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 क्या आप गीता प्रेस का सच जानते हैं, मोदी जी!

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देश के प्रधानमंत्री ने गीता प्रेस के शताब्दी समारोह के समापन समारोह में शिरकत की। क्या प्रधानमंत्री जी आपको पता है-

वर्ण व्यवस्था की संरचना पर आधारित गीता प्रेस 

गीता प्रेस की संरचना वर्ण-व्यवस्था पर आधारित है। कोई भी दलित गीता प्रेस के संपादकीय टीम में शामिल नहीं हो सकता है। गीता प्रेस के प्रोडक्शन मैनेजर ‘आशुतोष उपाध्याय तथा ध्यानेंद्र तिवारी’ ने अभी‌ हाल में ‘द‌ प्रिंट’ को बात‌चीत में बताया, ”न्यासी बोर्ड के सभी ग्यारह सदस्य मारवाड़ी हैं और अन्य जाति के व्यक्तियों को कभी भी इस स्थान पर जगह नहीं दी गई है। इसके अलावा मैनेजमेंट की पोजीशन पर कोई भी दलित समुदाय का व्यक्ति नहीं रखा जाता है, हालांकि मशीन ऑपरेटर और क्लीनर के रूप में दलित श्रमिक कार्यरत हैं।” मैनेजर कहते हैं कि “चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों में दलित जाति के लोग भी हैं।

वर्ण व्यवस्था का समर्थक गीता प्रेस 

प्रधानमंत्री जी क्या आपको पता है कि गीता प्रेस अपनी स्थापना के समय (1923) से लेकर आज तक वर्ण-व्यवस्था का पुरजोर समर्थक है। गीता प्रेस के वर्तमान मैनेजर ध्यानेंद्र तिवारी ने द प्रिंट से बातचीत में कहा, “हम अभी भी गीता में लिखी गई वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते हैं। हम गीता में विश्वास करते हैं, क्योंकि यह एकमात्र सत्य है।” गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयंदका और हनुमान प्रसाद पोद्दार वर्ण व्यवस्था के कट्टर समर्थक थे। गीता प्रेस से निकलने वाली किताबें और उनकी पत्रिका कल्याण वर्ण-जाति व्यवस्था की प्रशंसा और गुणगना करती चली आर रही हैं।

छुआछूत का समर्थक और दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोधी गीता प्रेस 

वर्ण व्यवस्था को कौन कहे, गीता प्रेस और हनुमान प्रसाद पोद्दार वर्ण-व्यवस्था के साथ छुआछूत के भी समर्थक थे। हनुमान प्रसाद पोद्दार दलितों के मंदिर प्रवेश के भी विरोधी थे। गांधी से उनका मुख्य मतभेद गांधी के छुआछूत विरोधी अभियान और दलितों के मंदिर प्रवेश के आंदोलन से था। ‘गीता प्रेस द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया’ में अक्षय मुकुल लिखते हैं, ‘गीता प्रेस और महात्मा गांधी के बीच जाति और सांप्रदायिक मुद्दों पर गहरी असहमति की एक श्रृंखला के बाद, हरिजनों के लिए मंदिर प्रवेश और पूना पैक्ट जैसे मुद्दों पर संबंध तेजी से बिगड़े…। अस्पृश्यता पर पोद्दार के विचारों को बदलने के गांधी के सर्वोत्तम प्रयास विफल रहे। गांधी के खिलाफ पोद्दार का कटाक्ष 1948 तक कल्याण के पन्नों में जारी रहा।’ 

आरक्षण का विरोधी गीता प्रेस 

गीता प्रेस और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने 1932 के पूना पैक्ट का विरोध किया था। इसके लिए उन्होंने गांधी की आलोचना की थी। पूना पैक्ट के विरोध का कारण उसमें एससी-एसटी के लिए किया गया आरक्षण का प्रावधान था।

