सत्येंद्र रंजन
इलेक्टोरल बॉन्ड्स के सामने आए ब्योरे से असल कहानी यह उगाजर हुई है कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर कॉर्पोरेट पूंजी ने किस हद तक अपना शिकंजा कस लिया है। अब यह कहा जा सकता है कि इस लगातार बढ़ते जा रहे नियंत्रण पर परदा डालने की कोशिश में ही वर्तमान भारतीय जनता पार्टी सरकार ने सियासी चंदे की यह व्यवस्था लागू की थी। इस सिस्टम के अस्तित्व में आने के बाद से आज तक सत्ता पर इसी पार्टी का दबदबा है, इसलिए यह लाजिमी ही है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा उसी को हुआ है।
वैसे अपवाद के तौर पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ दें, तो बाकी किसी दल को भी परदेदारी की इस व्यवस्था से कोई खास गुरेज नहीं था। सीपीएम ने अवश्य एक सैद्धांतिक रुख लिया और इस माध्यम से राजनीतिक चंदा लेने से इनकार कर दिया। यह रुख इस पार्टी में अभी भी एक हद तक बचे सैद्धांतिक आग्रह की मिसाल है। लेकिन बाकी दलों ने इस माध्यम से जितना मिल सका, उतना चंदा लिया। और उन्होंने भी चंदे के स्रोत के बारे में निर्वाचन आयोग को पूरी जानकारी नहीं दी। भाजपा ने तो खैर यह जानकारी अपने पास भी सुरक्षित रखने की जरूरत नहीं समझी (जैसा कि उसने निर्वाचन आयोग को सूचना दी थी)।
राजनीतिक दल किसके चंदे से चलते हैं, यह इसका सीधा संबंध उनके व्यावहारिक चरित्र से होता है। यानी कहने को पार्टियां अपनी कोई भी विचारधारा बताएं, लेकिन अगर वे निहित स्वार्थी तत्वों से मोटा चंदा लेती हैं, तो यह संभव नहीं है कि उससे उनकी नीतियां और सत्ता में आने पर उनके फैसले ना प्रभावित हों। आज अगर हम दुनिया भर के “लोकतांत्रिक” देशों में सत्ता पर धनिक तबकों के कायम हो गए नियंत्रण को देखें, तो यह साफ होता है कि ऐसा होने के पीछे इस पहलू की सबसे बड़ी भूमिका रही है।
वैसे तो लोकतंत्र के अभिजात्य-तंत्र में परिवर्तित होते जाने की परिघटना की विस्तृत व्याख्या प्लेटो जैसे ग्रीस के प्राचीन दार्शनिकों ने लगभग तीन हजार साल पहले ही कर दी थी, लेकिन उसका संदर्भ अलग था। आधुनिक संदर्भ अलग है। आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र का विकासक्रम पूंजीवाद के उदय के साथ जुड़ा रहा है। लिबरल डेमोक्रेसी का उद्भव और विकास सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीवाद के वाहक सामाजिक वर्गों के संघर्ष से हुआ। जब सत्ता उनके हाथ में आ गई, तब ये वर्ग ही शासक वर्ग बन गए। तब सिस्टम को उन्होंने अपने रूप में ढाल दिया। जाहिर है, जिसे लोकतंत्र कहा गया, वह असल में पूंजीतंत्र या धन तंत्र था।
इस कहानी में एक रुकावट 1917 में सोवियत संघ में हुई बोल्शेविक क्रांति से बने विश्वव्यापी माहौल से आई। उस क्रांति ने दुनिया भर के मेहनतकश तबकों में नए सपने जगाए। श्रमिक वर्ग के संघर्ष की नई लहर से नई परिस्थितियां बनीं। तब विभिन्न देशों में शासक वर्गों ने लिबरल डेमोक्रेसी में ‘सोशल’तत्व जोड़ा गया। यानी सोशल डेमोक्रेसी की अवधारणा के साथ उदारवादी लोकतंत्र में जन कल्याण की एक सीमित संभावना जोड़ी गई।
