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पर्यावरण रैंकिंग है पश्चिमी देशों का खेल

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चंद्रभूषण
पिछले महीने आए एनवायरनमेंट परफॉरमेंस इंडेक्स में दुनिया भर के 180 देशों में से भारत को 180वें स्थान पर रखा गया। अमेरिका की येल और कोलंबिया यूनिवर्सिटी की ओर से जारी इस रैंकिंग को लेकर काफी हंगामा हुआ। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने भी इस रैंकिंग को अवैज्ञानिक बताया। और भी कई शोध संस्थाओं ने बताया कि इसमें काफी खामियां हैं। इस रैंकिंग की गहराई में जाने पर पता चलता है कि इसकी जो आलोचनाएं हो रही हैं, वे सही हैं।

इतनी चर्चा क्यों
इस रैंकिंग को दुनिया के कई देशों ने नजरअंदाज किया है। चीन इस रैंकिंग में 160वें नंबर पर है, लेकिन उसने इसे पूरी तरह से अनदेखा कर दिया है। 164वीं रैंक पर इंडोनेशिया है। वहां की सरकार ने भी इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। सिर्फ भारत में ही इस रैंकिंग को लेकर बहुत चिंता जताई गई। इसकी वजह क्या है? मेरे अंदाज से पहली वजह तो यही है कि हम लोग यूरोप और अमेरिका की रैंकिंग को बहुत ज्यादा तवज्जो देते हैं। यह हमारी असुरक्षा को दिखाता है। हम आजादी का 75वां साल मना रहे हैं, लेकिन अभी भी कहीं न कहीं यूरोप और अमेरिका से अपनी बड़ाई चाहते हैं। इसी के चलते जब कोई भी इंस्टिट्यूशन हमें छोटी सी भी रैंकिंग में अच्छा कहता है तो हम दुनिया भर में ढिंढोरा पीटते हैं, और खराब कहता है तो हम उसके खिलाफ बोलने लगते हैं। यह मानसिकता सही नहीं है। वे देश तो आपको तभी मान्यता देंगे, जब आप उनकी बात मानेंगे या उनकी तरह सोचेंगे। यह नहीं होगा तो वे आपको कभी अच्छी रैंकिंग नहीं देंगे।

EPI अच्छा कहेगा
– अगर आपका देश अमीर है
– अगर आपकी जनसंख्या कम है
– अगर आपका देश छोटा है

EPI खराब कहेगा
– अगर आपका देश गरीब है
– अगर आपकी जनसंख्या ज्यादा है
– अगर आपका देश बड़ा है

अवैज्ञानिक रैंकिंग
ईपीआई रैंकिंग में यूरोप के छोटे-छोटे देशों को टॉप पर रखा गया है। डेनमार्क, ब्रिटेन, फिनलैंड, माल्टा और स्वीडन टॉप पर हैं। वहीं खराब देशों में बड़ी आबादी वाले एशिया और अफ्रीका के बड़े देश हैं। क्या ऐसी रैंकिंग करना सही है? आज की तारीख में पर्यावरण की जो चुनौतियां भारत या चीन में हैं, क्या वही माल्टा या फिनलैंड जैसे देशों में हैं? दिल्ली में किसी एक कॉलोनी की जनसंख्या माल्टा से ज्यादा है। फिनलैंड की जनसंख्या हमारे छोटे-छोटे जिलों के बराबर है। तो क्या भारत या चीन जैसे उपमहाद्वीपों को माल्टा, फिनलैंड, डेनमार्क और ब्रिटेन से आप रैंक कर सकते हैं? इसका जवाब है कि हां आप रैंक कर सकते हैं। लेकिन उस रैंकिंग के लिए आपको एक बहुत ही सटीक वैज्ञानिक तरीके का प्रयोग करने की जरूरत है। दुर्भाग्य से वह सटीक वैज्ञानिक तरीका इस रैंकिंग में प्रयोग नहीं हुआ है। आइए, देखते हैं इसमें क्या गलतियां हुईं

