों ने हटाया और बौद्ध धर्म के शून्यवाद का समाधान जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रबल प्रयत्नों द्वारा हुआ। लोगों को केवल तलवार-बन्दूकों की लड़ाइयाँ ही स्मरण रहती हैं। असली लड़ाइयाँ तो विचारों की लड़ाइयाँ हैं। वे ही जनसमूह के भाग्य का निर्माण करती हैं।
प्रजातन्त्र सिद्धान्त के जन्मदाता रूसो और साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स की विचारधाराएँ पिछली शताब्दियों से मानव समाज का भाग्य-निर्माण करती रही हैं। पूँजीवाद, समाजवाद, अधिनायकवाद की विचारधाराओं ने भी अपने ढंँग से अपनी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्रस्तुत की हैं। बाह्य संघर्षों की पृष्ठभूमि में मूलतः ये विचारधाराएँ काम करती हैं।
देशों और जातियों का उत्थान-पतन उनकी आस्थाओं और प्रवृत्तियों के आधार पर ही होता है, होता रहा है और हो सकता है। उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति अनास्था उत्पन्न करने वाली आज की बुद्धिवादी और विज्ञानवादी मान्यता जिस तेजी से अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाती चली जा रही है, उसकी भयंकरता की दुर्द्धर्ष सम्भावना का मूल्यांँकन कम नहीं किया जाना चाहिए। उसका प्रतिरोध करने के लिए तत्परतापूर्वक खड़ा होना चाहिए।
युग के प्रबुद्ध व्यक्तियों की यह महती जिम्मेदारी है। इसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए और न अवज्ञा। हमें एक ऐसा विचार-मोर्चा खड़ा करना चाहिए, जो भौतिकवादी अनास्था से पूरी तरह लोहा ले सके। यदि यह कार्य संपन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि मानवजाति के मस्तिष्क को, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म को अंधकार के गर्त में गिरने से बचा लिया गया। पर यह मोर्चा खड़ा न किया जा सका, उसे सफलता न मिली तो परिणाम प्रत्यक्ष है। कुछ ही दिन बाद हम जङ्गली संस्कृति के, नास्तिकता के, पशु-प्रवृत्तियों के पूरी तरह शिकार हो जाएँगे और लाखों वर्षों की मानवीय संस्कृति आत्मदाह करके अपना करुण अंत प्रस्तुत करेगी।
समय रहते चेतने में ही बुद्धिमानी है। बुद्धिमत्ता की भूमिका प्रस्तुत करनी चाहिए। वही शुभारम्भ किया भी जा रहा है। बुद्धिसम्पन्न एवं विज्ञानसम्पन्न अध्यात्म के प्रतिपादन की चर्चा इसी दृष्टि से की जा रही है। यह कहना सही नहीं कि धर्म, अध्यात्म, ईश्वर, आत्मा आदि का प्रतिपादन बुद्धि का नहीं, श्रद्धा का मिश्रण है।
अन्ध-भक्ति नहीं, विवेकसम्पन्न श्रद्धा ही स्थिर और समर्थ हो सकती है। प्राचीनकाल के ऋषियों ने भी बुद्धि की शक्ति से ही अध्यात्म का सारा कलेवर खड़ा किया था। प्राचीनकाल में श्रद्धा, शास्त्र और आप्तवचन जनमान्यता के आधार थे। अब यदि दिमाग, तर्क और प्रमाण उसके आधार बन गए हैं तो कोई कारण नहीं कि आज की जन मनोभूमि के अनुसार अध्यात्म सिद्धान्तों का प्रतिपादन और समर्थन न किया जा सके।