(भगवान पारसनाथ पर- ‘आत्मरथी’ बांछड़ा समस्या पर- ‘मालजादी’ जैसे उपन्यासों के लेखक, मालवांचल के साहित्यकार डॉ मंगल मेहता की 16 जून को 13वीं पुण्यतिथि है। इस अवसर पर उनकी कहानी जो ‘डॉ. मंगल मेहता की कहानियां भाग -6’ से उनके सुपुत्र विवेकरंजन मेहता के सौजन्य प्राप्त हुई यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।- संपादक)
दुनिया की निगाह में उसकी मौत के बाद लाश में ‘रोब्बे’ पड़ने वाले थे। उसके सौतेले बाप और सौतेले भाई ने उसे अग्नि देने से इनकार कर दिया था। कह दिया- उसका इस घर से संबंध नहीं रहा। इसके उत्तर में कहने वालों ने भी कहा- इसकी मां जब छ:-सात भैंसे, सामान-अबसाब, नगदी- जेवर लेकर घर में घुसी थी तो संबंध था। वह औरत तो तुम्हें पति मानती थी। तुमने उसे तो आग दी थी। अरे भाई, जायदाद हजम हो जाए, डकार आ जाए तब तक का तो ख्याल रख लो।
इन लोगों ने गांव के लोगों से कहा। गांव वालों ने गांव की ओर से उसकी दाह क्रिया करने का निर्णय लिया। एक वृद्ध ने कहा- ‘देखते क्या हो, गाजे-बाजे से निकले इसकी बारात। सैकड़ो नारियल इकट्ठा हो गए और ठाठ से उसकी मिट्टी ठिकाने लगी। वह किसी एक घर का तो था नहीं। जब एक दल का कर्मठ कार्यकर्ता था, तब भी और जब पगला गया था, तब भी। बेघर था, कुछ न कुछ काम करता ही रहता था। बैंड उसने बजाया, झाड़ू उसने लगाई, मेहनत मजबूरी भी की, हम्माली तक की, किसी के भी घर कुछ भी खा लिया। पागलपन के दौर में भी बहुत बड़बड़ाता था। सिद्धांत फटकारता था। गांव, क्षेत्र के नेताओं को गालियां सुनता था। उनके भ्रष्टाचार, कदाचरण उजागर करता था। जाति का मोह उसे रह नहीं गया था।
कौन था वह? नाम का मोह छोड़ो। अकबरसिंह नाम दे दो या गिरीलाल कह दो- जो मर्जी आए वह। 11-12 साल का गावदी सा लड़का ढीला ढाला कुर्ता और चड्डी पहने गांव में डोल रहा था। नया-नया आया था। उसकी परवाह किसी को नहीं थी। पहचान भी नहीं थी। घर में भी किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था। उसके गांव में उसके पिता का देहांत होने के पश्चात उसकी मां का इस भूतपूर्व सिपाही से परिचय हो गया। वह आने जाने लगा। ‘रगपट्टा’ जमा। और मां खेत-मकान बेचकर यहां आ रही। सिपाही ने नौकरी छोड़ दी। कौन सरकारी झंझटों में फंसे। खुसर-पुसर चलती रही। इत्ता बड़ा लड़का और लड़की लेकर चल दी। उसे अब चाहिए क्या था? उस लड़के को इतना भर याद है कि वह वहां भी भैस चराता था और यहां भी चराने लगा। वहां सबसे घुला-मिला था, अपनावा था और यहां अजनबी था, उखड़ा उखड़ा था। सब उसे ‘बाखड़ा’ कह कर बुलाते थे। वह सुनता था, मतलब नहीं समझता था। इतना जानता था कि यह अपमानजनक शब्द है। और उसे अपनी मां के कारण सुनाया जा रहा है। ढोर चराने वाले छेडते- ‘छोरे तुझे बाप की याद नहीं आती? पर वे तो मर गए।’- इस समय मां का भी ख्याल आता पर कुछ बोल नहीं पाता।
‘नया बाप कैसा है?’
‘तेरी मां ने और भी बनाए बनाए हैं क्या -नये बाप?’
‘तेरी मां वहां से सब बेंच बाचकर मालमत्ता लेकर इस सिपाही के घर आ बैठी है न। तेरी एक और मां है न यहां?’
