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तत्व-कथा : आत्मज्ञानी मैत्रेयी

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सुधा सिंह 

महर्षि याज्ञवल्क्य के दो स्त्रियाँ थीं। एकका नाम था मैत्रेयी और दूसरीका कात्यायनी। दोनों ही सदाचारिणी और पतिव्रता थीं, परंतु इन दोनोमें मैत्रेयी तो परमात्माके प्रति अनुरागिणी थीं और कात्यायनीका मन संसारके भोगोंमें रहता था।

     महर्षि याज्ञवल्क्यने संन्यास ग्रहण करते समय मैत्रेयीको अपने पास बुलाकर कहा :

     ‘हे मैत्रेयी! मैं अब इस गृहस्थाश्रमको छोड़कर संन्यास ग्रहण करना चाहता हूँ। अतः मेरे न रहनेपर तुम दोनों आपसमें झगड़ा न कर सुखपूर्वक रह सको, इसलिये मैं चाहता हूँ कि तुम दोनोंमें घरकी सम्पत्ति आधी- आधी बाँट दूँ।’

स्वामीकी बात सुनकर मैत्रेयीने अपने मनमें सोचा कि ‘मनुष्य अपने पासकी किसी वस्तुको तभी छोड़नेको तैयार होता है, जब उसकी पहली वस्तुकी अपेक्षा कोई अधिक उत्तम वस्तु प्राप्त होती है। महर्षि घर-बारको छोड़कर जा रहे हैं, अतएव इनको भी कोई ऐसी वस्तु मिली होगी जिसके सामने घर-बार तुच्छ हो जाते हैं, अवश्य ही इनके जानेमें कोई ऐसा बड़ा कारण होना चाहिये।’ वह परम वस्तु जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्ति लाभकर अमृतत्वको – परमात्माको पाना ही है।’

       यों विचार करके मैत्रेयीने कहा- ‘भगवन्! मुझे यदि धन-धान्यसे परिपूर्ण समस्त पृथ्वी मिल जाय तो क्या उससे मैं अमृतत्वको पा सकती हूँ?’ याज्ञवल्क्यने कहा—’नहीं, नहीं! धनसहित पृथ्वीकी प्राप्तिसे तेरा धनिकों-सा जीवन हो सकता है, परंतु उससे अमृतत्व कभी नहीं मिल सकता!’

      मैत्रेयीने कहा- ‘जिससे मेरा मरना न छूटे, उस वस्तुको मैं लेकर क्या करूँगी ? हे भगवन्! आप जो जानते हैं (जिस परम धनके सामने आपको यह घर-बार तुच्छ प्रतीत होता है और बड़ी प्रसन्नतासे आप सबका त्याग कर रहे हैं), वही परम धन मुझे बतलाइये।’

‘मैत्रेयी! पहले भी तू मुझे बड़ी प्यारी थी, तेरे इन वाक्योंसे वह प्रेम और भी बढ़ गया है। तू मेरे पास आकर बैठ, मैं तुझे अमृतत्वका उपदेश करूँगा। मेरी बातोंको भलीभाँति सुनकर उनका मनन कर।’ इतना कहकर महर्षि याज्ञवल्क्यने प्रियतमरूपसे आत्माका वर्णन आरम्भ करते हुए कहा-

     ‘मैत्रेयी! (स्त्रीको) पति पतिके प्रयोजनके लिये प्रिय नहीं होता, परंतु आत्माके प्रयोजनके लिये पति प्रिय होता है।’ 

     ‘इस’ ‘आत्मा’ शब्दका अर्थ लोगोंने भिन्न-भिन्न प्रकारसे किया है, कुछ कहते हैं कि आत्मासे यहाँपर शरीरका लक्ष्य है-यह शिश्नोदरपरायण पामर पुरुषोंका मत है। कुछ कहते हैं कि जबतक अंदर जीव है तभीतक संसार हैं, मरनेके बाद कुछ भी नहीं; इसलिये यहाँ इसी जीवका लक्ष्य है—यह पुनर्जन्म न माननेवाले जडवादियोंका मत हैं।

     कुछ लोग ‘आत्माके लिये’ का अर्थ करते हैं कि जिस वस्तु या जिस सम्बन्धी से आत्माकी उन्नति हो, आत्मा अपने स्वरूपको पहचान सके, वही प्रिय है। इसीलिये कहा गया है- ‘आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्’- यह तीव्र मुमुक्षु पुरुषोंका मत है।’