महिलाओं की स्वतंत्रता का विरोधी गीता प्रेस

गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयंदका पतिव्रता धर्म पर विस्तार से प्रवचन देते हुए लिखा है कि “सुहागन स्त्रियों के लिए पति सेवा ही सब कुछ है। पति की आज्ञा के बिना वे कहीं न जाएं, जहां भी जाएं, यथासंभव अपने पति के साथ ही जाएं, क्योंकि उनको केवल एक पति की सेवा से ही सब प्रकार की पूर्ण सफलता मिल जाती है।”

हनुमान पोद्दार ‘नारीशिक्षा’ में औरत की ग़ुलामी की मांग करते हुए कहते हैं, “स्त्री को बाल, युवा और वृद्धावस्था में जो स्वतंत्र न रहने के लिए कहा गया है। वह इसी दृष्टि से कि उसके शरीर का नैसर्गिक संघटन ही ऐसा है कि उसे सदा एक सावधान पहरेदार की जरूरत है। यह उस का पद गौरव है न कि पारतंत्र्य।”

क्या स्त्री को नौकरी करनी चाहिए? बिल्कुल नहीं! “स्त्री का हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरी का कष्ट, प्रताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी ही विपरीत बात आते ही उसके आंसू आ जाते हैं।”  कल्याण के नारी विशेषांक में लिखा है, “जो मन, वाणी और शरीर को संयम में रखकर कभी पति के विपरीत आचरण नहीं करती, वह भगवतस्वरूप पतिलोक को प्राप्त होती है और साध्वी कही जाती है।”

सती प्रथा का समर्थक गीता प्रेस 

हनुमान प्रसाद पोद्दार के संपादक में निकले कल्याण के नारी विशेषांक सती महात्म्य में लिखा है, “जो नारी अपने मृत पति का अनुसरण करती हुई घर से श्मशान की ओर प्रसन्नता के साथ जाती है, वह पद-पद पर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करती है। गीता प्रेस के ‘सती महात्म्य’, ‘सती प्रथा सहस्रों पुरुषों का उद्धार कर देती है’ विशेषांक में जगह-जगह सती की महानता का गुणगान किया गया है। गीता के प्रेस ने जो 12 सूत्री हिदायतें भी प्रकाशित की हैं, उसमें पहली हिदायत यह है कि हिंदू स्त्री को पति के मरने के पश्चात सती हो जाना चाहिए। सनद रहे कि राजस्थान के शेखावटी इलाके में कई ‘सती मंदिर’ भी हैं। 1987 में मारवाड़ियों के इसी इलाके में ही प्रसिद्ध सती रूपकंवर कांड घटा था।

सती प्रथा के समर्थन में गीता प्रेस हिंदू धर्मशास्त्रों का हवाला देते हुए लिखता है, “वेदों में सहमरण का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। स्मृतियों और पुराणों में भी पाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि महाराज पृथु की पत्नी अर्चि ने स्वामी के साथ चितारोहण किया था। महाभारत में पाण्डु पत्नी माद्री, वसुदेव जी की चार पत्नी देवकी, रोहिणी, भद्रा व मदिरा के सहमरण का प्रसंग आता है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने भी पति का अनुगमन किया था। भगवान श्रीकृष्ण के परम धाम पधारने पर देवी रुक्मिणी, गांधारी, शैव्या, हेमवती, जाम्बवती आदि सती हुई थीं।” इसी लेख में राजाराम मोहन राय के सती प्रथा विरोधी आंदोलन की निंदा की गई है।

महिलाओं को कम से कम शिक्षा का समर्थक गीता प्रेस 

गीता प्रेस का नारी विशेषांक लिखता है, “लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की शिक्षा में विशेष सावधानी अपेक्षित है। लड़कियां सामान्यतः शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण उच्च शिक्षा का भार उठाने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए, शक्ति के अनुसार ही काम अच्छा होता है। हां साधारणतः मैट्रिक, सम्मेलन की प्रथमा अथवा महिला विद्यापीठ की ‘विद्या विनोदिनी’ परीक्षा तो प्रत्येक लड़की के लिए एक तरह से जरूरी ही है।”

