मुख्यमंत्री की कुर्सी और बसपा प्रमुख का वजूद खतरे में
सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा
करहल, मिल्कीपुर, सीसामऊ, कुंदरकी, गाजियाबाद, फूलपुर, मझवां, कटेहरी, खैर और मीरापुर ……इन सीटों पर उपचुनाव की वजह यह है कि करहल विधानसभा क्षेत्र समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का है, यहां से वे 2022 में जीते थे। वहीं मिल्कीपुर विधानसभा क्षेत्र से 2022 में सपा के अवधेश प्रसाद ने जीत हासिल की थी, जिन्होंने भाजपा और आरएसएस से इस साल हुए लोकसभा चुनाव में अयोध्या सीट छीन ली। ऐसे ही कुंदरकी भी सपा का सीट है, यहां से 2022 में उसके उम्मीदवार जियाउर्रहमान ने जीत हासिल की थी और अब वे संभल से लोकसभा सांसद हैं। दूसरी ओर फूलपुर, ग़ाज़ियाबाद और ख़ैर विधानसभा सीटें 2022 में भाजपा के पास थीं। जबकि मीरापुर से राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) और मंझवा से निषाद पार्टी के उम्मीदवार को जीत हासिल हुई थी। इनमें सीसामऊ से सपा के विधायक इरफान सोलंकी को एक मामले में सज़ा होने के बाद सदस्यता रद्द होने की वजह से ख़ाली हुई है। इसके अलावा अंबेडकरनगर ज़िले की कटेहरी सीट से सपा के विधायक रहे लालजी वर्मा अब अंबेडकरनगर से सांसद हैं। फूलपुर से भाजपा के विधायक रहे प्रवीण पटेल ने भी लोकसभा चुनाव जीतने का बाद इस्तीफा दे दिया है। जबकि ग़ाज़ियाबाद सदर से विधायक रहे अतुल गर्ग अब ग़ाज़ियाबाद से लोकसभा सदस्य हैं। ख़ैर से विधायक रहे अनूप सिंह ने हाथरस लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद इस्तीफा दिया है। मंझवा से विधायक रहे विनोद कुमार बिंद भदोही से सांसद चुने गए हैं और मीरापुर से विधायक रहे चंदन चौहान बिजनौर लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे हैं।
खैर, इन चुनावों की अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि राज्य में मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानी जा रही सपा और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के अलावा इस बार बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) भी उम्मीदवार उतारने की तैयारी में हैं। बसपा आमतौर पर स्थानीय निकायों और उपचुनावों में उम्मीदवार नहीं उतारती है, लेकिन इस बार पार्टी के सामने अस्तित्व का सवाल है। एक तरफ कांग्रेस-सपा गठबंधन उसके वोटों में सेंध लगा रहे हैं, दूसरी तरफ आसपा भी बसपा के कोर वोटर माने जाने वाले जाटव समाज को आकर्षित करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ रही है।
यह उपचुनाव भाजपा और सपा के लिए काफी अहम है। अगर भाजपा इन दस सीटों में से दो-चार भी हार गई तो पार्टी में दबी हुई कलह फिर से उभर आने की आशंका है। अगर हार-जीत का फासला पांच सीट से ऊपर जाता है तो फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विरोधियों को नई ऊर्जा मिल जाएगी। ज़ाहिर है, इसके बाद मुख्यमंत्री की गद्दी को लेकर जो अफवाहें लोक सभा चुनाव के बाद से ही सियासी गलियारे में तैर रही हैं, उनको भी पर लग जाएंगे। इससे भी ज़्यादा इन चुनावों का असर 2027 में होने वाले विधान सभा चुनाव पर पड़ेगा। अगर सपा और कांग्रेस मिलकर लोक सभा चुनाव वाला प्रदर्शन दोहरा पाने में कामयाब रहते हैं तो अगले चुनाव में भाजपा के लिए सत्ता में वापसी का रास्ता और तंग हो जाएगा। वैसे यह स्थिति बसपा के लिए भी ख़तरनाक साबित होगी।
उल्लेखनीय है कि बसपा का ग्राफ 2012 के बाद से लगातार नीचे ही गया है। इसके बावजूद 2024 के लोक सभा चुनाव तक पार्टी ने अपने वोट बैंक को बहुत हद तक बचाकर रखा। इन 12 वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में बसपा के उम्मीदवारों को ठीक-ठाक वोट मिलते रहे। लेकिन 2024 के लोक सभा चुनाव में बसपा को भारी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश में बसपा के 80 उम्मीदवारों में से एक भी अपनी ज़मानत नहीं बचा पाया। पार्टी के सिर्फ दो उम्मीदवारों को डेढ़ लाख से ज़्यादा वोट मिले। इनमें एक अमरोहा के मुजाहिद हुसैन और दूसरे बिजनौर से विजेंद्र सिंह। पार्टी ने देश भर में कुल 488 उम्मीदवारों को टिकट दिया और इनमें एक भी जीत दर्ज कर पाने में नाकाम रहा। पार्टी के इन 488 उम्मीदवारों में से 97.5 फीसद को अपनी ज़मानत गंवानी पड़ी।
