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अपना ढेंढर न देखे, दूसरों की फुल्ली निहारे : गलतफहमी और भ्रम से निपजे इस चुनाव नतीजे के मायने

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पुष्पा गुप्ता (महमूदाबाद)

ग़लतफहमी किसान नेताओं को थी कि वो सियासत बदल देंगे। भीड़ देखकर ग़लतफहमी के शिकार अखिलेश यादव हो गये। योगी को यह भ्रम हो चुका कि वही हैं मोदी के विकल्प। मोदी को ग़लतफहमी यह हो गई कि पब्लिक ने उनकी नीतियों को पसंद किया है, और परिवारवाद को उखाड़ फेंका है। पीएम मोदी काशी का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक ठेठ बनारसी कहावत है, ‘अपना ढेंढर न देखे, दूसरों की फुल्ली निहारे!‘

गणित के मामले में मैं थोड़ा कमज़ोर हूं। आपकी यदि मज़बूत है, तो समझा दीजिएगा। उत्तर प्रदेश में बसपा का एक प्रत्याशी जीता है, चुनाव आयोग ने इस पार्टी का वोट शेयर बताया 12.88 प्रतिशत। कांग्रेस के दो प्रत्याशी जीते हैं, इस पार्टी का वोट शेयर बताया 2.33 फीसद।
अर्थात, एक अदद प्रत्याशी जीतने वाली पार्टी का मत प्रतिशत 12.88 और दो विधायकों वाली पार्टी का वोट शेयर 2.33 फीसद। 2017 में बीजेपी को यूपी में 312 सीटें हासिल हुई थी, वोट शेयर था 39.7 प्रतिशत। 2022 में 255 सीटें बीजेपी को, और वोट प्रतिशत बता रहे हैं 41.29। सीटें कम, और वोट प्रतिशत अधिक। इस गणित को कोई श्रीनिवास रामानुजन् समझा दे, मेरी ओर से पार्टी।

बीजेपी को इस बार यूपी में 255 सीटें आईं। 2017 के चुनाव परिणाम से 57 सीटें कम। अबीर-गुलाल से आवृत मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी इसे ‘प्रचंड विजय‘ बता रहे थे। यह दो तिहाई भी नहीं हुई, मगर नाम दे दिया ‘प्रचंड बहुमत‘।
आज़माई हुई बात है, जो लोग भांग नहीं पीते, अबीर-गुलाल से भी नशा हो जाता है। वो ख़ुदा के बंदे ख़ूब ट्रोल हुए, जिन्होंने कह दिया था कि बीजेपी का बुरा हाल होगा। मगर, भीड़ का सैलाब और लोगों की प्रतिक्रिया देखकर चुनाव कवर करने वाले किसी भी ख़बरनबीस को ऐसा महसूस हो सकता था। महंगाई, भूखमरी, कोविड के दौरान लाशों का बिछ जाना, पेट्रोल की क़ीमतें, बेरोज़गारी, व्यापार का चौपट हो जाना, किसान उत्पीड़न यह सब भी कोई विषय होता है भला? ईवीएम को पढ़ नहीं पाये पत्रकार, जो निष्पक्ष होकर रिपोर्टिंग कर रहे थे।
पांच राज्यों में जय और पराजय के जो परिणाम प्राप्त हुए, चुनावी प्रक्रिया पर भरोसा है, तो उसे स्वीकार कीजिए। नहीं स्वीकार है, तो उसे नकारने के वास्ते तर्क होना चाहिए। ‘कांस्पीरेसी थ्योरी‘ दिखती है, तो उसे खड़ा करने के वास्ते प्रमाण, और साक्ष्य होने चाहिए।
ईवीएम के बटनों पर क्विक फिक्स लगा देने की दो-चार घटनाएं, मतदान पश्चात बिना समुचित सुरक्षा के इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनें ले जाने की वारदातें, वीवीपैट की पर्ची से मिलान का मामला, पोस्टल वोट प्रभावित करने, विकलांगों व बूढ़ों द्वारा वोटिंग के समय गड़बड़ी की आशंका, ये तमाम बातें विजयी पक्ष पर बेअसर हैं। वो तो कहते हैं, ‘लो जी हम जीत गये, चुनाव आयोग की मुहर लग चुकी, कर लो जो करना हो।‘
आप शक पैदा करते रहिए कि चुनाव में सत्ता समर्थक साइबर योद्धा, सोशल मीडिया पर बीजेपी का स्लीपर सेल सक्रिय था। गुजरात पुलिस तक को यूपी चुनाव में उतार दिया, सत्ता को सलाम करनेवाले नौकरशाहों का नेटवर्क सक्रिय था। फ्री राशन पाने वाले एक-एक व्यक्ति को इन्होंने पकड़ रखा था।
हिंदुत्व, राम मंदिर, मतदाताओं का घ्रुवीकरण, इन सारे प्रक्षेपास्त्रों को एक के बाद एक करके ये छोड़ते गये। इस चक्रव्यूह को तोड़ने में प्रतिपक्ष का कोई ‘अभिमन्यु’ सफल नहीं हुआ, तो अफसोस का फायदा क्या? आप ये भी पूछ सकते हैं कि आखि़री चरण में सरकार समर्थक मीडिया अपने प्रसारण का 80 फीसद कंटेंट यूक्रेन युद्ध को केंद्रित कर जो कुछ टीवी पर चला रहा था, क्या घ्यान बंटाने वाली रणनीति का हिस्सा था?
जेपी नड्डा को कैसे मालूम कि हम केवल चार राज्यों में सरकार बनाने जा रहे हैं? कुछ तो गड़बड़ है। मगर, सुबूत नहीं है, तो शालीनता से स्वीकार कीजिए कि वो जीत चुके।