वह उनकी और टुकुर-टुकुर देखता करता।
‘किस्मत वाला है सिपाही। मालमत्ता मिला, लुगाई मिली, दूध पीने को भैंस मिली, उन्हें चराने को बाखड़ा मिल गया। चरा भाई, भैंसे खूब चरा।’
विवश हो रहता। खीजकर रह जाता।
एक दिन उसने जिद पकड़ ली- ‘नहीं चुराऊंगा भैंसे।’
‘क्यों?’
‘मदरसे जाऊंगा’-मां को अचरज हुआ। बोली- ‘वहां तो मदरसे से भागता था,यहां जाएगा।’
‘हां मन लगाकर पढूंगा। यहां जरूर पढूंगा।’
सिपाही बोला- ‘भैंसे कौन चराएगा?’
‘वे ही जो पूरे गांव की चराते हैं।’
‘ठीक, कल से मत जाना।’- कुछ क्षण बाद सोच कर मां ने कहा था। सिपाही कुढ़ कर रह गया। यह उसके जादू के बाहर की बात हो गई थी।
स्कूल कुछ साल गया होगा। फिर दर्जी गिरी सीखने लगा। गांव में लोहियावादी पार्टी का आंदोलन चला तो उसमें काम करने लगा। सक्रियता और निष्ठा से। बाहर से नेता आते, बातें समझाते, स्नेह जताते, पढ़ने को किताबें देते। वह पढ़ता था। उसे जैसे नया आकाश मिल गया। उसके तर्कों को, मन को नया आधार मिल गया। रूढ़ियों के विरोध में यह दल कार्य करता था। अब उसके व्यवहार में एक प्रकार की प्रखरता आ गई थी। आसपास के गांव में वह नेता मान लिया गया था। समाज यह सब नहीं सहता। उस पर व्यंग किए जाने लगे। उसे परवाह ही क्या थी? नई जमीन जो मिल गई थी। मामा बालेश्वर दयालजी जब समाजवादी दल के अध्यक्ष बने तो जैसे आंदोलनों को तीव्र गति ही मिल गई। वह भी इन आंदोलनों के अखिल भारतीय स्वरूप से जुड़ गया। बिना मुनाफे की खेती का लगान बंद करो, छोटे किसानों को खेती की सब सुविधा दो, खेतीहर मजदूर की सुध लो, देश की बोली में देश का कामकाज हो आदि मुद्दों को लेकर गांव गांव में आंदोलन का अलख जगाने लगा। कई लोगों के साथ वह भी जेल गया। निष्ठावान कार्यकर्ताओं, नेताओं से जुड़ गया। नया विश्वास जागा- वोट, फावड़ा और विचार।
दूसरे दलों को यह अपने यहां सेंध मारी लगी। सत्ता सुख छिन जाने का भय लगा। परास्त करने के लिए पूरी तैयारी की जाने लगी। बेचारे, भारत मां का कल्याण करेंगे, अपनी मां को ही सुधार ले।
बाहरी तत्व आकर गांव का माहौल बिगड़ रहा। गांव का ही नहीं चारों ओर का। शांति भंग कर रहा। आपस में झगड़े करवा रहा। मजूरों को भड़का रहा। हल्दी फकवा दो। कुछ करो।
ईर्ष्या विरोधियों में ही नहीं पनप रही थी। उसके दल में भी कुछ लोगों में इसके तंतु विकसने लगे थे। पंचायत में बैठना मुश्किल कर देगा। यह क्यों, वह क्यों, हजार प्रश्न खड़े करेगा। अभी से निपट लेना जरूरी है।
और हिसाब चुका लिया गया। गांव के एक खलिहान में आग लगी। कुछ लोगों के साथ वह भी फंसा दिया गया। उसने आग न लगाई हो, भड़काया तो अवश्य ही है। पुलिस को खबर कर दी गई। तुम इसके साथ चाहे जो सलूक करो, तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।
गांव में माहौल बनाया गया अपराधियों के साथ संबंध रखते हो तो आंच आएगी ही। यह सांपों को दूध पिलाना है।
वह कहता था- अपराधी जन्म से नहीं होता। अपराधी समाज बनाता हैं। अपने टुच्चे स्वार्थों के खातिर। बच्चू जी तुम्हारी जूती तुम्हारे ही सिर- खूब हंसी हो रही थी उसकी। पुलिस के कारनामों का विरोध तो दर किनार रहा ऊपर से उसके अत्याचारों का इस रूप में समर्थन, बड़ा विषाक्त वातावरण बन रहा था।
स्नेह से वंचित वह स्नेह के महत्व को मन की गहराई में महसूस करता था और आज यह स्थिति। पुलिस की परवाह उसे नहीं थी। मारपीट की भी परवाह नहीं थी। पर इस कारण भीतरी ही भीतर उबाल खा रहा था, चिढ़ता ही चला गया। विरोधियों से तो निपटा जा सकता है पर इन अपने बने लोगों से कैसे जूझे?