कुछ तत्त्वज्ञोंका मत है कि ‘आत्माके लिये’ इस अर्थमें कहा गया है कि इसमें आत्मतत्त्व है, यह आत्माकी एक मूर्ति है। मित्रकी मूर्तिको कोई उस मूर्तिके लिये नहीं चाहता, परंतु चाहता हैं मित्रके लिये। संसारकी समस्त वस्तुएँ इसीलिये प्रिय हैं कि उनमें केवल एक आत्मा ही व्यापक है या वे आत्माके ही स्वरूप हैं।

   महर्षि याज्ञवल्क्यने फिर कहा-

‘अरे! स्त्री स्त्रीके लिये प्रिय नहीं होती, परंतु वह आत्माके लिये प्रिय होती है, पुत्र पुत्रोंके लिये प्रिय नहीं होते, परंतु वे आत्माके लिये प्रिय होते हैं, धन धनके लिये प्यारा नहीं होता, परंतु वह आत्माके लिये प्रिय होता है, ब्राह्मण ब्राह्मणके लिये प्रिय नहीं होता, परंतु वह आत्माके लिये प्रिय होता है। क्षत्रिय क्षत्रियके लिये प्रिय नहीं होता, परंतु वह आत्माके लिये प्रिय होता है, लोक लोकोंके लिये प्रिय नहीं होते, परंतु आत्माके लिये प्रिय होते हैं, देवता देवताओंके लिये प्रिय नहीं होते, परंतु आत्माके लिये प्रिय होते हैं, वेद वेदोंके लिये प्रिय नहीं हैं, परंतु आत्माके लिये प्रिय हैं। अरी मैत्रेयी! सब कुछ उनके लिये ही प्रिय नहीं होते, परंतु सब आत्माके लिये ही प्रिय होते हैं। यह परम प्रेमका स्थान आत्मा ही वास्तवमें दर्शन करने योग्य, श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य और निरन्तर ध्यान करने योग्य है। हे मैत्रेयी! इस आत्माके दर्शन, श्रवण, मनन और साक्षात्कारसे ही सब कुछ जाना जा सकता है। यही ज्ञान है।’

इसके पश्चात् महर्षि याज्ञवल्क्यजीने सबका आत्माके साथ अभिन्न रूप बतलाते हुए इन्द्रियोंका अपने विषयों में अधिष्ठान बतलाया और तदनन्तर ब्रह्मकी अखण्ड एकरस सत्ताका वर्णन कर अन्तमें कहा कि जबतक द्वैतभाव होता है तभीतक दूसरा दूसरेको देखता है, दूसरा दूसरे को सूँघता है, दूसरा दूसरेको सुनता है, दूसरा दूसरेको बोलता है; दूसरा दूसरेके लिये विचार करता है और दूसरा दूसरेको जानता है, परंतु जब सर्वात्मभाव प्राप्त होता है, जब समस्त वस्तुएँ आत्मा ही हैं- ऐसी प्रतीति होती है, तब वह किससे किसको देखे? किससे किसको सूँघे ? किससे किसके साथ बोले ? किससे किसका स्पर्श करे तथा किससे किसको जाने ? जिससे वह इन समस्त वस्तुओंको जानता है, उसे वह किस तरह जाने ?’

     ‘वह आत्मा अग्राह्य है इससे उसका ग्रहण नहीं होता; वह अशीर्य है इससे वह शीर्ण नहीं होता; वह असंग है इससे कभी आसक्त नहीं होता; वह बन्धनरहित है इससे कभी दुःखी नहीं होता और उसका कभी नाश नहीं होता। ऐसे सर्वात्मरूप, सबके जाननेवाले आत्माको कोई किस तरह जाने ? श्रुतिने इसीलिये उसे ‘नेति’, ‘नेति’ कहा है, वह आत्मा अनिर्वचनीय है। मैत्रेयी! बस तेरे लिये यही उपदेश है, यही तो मोक्ष है!’

      इतना कहकर याज्ञवल्क्यजीने संन्यास ले लिया और वैराग्यके प्रताप तथा ज्ञानकी उत्कट पिपासाके कारण स्वामीके उपदेशसे मैत्रेयी परम कल्याणको प्राप्त हुई !

 (स्रोत : बृहदारण्यकोपनिषद)

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