अनिल सिन्हा
हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों, देश के विभिन्न हिस्सों में विधानसभा की छह सीटों और लोकसभा की एक सीट के लिए हुए उपचुनावों ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। गुजरात के नतीजों ने तो राजनीतिक चर्चा में एक जबर्दस्त गर्मी ही ला दी है। यहां मिली बीजेपी की भारी विजय को तरह-तरह से परिभाषित किया जा रहा है।
ज्यादातर विश्लेषणों का सार यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मैजिक बरकरार है और इस मैजिक के 2024 के लोकसभा चुनावों में दोहराने की पूरी संभावना है।
गुजरात में कांग्रेस के बेहद खराब प्रदर्शन ने इस तर्क धारणा के लिए मजबूत आधार दिया है।
हिमाचल में कांग्रेस ने बीजेपी से सत्ता छीन ली है, लेकिन उसे यह बता कर खारिज किया जा रहा है कि वहां हर पांच साल के बाद सरकार बदलने का रिवाज पिछले कई चुनावों से बना हुआ है।
छह विधानसभा सीटों में से चार पर विपक्षी पार्टियों की जीत को भी महत्वहीन करार किया जा रहा है कि ये स्थानीय मामले हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के निधन से खाली हुई उत्तर प्रदेश की मैनपुरी सीट पर उनकी बहू डिंपल यादव की जीत को सहानुभूति की वजह से हुई जीत बताया जा रहा है।
क्या ये विश्लेषण तार्किक हैं? क्या अलग-अलग नतीजों के विश्लेषण के लिए अलग-अलग मापदंड अपनाए जाएं?
गुजरात विधानसभा चुनावम में रेकॉर्ड जीत का जश्न मना रहे बीजेपी कार्यकर्ता
समग्रता में देखने की जरूरत
सभी नतीजों को एक साथ देखने पर मैजिक बरकरार होने का दावा उस प्रचार अभियान का हिस्सा लगता है, जो 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर बीजेपी ने काफी पहले से चला रखा है।
- क्या हम इसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि दो में से एक राज्य की सत्ता बीजेपी ने गंवा दी है? दोनों राज्यों में पार्टी ने प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही वोट मांगे थे।
- हिमाचल की चुनावी रैलियों में तो प्रधानमंत्री ने खुद के नाम पर वोट मांगा था।
- दोनों जगह बीजेपी और प्रधानमंत्री ने केंद्र सरकार की उपलब्धियां भी गिनाई थीं और डबल इंजन सरकार के फायदे भी गिनाए थे।
- दिल्ली एमसीडी में भी बीजेपी ने सत्ता गंवाई है। यह बात तो सही है कि एमसीडी इलेक्शन की विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के साथ तुलना नहीं की जानी चाहिए, लेकिन यह भी सच है कि बीजेपी ने देश में होने वाले हर स्तर के चुनावों का स्वरूप बदल दिया है। निकाय चुनावों में भी वह केंद्रीय मंत्रियों और राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को प्रचार के लिए उतारती है और राष्ट्रीय सवालों और प्रधानमंत्री की छवि के इस्तेमाल से परहेज नहीं करती।
उपचुनावों के नतीजे
विधानसभा के उपचुनावों में बीजेपी ने छह में से दो सीटें विपक्ष से छीन ली हैं।
- इनमें बिहार की कुढनी सीट पर उसकी विजय वाकई महत्वपूर्ण है। वैसे जीत का अंतर ज्यादा नहीं है। उसने महागठबंधन के जेडीयू उम्मीदवार को सिर्फ तीन हजार से कुछ ज्यादा मतों से ही हराया है।
- दूसरी सीट उसने उत्तर प्रदेश के रामपुर में समाजवादी पार्टी से जीती है। बाकी जगहों पर संबंधित प्रदेशों की सत्ता संभाल रही पार्टियों ने विजय पाई। उड़ीसा में बीजेडी, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस ने अपनी सीटें जीत लीं।
- यह तो ध्यान में रखना ही पड़ेगा कि इन उपचुनावों का चेहरा भी प्रधानमंत्री मोदी ही थे, भले ही उन्होंने वहां प्रचार नहीं किया।
- उत्तर प्रदेश की खतौली की सीट पर आरएलडी की विजय को तो बीजेपी के हिंदुत्व के खिलाफ पुराने सामाजिक समीकरणों की वापसी के रूप में देखा जा रहा है।
बिहार की कुढनी और उत्तर प्रदेश की रामपुर सीटों पर विजय को विश्लेषित करने से यही जाहिर होता है कि इसमें सांगठनिक कौशल ने अहम भूमिका निभाई है। लेकिन रामपुर में मिली विजय पर जश्न मनाना लोकतंत्र के व्यापक संदर्भ में सही नहीं है। वहां सिर्फ 31 प्रतिशत मतदान हुआ था। समाजवादी पार्टी का आरोप है कि उसके समर्थकों को मतदान केंद्रों पर आने से रोका गया। वजह कोई भी हो मतदान में आई कमी, वह भी अल्पसंख्यक बहुल इलाके में, लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
कम मत प्रतिशत
अंत में हम गुजरात के चुनाव नतीजों पर आएं, जिसमें बीजेपी के प्रचारतंत्र और मुख्यधारा के मीडिया के एक बड़े हिस्से को मोदी का मैजिक दिखाई दे रहा है। क्या इस दावे में दम है?
- असल में, गुजरात चुनावों की कहानी वहां मतदान के प्रतिशत में आई कमी से शुरू होती है। अगर वास्तव में कोई मैजिक काम कर रहा होता तो मतदान के प्रतिशत में कमी कैसे आती?
- प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने अपने गृहराज्य में प्रचार काफी पहले से चला रखा था, लेकिन यह लोगों को मतदान केंद्रों तक खींच लाने में कामयाब नहीं हुआ।
- क्या यह चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री मोदी के साथ-साथ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए भी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए?
- इसमें कोई संदेह नहीं कि गुजरात में बीजेपी को भारी विजय मिली है। बीजेपी ने इस बार 156 सीटें हासिल कर 1985 में कांग्रेस को हासिल 149 सीटों का रेकॉर्ड तोड़ा है। उसे 2019 में मिले मतों से साढ़े तीन प्रतिशत ज्यादा यानी 52.5 प्रतिशत मत भी मिले हैं। लेकिन वह 1985 में कांग्रेस को मिले 55.5 प्रतिशत वोट के रेकॉर्ड को नहीं तोड़ पाई है।
- इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि गुजरात में कांग्रेस ने बीजेपी को खुला मैदान दिया और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के 13 प्रतिशत वोट भी काटे। कांग्रेस और आप के मत मिल कर पिछली बार के मतों के बराबर हो जाते हैं।
ध्रुवीकरण का सवाल
बीजेपी ने धार्मिक ध्रुवीकरण के काम आने वाले तमाम मुद्दे – समान नागरिक कानून, धारा 370 की समाप्ति, नागरिकता संशोधन कानून और राममंदिर- उठाए। अगर ठीक से देखें तो हिंदुत्व, मजबूत संगठन और विपक्ष की निष्क्रियता ही बीजेपी की भारी विजय के कारण हैं। यह जीत मैजिक तो नहीं ही है, यह सवाल जरूर खड़ी कर गई है कि इस चुनाव में इस्तेमाल हुए मुद्दे कहीं लोकतंत्र को कमजोर तो नहीं करते।