प्रो. रविकांत
इतिहास में दर्ज है कि 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि अपने 3 लाख 80 हजार समर्थकों के साथ डॉ. आंबेडकर ने हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया था। 66 साल के बाद आज धम्मदीक्षा पुनः सुर्खियों में है। दरअसल, हिंदुत्व के उभार और आक्रमण के कारण बहुजन समाज बाबा साहब के दिखाए रास्ते की ओर चल पड़ा है। दिल्ली ,जयपुर, लखनऊ सहित अनेक स्थानों पर बौद्ध सम्मेलन हो रहे हैं। इनमें बाबा साहब द्वारा दिलाई गई 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराया जा रहा है। बौद्ध संगठनों का दावा है कि हजारों की संख्या में हिंदू बौद्ध धर्म की ओर लौट रहे हैं। इससे हिंदुत्ववादी गिरोह में बौखलाहट है। इसी क्रम में दिल्ली में हिंदुत्व के नए झंडाबरदार अरविंद केजरीवाल के दबाव में 22 प्रतिज्ञाएं दुहराने वाले राजेंद्र पाल गौतम को मंत्री पद से इस्तीफा तक देना पड़ा।
अछूत होने के दंश को सहते हुए डॉ. आंबेडकर अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण इंग्लैंड और अमेरिका उच्च शिक्षा के लिए गए। भारत लौटने के बाद डॉ. आंबेडकर अछूतों के दंश को मिटाने के लिए सक्रिय हो गए। कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन के साथ में दलितों वंचितों के सामाजिक-आर्थिक आजादी के सवाल को उन्होंने मुखर किया। ‘जाति का विनाश’ के प्रकाशन से लेकर तमाम आंदोलनों और सभा-सम्मेलनों में बाबा साहब इस विचार को बार-बार दुहराते हैं कि हिंदू धर्म में रहते हुए दलित मुक्त नहीं हो सकते। हिन्दू धर्म असमानता, अन्याय, अपमान और शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था है। जाति और वर्ण के रहते हुए दलितों की आजादी संभव नहीं है। अक्टूबर 1935 में येवला में डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधियों के एक सम्मेलन में डॉ अंबेडकर ने ऐलान किया कि वे “हिंदू होकर पैदा जरूर हुए हैं लेकिन हिंदू होकर मरेंगे नहीं।” दो दशक बाद उन्होंने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म अपनाया। इसे उन्होंने दलितों की घर वापसी माना।
दरअसल, डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘क्रांति और प्रति क्रांति’ में लिखा है कि पुष्यमित्र शुंग और अन्य हिंदू शासकों ने वर्ण व्यवस्था को कठोरता से लागू किया। बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम करके बौद्ध धर्मावलंबियों को अछूत बनाया। वही अछूत आज का दलित है। डॉ. आंबेडकर के इस मत के अनुसार हिंदू धर्म छोड़कर दलित अपने मूल बौद्ध धर्म की ओर लौट रहे हैं।
लेकिन यहां एक दूसरा प्रश्न उठाया जा रहा है। संविधान लागू होने के बाद, क्या वास्तव में आंबेडकर को धर्मांतरण की आवश्यकता थी? 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अपने आखिरी भाषण में आंबेडकर ने कहा था कि वह अनुसूचित जातियों-जन जातियों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान सभा में आना चाहते थे। लेकिन जब उन्हें प्रारूप समिति का सदस्य बनाया गया तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इससे भी ज्यादा आश्चर्य तब हुआ जब सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर जैसे वरिष्ठ सदस्य के बावजूद उन्हें इसका अध्यक्ष चुना गया।
बहरहाल, अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया। अवसर की समानता के मूल अधिकार में आरक्षण का प्रावधान करके दलितों, आदिवासियों के अधिकारों को संरक्षित कर दिया गया। इसके बाद भी बाबा साहब धर्मांतरण करते हैं। क्या उन्हें अपने ही बनाए संविधान पर भरोसा नहीं था? अथवा कोई और कारण था, जिसे वह भांप रहे थे।
विदित है कि भारत को आजादी विभाजन के साये में मिली। विभाजन के समय सीमा-सरहद के इलाकों में भयानक मार-काट हुई। लाखों मौतें हुईं और मानवीय इतिहास का सबसे बड़ा पलायन भारत को सहना पड़ा। इस माहौल में हिंदुत्ववादी शक्तियों ने नफरत, हिंसा और विभाजन की दीवारें खड़ी कर दीं। पाकिस्तान से आने वाले सिखों और हिंदुओं को भारत में रह रहे मुसलमानों के खिलाफ भड़काया गया।
हिंदू महासभा, आरएसएस तथा अन्य कट्टरपंथी हिंदू संगठन देश की आजादी को पचा नहीं पा रहे थे। इसलिए वे अराजकता और विभाजन पैदा करके आजाद भारत को अस्थिर करना चाहते थे। दरअसल, उनकी मंशा भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की थी। हिंदू राष्ट्र का मतलब वर्ण व्यवस्था तले सवर्णों का शासन और वर्चस्व होता। लेकिन लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था में साधारण जनों के हाथ में शासन सत्ता की बागडोर आती देखकर सवर्ण हिंदुत्ववादी शक्तियों का बेचैन होना स्वाभाविक था। इसलिए ये शक्तियां संविधान सभा से लेकर संसद के बाहर और शहरों में अवरोध पैदा कर रही थीं।