वैसे पूंजीवादी व्यवस्थामें कुछ हाथों में संसाधनों और शक्ति सिमट जाना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है। बीसवीं सदी का अनुभव यह रहा कि पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा में winner यानी ‘विजेता’ घराने ना सिर्फ अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों पर अपना एकाधिकार कायम कर लेते हैं, बल्कि वेराजसत्ता पर भी अपना पूरा प्रभाव बनाने में वे सफल हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में राजनीतिक दलों पर चंदे के जरिए नियंत्रण बनाना एक जाना-पहचाना तरीका है।
भारत में भी आजादी के बाद से ही राजसत्ता पर पूंजीपति घरानों ने के प्रभाव को तलाशा जा सकता है। लेकिन तब उपनिवेशवाद से लंबे संघर्ष से अस्तित्व में आई राजसत्ता का अपेक्षाकृत एक स्वायत्त रूप बना था। तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियों का भी इसमें योगदान रहा। फिर भी कॉर्पोरेट चंदे की कहानी तभी से शुरू हो जाती है। तब टाटा और बिड़ला सबसे बड़े कॉर्पोरेट घराने थे। उन्होंने कांग्रेस सरकार की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश के साथ-साथ विपक्ष में स्वतंत्र पार्टी जैसे पूंजीवाद के पैरोकार दलों पर भी अपना दांव लगाया। इनके जरिए उनकी कोशिश राजनीति पर अपना व्यापक प्रभाव कायम करने की थी।
राज्य के स्वायत्त अस्तित्व और उस पर कंट्रोल की कॉर्पोरेट क्षेत्र की कोशिश के बीच एक द्वंद्व तब के घटनाक्रम में साफ देखा जा सकता है। इसी बीच इंदिरा गांधी का उदय हुआ, जिन्होंने अपने आरंभिक दौर में वामपंथी नीतियों के जरिए अपना समर्थन आधार बनाया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स की समाप्ति और फिर कोयला खदानों आदि का राष्ट्रीयकरण उनकी सरकार के प्रमुख कदम रहे। उसी दौर में उनकी सरकार ने राजनीति में कॉरपोरेट फंडिंग पर पूरी रोक लगाने का फैसला किया था।
- इंदिरा गांधी सरकार ने 1969 में कॉर्पोरेट फंडिंग पर पूरी रोक लगा दी। इसके लिए कंपनी अधिनियम की धारा 293-ए को कानून की किताब से हटा दिया गया था।
- ऐसे कदमों के खिलाफ कॉर्पोरेट घरानों ने एक तरह से विद्रोह कर दिया। उन्होंने तब ऐसे प्रकाशनों और गतिविधियों को चंदा देना शुरू किया, जिनके जरिए सरकार विरोधी माहौल बनाया जा सके। खासकर राष्ट्रीयकरण जैसी नीतियों के खिलाफ मुहिम चलाई गई।
- लेकिन इसी दौर में कांग्रेस सहित तमाम पार्टियों पर अवैध तरीकों से कॉर्पोरेट चंदा लेने के आरोप भी लगने लगे थे। सूटकेस कल्चर की शिकायत बढ़ने लगी।
- इस शिकायत के प्रचार में ताकत झोंक कर कॉरपोरेट घराने लगातार कथित लाइसेंस-परमिट राज को खत्म करने के लिए दबाव बनाए हुए थे। उनके स्वामित्व वाले मीडिया ने इस कोशिश में बड़ी भूमिका निभाई।
- इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी का समाजवादी उत्साह भी चूकने लगा। अंततः 1985 में तत्कालीन राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने कॉर्पोरेट फंडिंग पर से लगी रोक को हटाने का फैसला ले लिया।
- उसके बाद से भारतीय राजनीति की कहानी असल में धीर-धीरे राजसत्ता पर कॉर्पोरेट का शिकंजा कसते जाने की कहानी है।
- इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के प्रावधान ने इस कहानी को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया था।
इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स से संबंधित विवरण के सार्वजनिक होने से जितनी सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियां परेशान हुईं, उतना ही असहज कॉरपोरेट जगत भी हुआ है। केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने निर्वाचन आयोग और भारतीय स्टेट बैंक के माध्यम से इस विवरण को सामने आने से रोकने पुरजोर कोशिश की। मकसद यह सामने आने से रोकना था कि किसने कब कितनी रकम के बॉन्ड्स खरीदे और उसे किस पार्टी को दिया गया। यह सामने आने के बाद सबको यह अनुमान लगाने का आधार मिल जाएगा कि दिए गए चंदे के बदले संबंधित व्यापार घराने ने क्या फायदा उठाया।
इसीलिए उद्योगपतियों के बड़े संगठन यह गुहार लगाने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए कि वह इलेक्टोरल बॉन्ड्स के नंबर सार्वजनिक करने का आदेश भारतीय स्टेट बैंक को ना दे। चूंकि फिक्की, सीआईआई और एसोचैम बिना जरूरी प्रक्रियाएं पूरी किए अर्जी लेकर अदालत पहुंच गए थे, इसलिए न्यायालय ने अर्जी को तुरंत ठुकरा दिया। बहरहाल, इन संगठनों के एतराज पर गौर करना महत्त्वपूर्ण है। उनके प्रवक्ताओं ने मीडिया से बातचीत में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले में पारदर्शिता पर मुख्य रूप से दो एतराज उठाए। एक तो यह कि चूंकि मूल कानून में प्रावधान था कि चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रहेगी, इसलिए बाद में उसे सार्वजनिक करना एक तरह का विश्वासघात है। इस तर्क को खींचते हुए इन संगठनों यहां तक कहा कि फैसलों को पिछली तारीख से लागू करने से विदेशी निवेशकों का भारत में भरोसा टूटेगा। उन्होंने दूसरी दलील दी कि उन्होंने जिस पार्टी को चंदा दिया, उसके जाहिर होने पर उसकी विरोधी पार्टी उनसे नाराज हो जाएगी।
लेकिन ये दोनों तर्क बेबुनियाद हैं। यह मुद्दा किसी आर्थिक या व्यापार नीति से संबंधित नहीं है, जिसमें पिछली तारीख से बदलाव किया गया हो। यह भारत के अंदर राजनीतिक चंदे से जुड़ा मामला है। इससे आखिर कोई विदेशी कंपनियां क्यों आशंकित होगी? जहां तक प्रतिस्पर्धी पार्टी को चंदे की जानकारी मिलने का सवाल है, तो इलेक्टोरल बॉन्ड्स का वह प्रावधान गौरतलब है, जिससे केंद्र सरकार को सब कुछ मालूम रहता था। ऐसे में अंधेरे में सिर्फ विपक्षी दल और आम जन रहते थे। क्या सूचना की यह असमानता उचित है?