उच्च शिक्षा को लेखक व्यावहारिक भी नहीं समझता क्योंकि, “बीए तथा एमए पास लड़कियों के लिए वर मिलना प्रायः कठिन हो जाता है और तब इच्छा या अनिच्छा से उन्हें अविवाहित जीवन ही बिताना पड़ता है।” जयदयाल गोयंदका ने पुरुषों से कहा कि “पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्रियों को अधिक से अधिक घरेलू कामों में लगाए रखें, ताकि खाली समय में उनके मन में कुविचार न आएं।”

महिलाओं के लिए आधुनिक व उच्च शिक्षा का विरोध करते हुए गीता प्रेस का नारी विशेषांक लिखता है, “यूनिवर्सिटियों की शिक्षा नारी जाति के लिए निरर्थक ही नहीं, वरन अत्यंत हानिकर है। जो शिक्षा स्त्रियों के स्वाभाविक गुण, मातृत्व, सतीत्व, सद्गृहिणीपन, शिष्टाचार और स्त्रियोचित हार्दिक उपयोगी सौन्दर्य- माधुर्य को नष्ट कर देती है, उसे उच्च शिक्षा कहना सचमुच बड़े ही आश्चर्य की बात है।”

लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ाने का विरोधी गीता प्रेस

गीता प्रेस के नारी विशेषांक में सहशिक्षा का जोरदार विरोध में किया गया है, “प्रायः सभी धार्मिक और विद्वान महानुभावों का यह मत है कि वर्तमान धर्महीन शिक्षा प्रणाली हिन्दू नारियों के आदर्श के सर्वथा प्रतिकूल है। फिर जवान लड़के-लड़कियों का एक साथ पढ़ना तो और भी अधिक हानिकर है।” लेखक तर्क देता है कि उच्च शिक्षा से उनके मातृत्व का नाश होता है, “जिस उच्च शिक्षा के पीछे हम आज व्याकुल हैं, जिस सभ्यता का प्रभाव आज की हमारी स्त्री शिक्षा को संचालित कर रहा है, उस सभ्यता के मातृत्व नाश का तो यही नमूना है।” 

लड़के-लड़कियों के साथ पढ़ने का विरोध इस तरह से किया गया है, “स्त्री पुरुष के शरीर की रचना ही ऐसी है कि उनमें एक दूसरे को आकर्षित करने की विलक्षण शक्ति मौजूद है। नित्य समीप रहकर संयम रखना असंभव सा है। प्राचीन काल में तपोवन के निर्मल वातावरण में रहने वाले जैमिनि सौभरि, पराशर सरीखे महर्षि और न्यूटन और मिल्टन जैसे विवेकी पुरुष और वर्तमान काल के बड़े-बड़े साधक पुरुष भी जब संसर्ग दोष से इन्द्रिय संयम न कर सके, तब विलास भवन रूप सिनेमाओं में जाने वाले, गन्दे उपन्यास पढ़ने वाले, भोगवाद को प्रश्रय देने वाली केवल अर्थवादी विद्या के क्षेत्र, कॉलेजों में पढ़ने वाले और यथेच्छ आचरण के केन्द्र स्थान छात्रावासों में निवास करने वाले विलासिता के पुतले युवक-युवतियों से शुक देव के सदृश इन्द्रिय निग्रह की आशा करना तो जानबूझकर अपने आपको धोखा देना है।”

बाल विवाह का समर्थक गीता प्रेस 

“ऋतुकाल (माहवारी) से पहले ही विवाह हो जाना अत्यंत आवश्यक है। आदर्श सती वही है जो या तो पति के सिवा किसी को पुरुष में देखती ही नहीं और यदि देखती है तो पिता, भ्राता या पुत्र के रूप में। पर ऐसा देखने वाली भी मध्यम श्रेणी की पतिव्रता मानी गई है। तथा साधारणतया विवाह के समय कन्या की उम्र तेरह और वर की उम्र कम से कम अट्ठारह होनी चाहिए। विवाह करना आवश्यक है और वह भी बहुत बड़ी उम्र होने के पहले ही कर लेना चाहिए।”