स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी चुनौती विभाजनकारी सांप्रदायिक और वर्णवादी शक्तियों को रोकना था। इस बीच 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी। समाजशास्त्री आशीष नंदी का कहना है कि गांधी की हत्या उनका आत्म उत्सर्ग है। हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ गोडसे के रिश्ते बेपर्दा हो गए। हिंदू महासभा की छवि धूल में मिल गई। आरएसएस को बैन कर दिया गया। गांधी की हत्या ने इन सांप्रदायिक ताकतों को पृष्ठभूमि में जाने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद दूसरा मुकाबला जवाहरलाल नेहरू ने किया। चुनावी जमीन पर मात देने के लिए नेहरू ने मोर्चा संभाला। 1952 का पहला आम चुनाव हिंदुत्व बनाम राष्ट्रवाद का कुरुक्षेत्र बन गया। नेहरू ने चुनावी प्रचार की शुरूआत पंजाब से की। लुधियाना की 5 लाख की जनसभा में नेहरू ने चेतावनी देते हुए कहा, “ये शैतानी सांप्रदायिक तत्व अगर सत्ता में आ गए तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव लेकर आएंगे।”
बंगाल की एक चुनावी सभा में नेहरू ने जनसंघ को आरएसएस और हिंदू महासभा की ‘नाजायज औलाद’ तक कह दिया। नेहरू अपनी हर सभा में जनता से पूछते थे कि उन्हें कैसा भारत चाहिए, पाकिस्तान जैसा धार्मिक राष्ट्र या बहुसांस्कृतिक धर्मनिरपेक्ष भारत? पहली बार मतदान करने वाले भारतीय नागरिकों ने बहु सांस्कृतिक धर्मनिरपेक्ष भारत को चुना। कांग्रेस को बड़ी सफलता मिली। चुनाव के जरिए नेहरू ने हिंदुत्व को बौना साबित कर दिया।
गांधी और नेहरू से भी ज्यादा हिंदुत्व का खतरा आंबेडकर और उनके समाज के लिए था, जिसकी खातिर वे जीवन भर जूझते रहे। इसका सबसे विध्वंसकारी प्रभाव दलित वंचित और स्त्री समाज पर होना था। आंबेडकर बहुत पहले से इसका मुकाबला कर रहे थे। 1940 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में और अपनी किताब ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ में आंबेडकर ने बड़ी मुखरता से कहा था कि “हिंदू राष्ट्र देश के बहुजनों के लिए आपदा साबित होगा। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” डॉ. आंबेडकर ने इसका मुकाबला करने के लिए 1956 में दीक्षाभूमि में क्रांति का बीजारोपण किया। उन्होंने हिंदू धर्म को त्यागकर सिर्फ बौद्ध धर्म अपनाया ही नहीं, बल्कि हिंदू धर्म की मान्यताओं को पूरी तरह से खारिज किया।
डॉ. आंबेडकर के धर्मांतरण को लंबे समय तक महज एक घटना के रूप में देखा गया। आज इसके मायने समझ में आ रहे हैं। उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से संपोले हिंदुत्व के खतरे को भांप लिया था। इसीलिए उन्होंने इसके जहरीले अभियान का मुकाबला करने के लिए एक वैचारिक रास्ता दिखाया। 22 प्रतिज्ञाएं क्रांति की मशाल की तरह प्रज्वलित हो रही हैं। इसीलिए हिंदुत्ववादी भय और बेचैनी के कारण नफरत भरी भाषा में धर्मांतरित दलितों को आरक्षण से महरूम करने की धमकी दे रहे हैं। गोया, आरक्षण कोई खैरात है और भारत उनकी बपौती!
इस प्रकार डॉ. आंबेडकर का धर्मांतरण महज एक घटना नहीं, बल्कि बहुजन क्रांति का बीजारोपण था। इसके प्रभाव का अनुमान हिंदू महासभाई सावरकर की प्रतिक्रिया से लगाया जा सकता है। विदित है कि डॉ. आंबेडकर ने जब हिंदू धर्म त्यागने का ऐलान किया था, तब हिंदू महासभा और दूसरे हिंदुत्ववादी संगठनों ने डॉ. आंबेडकर के विचार से सहमत होते हुए उन्हें सिख धर्म अपनाने की सलाह दी थी। लेकिन जब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया तो हिंदुत्ववादियों की छाती पर सांप लोटने लगे। 30 अक्टूबर, 1956 को “केसरी” में सावरकर ने लिखा, “डॉ. आंबेडकर ने अपने कुछ लाख अनुयायियों के साथ जो संप्रदाय बदल किया था या उसे वे चाहें तो धर्मांतरण कहें, बौद्ध धर्म के लिए उनके मन में कोई प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न हुई, इसलिए नहीं किया। उनके मन के अंधियारे कूप में एक हिंदू राष्ट्रघाती महत्वाकांक्षा छिपी बैठी है।” इतना ही नहीं, ‘बौद्ध धर्म स्वीकार कर तुम असहाय हो जाओगे’ शीर्षक आलेख में सावरकर ने बेहद अपमानजनक और घृणास्पद भाषा में लिखा, “डॉ. आंबेडकर नामक व्यक्ति भिक्षु आंबेडकर हो जाए तो भी किसी हिंदू को किसी तरह का सूतक नहीं लगने वाला है। न हर्ष न विमर्श, जहां स्वयं बुद्ध हार गए, वहां आंबेडकर किस झाड़ की पत्ती हैं।”
आज हिंदुत्ववादी सत्ता में हैं। वे डॉ. आंबेडकर की चित्र पर माला चढ़ाकर उनकी जयंती मनाते हैं। पंचतीर्थ बनाकर वे दलितों को भ्रमित करके उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। जबकि डॉ. आंबेडकर के विचारों के प्रति उनके मन में कोई श्रद्धा नहीं है। असली भावना सावरकर के शब्दों में छिपी है।