लोग सोच रहे थे- वह अभी भी उनके वश में नहीं आया। और तरकीबें जरूरी लगी।
उसकी बहन की सगाई में रुकावटें डाली जाने लगी। मां चिंतित थी। और इस बाप को एक कारण मिल गया। उसकी खूब खिलाफत करने लगा। उसे लगने लगा- यहां से दूसरी जगह चला ही जाए। एक दिन बिना किसी को बताएं वह चल भी दिया।
बहन की शादी के अवसर पर घर आया तो उसकी खूब फजीहत हुई। सबने की, उसने अपनी बहन को सिलाई मशीन देने की पेशकश की तो इसका विरोध किया गया। उसने कहा- ‘मैंने तय कर लिया है तो दूंगा ही। तुम बीच में कहीं नहीं हो।’
एक ने कहा- ‘रुपए दे दो।’
‘रुपए उसके पास अपने होकर रहेंगे भी!’
उसकी ससुराल वालों ने विरोध जताया था।
‘आप लोग दूसरा सामान ले जा रहे हैं हो तो इसे भी ले जाओ। इसके लिए मना करने का क्या तुक।’
‘पर मशीन चलाना तो आए।’
‘मैं जानता हूं उसे मशीन चलाने आता है। छोटा-मोटा काम कर लेगी।’
‘यह खेती का काम करेगी की मशीन चलाएं?’
‘मशीन देने का यह कतई मतलब नहीं कि वह खेती का काम नहीं करें।’
‘तुमसे कोई क्या जिद करें।’ -पास खड़े व्यक्ति ने कहा।
‘अरे भाई, इसमें बोलने जैसी बात ही नहीं है।’-और वह खिसक लिया था।
तालाब के दूसरे किनारे के पांचखेत की ओर चल दिया। कहां चला आया? कितनी फजीहत? तो क्या बहन की शादी में भी नहीं आता? उछांह में सवेरे जल्दी चल पड़ा था। खाना खाया नहीं था और अब रात हो गई। किसी ने खाने को तो ठीक, पानी तक को नहीं पूछा। बात चलेगी भी तो चालकी से कह देंगे- तुम्हारा घर था, किसने हाथ पकड़ा था। पर अवज्ञा ही क्या कहो? मन में चुभती तो यही है। जन्म से लेकर आज तक की घटनाओं पर सोच गया। कलेजा टीसता रहा। पर इससे भी क्या बनेगा?
अंधेरे में वापस लौट आया। दूसरे मोहल्ले में एक मित्र के यहां रात काट लेगा और प्रभात में चल देगा। पर रास्ते में रामेसर मिल गया। -‘अरे तुम इधर किधर? तुम्हें तो घर, व्यवस्था में होना चाहिए था।’
उसने उसकी ओर देखा और कुछ पल के पश्चात मुस्कुरा दिया। बोला- ‘वे तुम्हारे भी तो करीब के हैं। तुम क्यों नहीं गए? तुम तो हर काम में सलाहकार रहे।’
‘हां पहले कभी निकटता थी। जब से उसने तुम्हारी मां को पीटा, उससे दो हजार रुपए और लगभग डेढ़ तोला सोना झटका तब से मेरे मन से उतर गया।’
इसे सुन उसे धक्का लगा। सिलसिला शुरू हुआ तो अंत कहां है? इस सिपाही के बच्चे के कौन से गुण पर उसकी मां रीझी? एक बार संबंध बन गए तो बन गए होंगे, उसे जन्म जिंदगी तक चिपकाए रखने की क्या तुक। प्रकट में बोला- ‘वह पीटता तो पहले भी था। मैं तो यहां था नहीं। मुझे किसी बात की जानकारी नहीं। अब तुमने बताया तो जानकारी लूंगा।’
पूछने से भी क्या होगा कब घटी यह घटना।
‘चलूंगा’- और वह गली में बढ़ लिया।
किससे पूछे? चलो गणपत के यहीं। शायद वहीं कुछ मालूम हो।
बारात जब विदा होने को थी तब मां किसे बहाने से गणपत के घर आई थी। उससे कह गई थी- ‘सवेरे वापस न जाए।’ और रोने लगी थी। अब कम से कम दोपहर तक तो उसे रुकना ही था।
जब चाय पी रहे थे तो गणपत की दादी उसके पास आ बैठी थी। कहने लगी- ‘कल कुछ खाया भी था?’