गलत इंडिकेटर
– EPI ने गलत मानक यूज किए
– जलवायु परिवर्तन का हिस्सा 38%
– जलवायु परिवर्तन की रैंकिंग ग्रोथ रेट पर आधारित
– ज्यादा ग्रोथ रेट पर कम नंबर
– पर कैपिटा कार्बन उत्सर्जन का मान कम किया
– उपभोग और कचरे के इंडिकेटर का प्रयोग नहीं किया
– तुलना से पहले नॉर्मलाइजेशन नहीं

क्या हुआ इसका असर
इस तरह की रैंकिंग से दुनिया भर के विकासशील देश हमेशा पिछड़े ही रहेंगे, क्योंकि उनकी शुरुआत ही बहुत कम से हुई है। वहीं विकसित देशों में भले ही आज उत्सर्जन सबसे अधिक हो, उनका ग्रोथ रेट कम होगा। वहीं, विकासशील देशों का जो उत्सर्जन है, वह इतना कम है कि उनका ग्रोथ रेट ज्यादा होगा। ईपीआई में जो मानक तय किए गए हैं, वे रैंकिंग में तो बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे ऐसे हैं जो विकसित देशों को फायदा देते हैं और विकासशील देश को नुकसान पहुंचाते हैं। दूसरी बात यह है कि नॉर्मलाइजेशन सांख्यिकी का आधारभूत कॉन्सेप्ट है, मतलब आप सबको एक ही सतह पर लाइए, तब रैंकिंग कीजिए। वह गायब है। इस वजह से यह रैंकिंग एक तरह से सेब और संतरे की तुलना ही बन जाती है। कुल मिलाकर ये लोग इस तरह की रैंकिंग अपने विचार को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं।

पर हालात हैं खराब
इस तरह की रैंकिंग हों या ना हों, भारत में पर्यावरण की समस्या तो है ही। मैं यह नहीं कह रहा कि इस मामले में भारत विश्व का सबसे खराब देश है, लेकिन वह एक तरह से विश्व के उन टॉप के देशों में तो है ही, जहां पर्यावरण की गंभीर समस्या है। ईपीआई ने जिस गलत तरीके से रैंकिंग की, उसकी तो आलोचना होनी ही चाहिए। दूसरी तरफ, भारत के पर्यावरण के बारे में जो वैज्ञानिक आकलन हैं, उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। आज पानी से लेकर वायु प्रदूषण, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, जलवायु परिवर्तन, जंगलों का विनाश जैसे किसी भी इंडिकेटर को देखें तो पता चलता है कि भारत की हालत कितनी खराब है।

शुरू हो अपनी रैंकिंग
ऐसा नहीं है कि भारत में पर्यावरण की सुरक्षा पर काम नहीं हो रहा है। यहां अक्षय ऊर्जा सिस्टम लग रहे हैं, जलवायु परिवर्तन से लेकर वायु प्रदूषण पर हम काम कर रहे हैं। एक जुलाई से हमने सिंगल यूज प्लास्टिक की 19 चीजों को बैन भी किया है। स्वच्छ भारत मिशन पहले से ही चल रहा है। लेकिन हमारे जो पर्यावरण के मुद्दे और समस्याएं हैं, उनके बरक्स यह काफी नहीं है। इसलिए अब समय आ गया है कि हम खुद अपना आकलन करें। हम अपनी खुद की रैंकिंग लाएं, ताकि हम अपने देश की तरक्की खुद चेक कर सकें। हर साल देख सकें कि हम पर्यावरण के मुद्दे पर कितना आगे बढ़े या पीछे हटे। हमारे देश में बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं, जो यह कर सकती हैं। खुद नीति आयोग यह कर सकता है, जिसमें हम राज्यों को रैंक करते हुए देख सकते हैं कि कौन आगे है और कौन पीछे।

(लेखक आईफॉरेस्ट के सीईओ हैं)

(प्रस्तुति : राहुल पाण्डेय)

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