तो यह साफ है कि कंपनियां लोगों को यह नहीं जानने देना चाहती थीं कि उन्होंने राजनीतिक दलों को चंदा देकर क्या फायदे हासिल किए? वे चाहती थीं कि उनके और सत्ताधारी दलों के बीच जारी नापाक गठजोड़ पर परदा पड़ा रहे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अपील को ठुकरा कर स्टेट बैंक को इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के अल्फा-न्यूमेरिक नंबरों को भी सार्वजनिक करने का आदेश दे दिया।उससे उद्योग जगत का असहज होना स्वाभाविक है।
राजनीतिक दल जैसे-जैसे अपने खर्चों के लिए उद्योग जगत पर पूरी तरह निर्भर होते गए हैं, सत्ता में रहते हुए कॉर्पोरेट घरानों को अनुचित लाभ पहुंचाने की उनकी मजबूरी बढ़ती चली गई है। ये लाभ मुख्य रूप से इन कदमों के जरिए पहुंचाए गए हैः
कॉर्पोरेट टैक्स में रियायत
कॉर्पोरेट टैक्स की माफी
कॉर्पोरेट बैंक कर्जों को माफ करना।
निजीकरण की नीति को इस तरह लागू करना, जिससे क्षेत्र विशेष पर किसी एक उद्योग घराने या कुछ उद्योग समूहों की मोनोपॉली कायम हो जाए।
आर्थिक नीतियों को इस रूप में ढालना, जिससे बाजार किसी एक उद्योग या उद्योग समूह के अनुकूल बने
पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर सार्वजनिक संसाधनों को मुनाफा कमाने के लिए कॉरपोरेट सेक्टर को सौंपना
हाल के वर्षों में अपनाई गई प्रोडक्शन बेस्ड इन्सेंटिव स्कीम, जिसके जरिए आम जन के लाखों करोड़ रुपये बड़े उद्योग घरानों को कारोबार लगाने के लिए दिए जा रहे हैं, जिसका पूरा मुनाफा उन घरानों को जाएगा।
लाभ पहुंचाने के दशकों से जारी चलन में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के जरिए एक और ट्रेंड जोड़ा गया। आरोप है कि इसे कुछ कारोबारी घरानों को धमका कर चंदा वसूलने का जरिया बनाया गया। ऐसी मिसालें सामने हैं, जिनमें ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स आदि जैसे विभागों की कार्रवाई शुरू कर या उसका डर दिखा कर कंपनियों को चंदा देने के लिए मजबूर किया गया।
अगर ध्यान दें, तो यह साफ होगा कि इस सरकारी तरीके का निशाना मोटे तौर पर मध्यम या छोटे दर्जे की कंपनियां बनी हैं। यह संभवतः भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा की सिकुड़ती स्थिति का संकेत है। जब अर्थव्यवस्था के लगभग सभी प्रमुख क्षेत्रों पर कुछ घरानों की मोनोपॉली कायम हो जाए, तब छोटी, मध्यम या नई उभरती कंपनियों के लिए कारोबारी संभावनाएं बहुत संकुचित हो जाती हैं। इन स्थितियों में सरकार के लिए भी उन्हें लाभ पहुंचाने की संभावना घट जाती है, क्योंकि ऐसा बड़ी कंपनियों की कीमत पर ही किया जा सकता है। जब सरकार बड़ी कंपनियों के साथ एक तरह के गठजोड़ में रहने लगे, तब जाहिर है, उसके लिए अन्य कंपनियों को लाभ पहुंचाने की गुंजाइश घट जाती है। तब उनसे चंदा वसूलने के लिए उन्हें संभवतः भयभीत करने का तरीका ही बचता है।
उधर बड़े कॉर्पोरेट घरानों पर राजनीतिक दलों की बढ़ती गई निर्भरता का परिणाम यह है कि आर्थिक मामलों में आज राजनीतिक दलों की नीतियों और प्राथमिकताओं में कोई फर्क ढूंढ पाना मुश्किल हो गया है। 1990 के दशक में डॉ. मनमोहन सिंह ने एक पत्रिका में लेख लिख कर वकालत की थी कि नव-उदारवाद के दौर में अब आर्थिक नीतियों को राजनीतिक मतभेद के दायरे से परे कर दिया जाना चाहिए। कॉर्पोरेट क्षेत्र की यह इच्छा पूरी होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। कुछ वामपंथी हलकों को छोड़कर बाकी पूरे राजनीतिक दायरे में नव-उदारवाद के दौर की निजीकरण-उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों पर आम सहमति बन गई।
दुनिया के दूसरे देशों का भी तजुर्बा यही है कि ऐसा होने के बाद राजनीतिक दल अपनी अलग पहचान दिखाने के लिए पहचान और भावनात्मक मुद्दों पर अधिक से अधिक निर्भर हो जाते हैं। भावावेश की ये सियासत जल्द ही नफरत फैलाने की हद तक पहुंच जाती है। इस कार्य में जो पार्टी सबसे अधिक सक्षम होती है, पूंजीपति उसे अपना प्रिय राजनीतिक उपकरण बना लेते हैं।
क्या यह परिघटना आज के भारत का सच नहीं है?