‘उपास रखा था।’- हंसा।
‘तुम जानते भी हो उछांह में यह सब अच्छा भी लगे पर…’
वह चाय पीता रहा।
‘तुम्हारी मां ने यहां का आकर ठीक नहीं किया। घर ही बिखर गया’- कह दादी ने निश्वास ली।
वह दूसरी ओर देखने लगा। उसने मुश्किल से मन को संभाला। बोला-‘यह सब अपने वश में नहीं। अभी भी कहा है?’
गणपत बाहर चला गया,गाय भगाने। दादी माला फेरने लगी। वातावरण बोझिल हो गया था।
‘चलूं कुएं पर नहा आऊं।’
‘नहाना मुझे भी है। मैं भी चलूंगा। कुछ देर ठहरो तुम्हारी भाभी ने पोहे बनाए हैं। अबकी बार शहर गया था तो ले आया था।’
फिर दोनों बागड़-बांसवाड़ा की तरफ की बातों में लग गए।
शाम को उसकी मां ने आकर रोना रोया- ‘वह कपड़ों की भांति मुझे पीटता है। हाड़-हाड़ दरकता है। मेरी सोने की बालियां छीन ली। शादी के बहाने मुझसे ढाई हजार रुपए भी ले लिया।’
‘शादी में जरूरत होगी। तुमने नहीं देना चाहा होगा। पीटा होगा।’-निर्लिप्त रहकर उसने कहा।
‘उसने कई बार पीटा। ऐसे कैसे रहूं साथ।’
‘यह तो तुम्हें गांव छोड़ने से पहले सोचना चाहिए था। अब बात तुम्हारे हाथों में रही नहीं। कई साल हो गए यहां आए हुए। जैसा है निभाओ।’
‘तुम तो मुझे कोसने लगे?’
‘मैं तो अपनी किस्मत को भी नहीं कोसता। तुमने मेरा ध्यान रखा था? बहन का रखा था? फिर मुझसे चाहना क्यों रखती हो?’
वह रोने लगी थी, रोती ही रही। बोली- ‘कोई कितना भी बुरा क्यों ना हो पर मां-बेटे के संबंध खत्म तो नहीं होते हैं न।’
गणपत, उसकी पत्नी, उसकी दादी सुन रहे थे। बोले तो क्या?
‘हां संबंध, तब खत्म नहीं होते जब कुछ सामान्य हो।’
वह रोना भूल गई। तिरछी निगाहों से उसकी ओर देखा। देखती ही रही। बोली- ‘तुम यहीं रहो। यही कोई धंधा कर लो।’
‘हां, यहीं रहो।’- दादी बोली।
‘मैं तो यहीं रहता था। इन्हीं लोगों ने भगाया।’
‘मैं क्या कर सकती थी। तुम ही बोलो?’
‘तुम आगे भी कुछ नहीं कर सकोगी। मैं मदारी का बंदर नहीं बनना चाहता।’
वह फिर रोने लगी। बड़े निर्दयी हो। माफ नहीं कर सकते।’- वह माथा पीटने लगी। ‘भगवान मुझे उठाले’
गणपत की पत्नी ने आकर उसे संभाला, उठाया, रोका, पानी पिलाया।
‘यह क्या बे अक्ली है?’- दादी चिढ्ढी।
‘कुछ दिन यहीं रह भी जाओ यार’- गणपत बोला।
‘मेरे पास रुपए भी तो होना चाहिए। अभी तक जो बचाया मशीन खरीद ली। मैं खाता हूं या भूखा ही सो जाता हूं कभी पूछा भी?’
