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संस्कृत के कर्मयोगी…डॉ. पांडुरंग वामन काणे

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आधुनिक समय में भारतीय चिंतन, धर्म और अध्यात्म को लेकर हुए कार्यों में अनेक ऐसे मनीषी हुए हैं,
जिन्होंने इतिहास को रचा ही नहीं, बल्कि भारत को पूरी दुनिया में आदर दिलाया है। वैदिक भाषा के रूप
में यदि आज संस्कृत को विश्व की सभी भाषाओं की जननी माना जाता है और भारत की अति प्राचीन
धर्म संस्कृति को यदि विश्व भर में बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, तो उसमें महान भारतीय
संस्कृतज्ञ और विद्वान पंडित डॉक्टर पांडुरंग वामन काणे के अमूल्य योगदान को कभी भी भुलाया नहीं
जा सकता……

बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अध्ययन की कसौटी पर खुद को कस कर ऐसा काम कर लेते हैं, जो इतिहास
में कभी कभार ही होता है। आधुनिक भारत में पांडुरंग वामन काणे जैसे प्रकांड विद्वान गिने-चुने हुए हैं।
काणे का जन्म एक साधारण मध्यम वर्गीय रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में 7 मई 1880 को हुआ था। काणे
के पिता वामन शंकर काणे तालुका वकील थे। काणे ने हाईस्कूल की परीक्षा एस. पी. जी. स्कूल से पास
की और पूरे जिले में 23वां स्थान प्राप्त किया। उन्होंने 1897 में मैट्रिक परीक्षा पास की। इसके बाद
उन्होंने बीए, एमए, एलएलबी और एलएलएम की परीक्षाएं पास कीं। उन्होंने सात वर्ष तक सरकारी स्कूलों

में अध्यापन किया। लेकिन जब पदोन्नति में पक्षपात किया गया तो उन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे
दिया। इसके बाद वह बॉम्बे उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। वे धर्मशास्त्र के इतिहास पर लिखी
पुस्तक के लिए विख्यात हैं। यहां धर्म से मतलब कानून से है। उनकी इस महान रचना में पिछले 2400
वर्षों के दौरान हिंदुओं के धार्मिक और दीवानी कानूनों की विकास यात्रा का वर्णन है। यह पुस्तक अपने
आप में अनूठी है क्योंकि काणे ने कानूनों की विकास यात्रा का वर्णन करते हुए उनकी गहन समीक्षा की
है। लेकिन इस पुस्तक की रचना की गाथा भी कम रोचक नहीं है।
काणे ने भी नहीं सोचा था कि वे भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास लिख डालेंगे। वे तो संस्कृत में एक ग्रंथ
‘व्यवहार मयूख’ की रचना में लगे थे। उस ग्रंथ को रचने के बाद उनके मन में आया कि पुस्तक का एक
परिचय लिखा जाए, ताकि पाठकों को धर्मशास्त्र के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी हो सके। धर्मशास्त्र की
संक्षिप्त जानकारी देने के प्रयास में काणे एक ग्रंथ से दूसरे ग्रंथ, एक खोज से दूसरी खोज, एक सूचना से
दूसरी सूचना तक बढ़ते चले गए, पृष्ठ दर पृष्ठ लिखते गए। एक नया विशाल ग्रंथ तैयार होने लगा और
भारतीय ज्ञान के इतिहास में एक बड़ा काम हो गया। ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ का पहला खंड 1930 में
प्रकाशित हुआ। उन्होंने ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ पहले अंग्रेजी में लिखा फिर संस्कृत व मराठी में।
‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ के एक के बाद एक पांच खंड प्रकाशित हुए। 1962 में पांचवां खंड आया। 1930 में
जब वे पचास साल के थे, तब धर्मशास्त्र के इतिहास का पहला खंड आया था। जब अंतिम खंड आया, तब
वे 82 वर्ष के थे। लगभग 6500 पृष्ठों के ऐतिहासिक ग्रंथ के अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ प्रकाशित हुए।
उत्तररामचरित से लेकर कादंबरी, हर्षचरित, हिंदुओं के रीतिरिवाज तथा आधुनिक विधि और संस्कृत
काव्यशास्त्र का इतिहास उनकी कृतियां हैं। काणे के अति विस्तृत ज्ञान और उनकी रचना के आधिकारिक
स्वरूप को देखते हुए शासनतंत्र की बहस में आज भी हर पक्ष अपने को मजबूत करने के लिए काणे के
विचारों का सहारा लेते रहे हैं। उनका दृष्टिकोण उदार, आलोचनात्मक और आधुनिक है। उनका मानना था
कि धार्मिक नियम स्थायी नहीं होते। वह छूआछूत, विधवाओं के मुंडन जैसी पुरातन परंपराओं के सदैव
विरोधी रहे। डॉ. काणे संस्कृत के आचार्य, मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति और वर्ष 1953 से 1959 तक
राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। उन्होंने पेरिस, इस्तांबुल और कैंब्रिज के सम्मेलनों में भारत का
प्रतिनिधित्व भी किया। साहित्य अकादमी ने 1956 में उन्हें ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ के लिए साहित्य
अकादमी पुरस्कार दिया। भारत सरकार की ओर से उन्हें ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधि से भी विभूषित
किया गया था।

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