पहले से ही मीडिया की बदनाम गली में ‘पग घुंघरू बांघ मीरा नाची रे‘ वाला सीन दिखने लगा। गली-कूचे और सोशल मीडिया पर ‘मैंने कहा था न, वही हुआ‘, वाले लाखों मिल जाएंगे। ईवीएम के ज़रिये बेइमानी की बात करेंगे, तो पलट कर उत्तर मिलेगा, ‘ऐसा है, तो पंजाब में भी एनडीए को आ जाना चाहिए था।‘ पंजाब में पराजय दिखाओ, उससे पहले बंगाल, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश में प्रतिरोधियों की जीत का उदाहरण देकर ईवीएम पर ऊंगली उठाने वालों के मुंह बंद करा दो।
अगर, वास्तव में ईवीएम- वीवीपैट चुनावी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो इसका इस्तेमाल प्रतिपक्ष सिगरेट के डिब्बे पर अंकित चेतावनी जैसा क्यों कर रहा है? करो न सबलोग मिलकर ईवीएम का बहिष्कार। घोषणा कर दीजिए कि मतपत्र लाओ, तभी चुनाव में आयेंगे। दरअसल, प्रतिपक्ष मीठा-मीठा, गप-गप वाले गुलगुले का आदी हो चुका है।

इस चुनाव परिणाम से जिसकी लकीर छोटी हुई है, वो हैं ममता बनर्जी। पहली जनवरी 1998 को तृणमूल कांग्रेस की स्थापना हुई थी। बंगाल से बाहर अरूणाचल में छकत अबोह तृणमूल की इकलौती एमएलए हैं। इस समय असम में टीएमसी का कोई एमएलए नहीं है।
अगस्त 2021 में सिल्चर से कांग्रेस सांसद रहीं सुष्मिता देब ने तृणमूल ज्वाइन किया था। 2012 में तृणमूल कांग्रेस के आठ विधायक मणिपुर में चुने गये थे। 2017 में केवल एक तृणमूल विधायक चुना जा सका था। 2022 आते-आते मणिपुर में तृणमूल शून्य पर चली गई। मेघालय में कांग्रेस से टूटकर आये 11 विघायकों के साथ तृणमूल प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है।
2018 के चुनाव में त्रिपुरा में तृणमूल के सभी 24 प्रत्याशी हार चुके थे। 24 साल हो गये इस पार्टी के, मगर यह केवल बंगाल तक महदूद है। उत्तर भारत व दक्षिण में तृणमूल कुछ ख़ास नहीं कर पाई। थोड़े से पांव पसारे, वो केवल पूर्वोत्तर में ही। 2022 के गोवा चुनाव में तृणमूल का एक भी प्रत्याशी नहीं जीत पाया, जबकि वहां आम आदमी पार्टी के दो प्रत्याशी सफल हुए हैं।

आम आदमी पार्टी की स्थापना के केवल नौ साल हुए हैं। इन नौ वर्षों में यदि उसकी सरकार दो राज्यों में दिखने लगी, तो इसका मतलब यह होता है कि उसका मनोबल बढ़ चुका। दूसरा, निहितार्थ यह निकाला जा रहा है कि सत्ता पक्ष से मोर्चा लेने के मामले में अरविंद केजरीवाल ने ममता बनर्जी की लकीर छोटी कर दी।
राज्यसभा में आम आदमी पार्टी के तीन सदस्य हैं, तो पंजाब कोटे से रास की सात सीटों के कारण इसकी संख्या बढ़ेगी। लोकसभा में पंजाब की 13 सीटें हैं। 2014 में पंजाब से लोकसभा की चार सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने 2019 के चुनाव में नौ राज्यों में 40 प्रत्याशियों को उतारकर पंख फैलाने के प्रयास किये थे, मगर केवल भगवंत मान संसरूर से अपनी सीट बचा पाये थे।
2022 में राज्यसभा की 75 सीटें ख़ाली होंगी, आम आदमी पार्टी के अच्छे दिन उच्च सदन में आ सकते हैं।