‘साथ रहोगे तो ही जानूंगी ना।’
‘खूब कहीं पूज्य माताजी ने’- वह हंस पड़ा।
वह कट गई। एक रिक्तता छा गई थी उनके बीच में।
कुछ समय बाद ही वह कहने लगी- मैंने परोतों की गुवाड़ी में एक कोठरी ले ली है। साथ रहो। रुपए जब हो तब देने लगना।’
‘यह ठीक है’- गणपत की पत्नी बोली।
‘पर और कोई बखेड़ा न कर देना छोरे के साथ’- दादी बोली।
उसने तिरछी दृष्टि से दादी की ओर देखा। फिर लपक कर दादी मां के पैर पकड़ लिए। दादी मां पीछे हटी- ‘बस भी करो। यह अच्छा नहीं लगता।’
वह पैर पकड़े ही रही। बोली- ‘आप तो इसके मन में अविश्वास न उपजाएं।’
‘रहो, यहां रहो। एक आध पखवाड़ा ही सही।’- गणपत बोला।
‘यहां आ जाना। खाना भी खा जाना।’
गणपत की पत्नी बोली- ‘मन ना लगे तो चल देना।’
‘यह ठीक है।’- गणपत फिर बोला।
उसे घेर लिया गया था। कोई चारा नहीं था। और इस साथ रहने का मतलब भी शीघ्र उजागर हो गया। उसकी मां ने उसे रोटी में कुछ खिला दिया।
वह तड़पता धरती पर लौट रहा था। दर्द में चीख रहा था। गणपत, रामेसर और सभी हरकत में आ गये थे। क्या करें, क्या न करें। पुलिस का लफड़ा, कानून का लफड़ा और उसे बचाना जरूरी था।
तभी दादी वहां लपकी हुई आई। कहने लगी- ‘उसे बचाना ही है। पुलिस के झंझट में ना पड़ो। रपट से कुछ नहीं होगा। हां, यह जरूर मर जाएगा। देरी के कारण, हे भगवान, हे राम।’ कुछ क्षण बाद कड़क कर बोली- ‘खड़े-खड़े क्या देख रहे हो जाओ गांव के कंपाउंडर को ले आओ। उसे भरोसा देना। कहना, कुछ नहीं बिगड़ेगा उसका। दवा भर दे दे। दादी यहां है- यह भी कहना।’- वह खड़ी ना रह सकी। धरती पर बैठ गई।
‘अरे तुम इसे कुछ दो कि कै करने लगे’- उसने फिर कहा। गहरी सांस लेती बोली- ‘कितनी फितरती औरत है यह। कैसा बोल रही थी। नौटंकी कर रही थी। आसूंड़े बहती उन्हीं की बोली बोल रही थी, यह मां है। हे राम…’ गांव के लोगों ने कंपाउंडरनुमा डॉक्टर को साधा। और उसे जल्दी चलने को कहा।
‘पुलिस का मामला है।’
‘अरे रपट होगी तो पुलिस आएगी। किसी को कुछ नहीं करना, तुम तो जल्दी चलो नहीं तो मर जाएगा। भईया पुण्य मिलेगा।’
‘मर जाएगा तो उसे तो रोने वाला भी कोई नहीं है।’
‘दादी मां ने हम सभी को दौड़ाया है यार, वह वहीं बैठी है।’
‘गांव की कुछ सेवा ही कर दो भगवान भला करेगा।’
‘एक दिन इलाज कर देता हूं। तुम्हें शहर ले जाना पड़ेगा।’
दोस्तों की दुआ से, बुजुर्गों की प्रार्थना से, वह मौत से बच गया। शहर का डॉक्टर गणफुले भी भला था। उसने इलाज करते हुए बताया था यह बच तो गया जानो पर किसी काम का नहीं रहेगा। दल के काम का तो बिल्कुल ही नहीं। और वह सिद्धांतों के भाषण झाड़ने लगा। भाषण झाड़ते-झाड़ते सट्टे के अंक बताने का ढोंग करने लगा। स्वार्थ को ही सबसे अधिक महत्व देने लगा। पगला ही गया। फिर उसकी मौत ही हो गई। और तुम जानते ही हो उसकी मिट्टी में रोब्बे पढ़ने वाले ही थे कि गांव वालों ने समझदारी का काम किया।