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आज भी लोकतंत्र की बाट जोहता प्रतीत हो रहा है पाकिस्तान

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डॉ. हिदायत अहमद खान

विचार करें और बताएं कि आखिर पाकिस्तान में राजनीतिक संकट कब और किसके दौर में नहीं रहा? इतिहास गवाह है कि जब से पाकिस्तान बना है लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की बजाय उन्हें खत्म करने पर ज्यादा काम हुआ है। फिर चाहे वह कायदे आजम जिन्ना का काल रहा हो या बेनजीर भुट्टो के वालिद जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर नवाज शरीफ, जनरल मुशर्रफ और इमरान खान का ही काल क्यों न रहा हो। यह बात काफी हद तक सही है कि भुट्टो परिवार ही एक मात्र ऐसा पाकिस्तानी राजनीतिक परिवार रहा है जिसने अपने काल में पड़ोसी मुल्कों से ताल्लुकात सही रखने की कोशिश की और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने में अपनी जान भी गंवाई।

इस बात को यूं समझा जा सकता है कि जब-जब पाकिस्तान के किसी बड़े लीडर ने भारत से अपने संबंध सुधारने की वकालत की उसे किसी न किसी बहाने से या तो हाशिये पर लेजाकर बैठा दिया गया या वह किसी हादसे का शिकार हुआ और कहीं का नहीं रहा। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण जनरल परवेज मुशर्रफ रहे, जिन्होंने स्वीकार किया था कि वो भारत से अपने देश के रिश्ते सामान्य नहीं रख सकते हैं, ऐसा करने पर उन्हें पाकिस्तान छोड़ कर दिल्ली स्थित नाहर वाली हवेली में आकर रहना पड़ेगा। बात स्पष्ट है कि जिसकी नींव ही नफरत से रखी गई हो आखिर उस इमारत में प्रेम और भाईचारा कैसे परवान चढ़ सकता है। इसका खामियाजा आतंकवादी हमलों के तौर पर पड़ोसी मुल्कों को सदा से भुगतना पड़ा है।

आतंकवादियों और भगोड़े अपराधियों को प्रश्रय देकर आतंक को बढ़ाना उसके मिजाज में शामिल रहा है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सदा से पाकिस्तान मुंह की खाता आया है। इस दिशा में किसी सरकार ने कोई खास काम नहीं किया और बदले में पाकिस्तान को अपने ही देश के बड़े नेताओं को भी खोना पड़ा है। इसके अलावा पाक सेना ने जब चाहा लोकतांत्रिक सरकारों को पद्च्युत कर तानाशाही लादने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इस बात को बेहतर जानते हैं और उन्हें इस बात का खासा अनुभव भी रहा है। यह अलग बात है कि उनकी किस्मत ने तब उनका भरपूर साथ दिया और किसी बड़ी अनहोनी से वो बचते रहे।
बहरहाल हम मौजूदा राजनीतिक संकट की बात कर रहे हैं, जिसमें पाकिस्तान के तमाम बड़े नेता न्यायालय के रहमो-करम पर जिंदा नजर आ रहे हैं। इस परिदृष्य में हम थोड़ा पीछे चलते हैं जहां तोशाखाना मामले की सुनवाई इस्लामाबाद के जिला और सत्र न्यायालय में होती है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के ख़िलाफ़ सुनवाई के दौरान कोर्ट कहता है कि अगर इमरान ख़ान सरेंडर कर देते हैं तो अदालत पुलिस को आदेश दे सकती है कि वो उन्हें गिरफ़्तार ना करे। अदालत की इस एक लाईन ने यह तो बतला दिया कि कानून के सामने सब बराबर हैं, फिर चाहे वह देश का प्रधानमंत्री हो या सामान्य इंसान, सभी को कानून के दायरे में रखकर न्याय किया जाएगा। यह बात बोलने में जितनी अच्छी लगती है उतनी ही यदि वाकई लागू हो जाए तो सोने पर सुहागा जैसी भी हो सकती है, लेकिन सभी जानते हैं कि इसमें भी कहीं न कहीं सियासत ही काम करती है।

आखिरकार देश की सत्ता कौन संभालेगा और किसे जेल में रहना होगा यह सब लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा न होकर सेना और न्यायपालिका के लोग तय करते नजर आते हैं। ऐसे आरोप लगाने वाले इतिहास के वो पन्नें अपने साथ रखते हैं जिन्हें खोलने पर मालूम चलता है कि पाकिस्तान में कभी भी लोकतंत्र बहाली पर गंभीरता से न तो विचार किया गया और न ही उस पर अमल ही हो पाया है। इसलिए पाकिस्तान में लगातार राजनीतिक संकट बना रहा है। कद्दावर नेताओं को गिरफ्तारी और किसी हादसे के नाम पर जान से मार दिए जाने का खतरा बराबर बना रहता है।
आतंकी हमलों के बीच बलूच आंदोलन ने पाकिस्तान की राजनीति को ऐसी जगह पहुंचा दिया है जहां यह कहना मुश्किल हो जाता है कि अगले कुछ दिन व सप्ताहों में क्या कुछ हो सकता है। इस समय पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था ख़राब हालत में है। इस कारण भी पाकिस्तान की सियासी हालत भी ख़राब चल रही है। इसी के साथ पाकिस्तान में क़ानून व्यवस्था की हालत भी ख़राब हो चुकी है। इसलिए यह कहना ज्यादा आसान लगता है कि आने वाले दिनों में यह सियासी संकट और ग़हराएगा और अधिक अफ़रा-तफ़री का माहौल दिखाई देगा और अशांति के दौर से पाकिस्तान को गुजरना होगा। कुल मिलाकर जो बोया है उसे ही तो वह काटेगा और जब बबूल बोया गया हो तो आम कहां से होंगे। अंतत: एक स्वतंत्र मुल्क होने के नाते पाकिस्तान तो आज भी अपने लोकतंत्र होने की बाट जोहता प्रतीत हो रहा है। यह तभी संभव होगा जबकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा कोई नेता उसे मिले और तन-मन-धन से वह देश सेवा कर सके।

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