भगवंत मान को एक पियक्कड़ प्रत्याशी के रूप में जिन लोगों ने प्रस्तुत किया था, वो भूल गये कि पंजाब में ‘कुक्कड़ और चुक्कड़‘ वहां के रोज़मर्रे का हिस्सा रहा है, इसलिए मतदाताओं ने इसे अनसुना कर दिया। अरविंद केजरीवाल को अब सफाई देने की ज़रूरत नहीं कि वो ‘खालिस्तान वाले पंजाब के पीएम‘ बनने की ख्वाहिश रखते हैं।
पंजाब जैसे संवेदनशील, सीमांत सूबे में काम करना, दिल्ली से अधिक चुनौती वाला है। अच्छी बात यह है कि जिन तथाकथित दिग्गजों ने पंजाब की राजनीति को अपने हुज़रे में बंद कर रखा था, वो लुढ़क चुके हैं। पंजाब की राजनीति को एक खुली हवा मिली है, वो कौन सी दिशा में मुड़ेगी, इसपर फौरन निष्कर्ष देना जल्दबाज़ी होगी।
प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में प्रतिपक्ष खेमे से किसका क़द बड़ा हो रहा है? नौ वर्षों में दो राज्यों में विस्तार करने वाली आम आदमी पार्टी, या कि 24 साल में केवल बंगाल तक अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने वाली तृणमूल? बंगाल कोटे से लोकसभा की 41 सीटें हैं, जिसमें तृणमूल के 22 सांसद हैं।
इस वजह से ममता बनर्जी के क़द को कमतर नहीं आंक सकते। राज्यसभा में भी आम आदमी पार्टी के तीन सांसदों के मुकाबले तृणमूल के 13 सभासद हैं। निश्चित रूप से ममता बनर्जी ख़ूब लड़ी मर्दानी वाली है। मगर, क्या केजरीवाल उस तेवर में आ सकेंगे?

अरविंद केजरीवाल किसी ज़माने में सड़क पर धरने पर बैठ जाते थे, मोदी को ललकारते थे। कालांतर में केजरीवाल कठोर से नरम होते चले गये। उनका राष्ट्रवाद, बीजेपी के राष्ट्रवाद का विकल्प दिखता है। यमुना तट पर जब केजरीवाल, अपनी कैबिनेट व परिवार समेत दीपावली पूजन करते हैं, वो वाला दृश्य अयोघ्या में दीपोत्सव के समानांतर दिखता है।
केजरीवाल का तीर्थाटन कार्यक्रम सॉफ्ट हिन्दुत्व का ही हिस्सा लगता है। चुनांचे, बीजेपी को पंजाब में आम आदमी पार्टी की उपस्थिति को लेकर कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। बीजेपी के रणनीतिकार आम आदमी पार्टी के हरावल दस्ते को कांग्रेस के बचे-खुचे राज्यों की ओर मोड़ देना चाहेंगे, ताकि ‘कांग्रेस मुक्त भारत‘ वाले अभियान की धार और रार दोनों बनी रहे।
जो बात ज़ेरे बहस होगी, वह है कांग्रेस का अस्तित्व। क्या कांग्रेस को ऐसे ही चलते रहना है, या उसके साफ्टवेयर-हार्डवेयर बदले जाएंगे? यूपी की चुनावी विसात न तो पंजाब थी, न ही पुड्डूचेरी।
यहां उस चेहरे पर दांव लगा था, जिसमें इंदिरा गांघी का अक्स कांग्रेस कार्यकर्ता ढूंढ रहे थे। यूपी में कांग्रेस की पूरी रणनीति प्रियंका केंद्रीत थी। गोवा में 11 सीटें लाने के पीछे राहुल गांधी और पी. चिदंबरम की रणनीतिक विफलता पर क्यों नहीं सवाल पूछा जाना चाहिए? पंजाब तो कांग्रेस की कलह का केंद्र था, फिर भी ग़लतफहमी थी, कि मतदाता इसे इग्नोर कर सिद्दू-चन्नी को सिर-आंखों पर रखेंगे। कांग्रेस को कायांतरण की ज़रूरत है, जो लगभग असंभव है।
(चेतना विकास मिशन)

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