आगे लिखा गया है कि “अतएव रज निर्गत (माहवारी) होना आरंभ होते ही यह समझ लेना चाहिए कि वे मां बनने योग्य हो गयी हैं। सभी स्त्री जन्तु उसी समय से कामोपभोग करती और गर्भवती होती हैं- वे उसके बाद थोड़े समय भी अपेक्षा नहीं करतीं। अतएव प्रकृति का यही निर्देश है कि स्त्रियों को रजोदर्शन के समय से ही काम और मातृत्व के अंगों का व्यवहार कर देना चाहिये।”

विधवा विवाह का विरोधी गीता प्रेस 

गीता प्रेस की स्पष्ट राय है कि विधवाओं का विवाह किसी भी हालत में नहीं किया जाना चाहिए और विवाह के द्वारा जो इन्द्रिय भोग का सुख मिलता है उसको त्याज्य समझकर भूल जाना चाहिए और अपना समय त्याग और तपस्या में लगाना चाहिए। लेकिन ऐसा कहने वाले लेखक यह भूल जाते हैं कि जो कामेच्छा इतनी स्वाभाविक है, कि जिसे बड़े-बड़े ऋषि और मुनि नियंत्रित नहीं कर सके और जिनकी कामुकताओं से सभी पुराण भरे पड़े हैं, उनसे अलग रहने का यह उपदेश स्त्रियों को ही क्यों दिया जा रहा है? एक तरफ तो पुरुषों को वृद्धावस्था में भी बार-बार विवाह करने की छूट, यहां तक कि अपने से एक चौथाई उम्र की लड़की से भी विवाह करने में भी किसी तरह का संकोच नहीं।

महिलाओं के नौकरी करने का विरोधी गीता प्रेस 

‘नारी अंक’ में ‘नारी और नौकरी’ नामक एक लेख है। पूरे लेख में स्त्री के लिए नौकरी की निरर्थकता सिद्ध करने का प्रयास है। नौकरी स्त्री के लिए किस प्रकार हानिकारक है, यह बताया गया है। इस लेख की शुरुआत ही यह अफसोस जताते हुए हुई है कि ‘आजकल अपने यहां की शिक्षित स्त्रियों को नौकरियों का बड़ा चस्का लग रहा है।’ लेखक स्त्रियों को घर में ही रखने के पक्ष में है, क्योंकि यदि स्त्रियां भी बाहर कमाने के लिए जाने लगेंगी तो घर कौन संभालेगा: “स्त्रियां जब नौकरियों के पीछे पड़ती है, तब घर बिगड़ जाता है।” गीता प्रेस का लेखक आगे लिखता है, “भारत की स्त्रियों में नौकरी का शौक बढ़ने से विकट समस्यायें उपस्थित होने लगी हैं।”  

तलाक के खिलाफ है गीता प्रेस 

गीता प्रेस के नारी अंक में लिखा गया है कि “विवाह, उत्सर्ग और प्रेम का मूर्तिमान स्वरूप है। इसी से विवाह बंध भी नित्य और अच्छेद्य है। जहां विवाह विच्छेद की बात भी है, वहां तो मनुष्य के पशुत्व की सूचना है। विवाह में जहां विच्छेद की संभावना आ जाती है वहीं नर-नारी का पवित्र और मधुर संबंध अत्यंत जघन्य हो जाता है। फिर मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं रह जाता। विवाह विच्छेद की प्रथा चलाना मानवता को मारकर उसे कुत्ते-कुतिया के रूप में परिणत कर देना है।”

प्रधानमंत्री क्या गीता प्रेस संबंधी उपरोक्त बातें आपको पता थीं, यदि पता थीं तो इस तरह के विचारों का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था के शताब्दी समारोह में शामिल होकर दलित, पिछड़ों और महिलाओं को क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या संविधान के प्रति आपने झूठी शपथ खाई थी? भारत के प्रधानमंत्री के रूप में इस संविधान और जनतंत्र विरोधी संस्था के शताब्दी समारोह में शामिल होकर क्या आपने संविधान के प्रति अपने शपथ का उल्लंखन नहीं किया है?

स्रोत सामग्री- 

1- गीता प्रेस द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया (अक्षय मुकुल)

2- ‘मनुवादी तालिबानों का घोषणापत्र’ है गीता प्रेस से प्रकाशित ‘कल्याण’ का नारी विशेषांक  

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