कुल मिलाकर बसपा का प्रदर्शन ऐसा रहा कि लोग इसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल उठाने लगे हैं।
लोक सभा चुनाव में बसपा के ख़राब प्रदर्शन की दो बड़ी वजहें रहीं। एक तो लोगों में यह संदेश गया कि बसपा चुनाव जीतने के लिए नहीं, बल्कि विपक्षी दलों को हराने के लिए उम्मीदवार उतार रही है। दूसरे, पार्टी प्रमुख मायावती का सिर्फ चुनाव के समय सक्रिय रहना। बसपा के कट्टर समर्थक भी आरोप लगाते हैं कि बहन जी पांच साल घर में रहती हैं और अब तो वह चुनावों के समय भी मुश्किल से बाहर निकलती हैं। इसकी वजह से पार्टी और वोटरों के बीच दूरी बढ़ी है। नेतृत्व और वोटरों के बीच संवाद सेतु का काम करने वाले कई नेता अब पार्टी में नहीं हैं। कुछ को मायावती ने बाहर का रास्ता दिखा दिया और कुछ ख़ुद ही पार्टी छोड़ गए हैं। इनमें से कुछ ने कांग्रेस और सपा का दामन थाम लिया है और कुछ ने भाजपा का। इन नेताओं के साथ जो वोट बैंक खिसका है, उसका फायदा सपा-कांग्रेस गठबंधन को लोक सभा में होता हुआ दिखा भी है। ख़ासकर कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत में मुसलमानों को अलावा दलित मतदाताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
लेकिन बसपा के लिए अब एक और चुनौती सामने है। उत्तर प्रदेश की नगीना सीट से सांसद चुने जाने के बाद आसपा के हौसले बुलंद हैं। पार्टी नेता चंद्रशेखर आज़ाद की लोकप्रियता युवा वर्ग में तेज़ी से बढ़ी है। इस पार्टी की नज़र अपने नेता की लोकप्रियता भुनाने और बसपा की कमज़ोरी से पैदा हो रहे शून्य को भरने पर है। आसपा राज्य में दस सीटों पर होने वाले उपचुनाव में उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है। इसका सीधा नुक़सान बसपा को होगा। चंद्रशेखर आज़ाद ख़ुद जाटव समाज से हैं। जिस तरह की आक्रामक राजनीति वे करते हैं, वह समाज के युवाओं को लुभाती है। संसद में हाल के दिनों में जिस तरह उन्होंने समाज से जुड़े मुद्दों को उठाया है और मुखरता से अपनी बात को रखा है, उससे उनकी पार्टी को फायदा मिला है। हालांकि सांसद के बिना भी मायावती के क़द का दूसरा नेता अभी दलित समाज में नहीं है। लेकिन इस बात से किसी को इंकार नहीं है कि उनका सूरज डूब रहा है और चंद्रशेखर का सितारा बुलंदी की तरफ बढ़ रहा है। वह आने वाले दिनों के नेता हैं।
ऐसे में दस सीटों के चुनावी नतीजे बहुत हद तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा बसपा प्रमुख मायावती के भविष्य का भी फैसला करेंगे। वजह यह कि मुख्यमंत्री की कुर्सी और बसपा प्रमुख का वजूद ख़तरे में है। अगर सपा को दस में से पांच या इससे ज़्यादा सीटों पर जीत मिली और साथ में आसपा के उम्मीदवार भी ठीक-ठाक वोट ले आए, तो यह उपचुनाव राज्य के दो बड़े नेताओं का विदाई गीत लिख देगा। योगी आदित्यनाथ के लिए ज़रूरी है कि वह दस की दस सीटों पर किसी भी हाल में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करें। वहीं मायावती के सामने इस मामले में दोहरी चुनौती है। उनका भविष्य इस बात पर टिका है कि सपा उपचुनाव में एकमात्र विपक्षी दल के रूप में नज़र न आए। उनकी उम्मीदें इस बात पर निर्भर हैं कि न सिर्फ सपा के सभी उम्मीदवार हारें बल्कि आसपा के उम्मीदवारों को बसपा के उम्मीदवारों से ज़्यादा वोट न मिलें। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मायावती को इस बार सचमुच ही विपक्षी प्रत्याशियों को हराने वाले उम्मीदवारों का सहारा है।