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कहानी – पक्षी और दीमक

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आरती (मेकअप आर्टिस्ट) मुंबई


बाहर चिलचिलाती हुई दोपहर है लेकिन इस कमरे में ठंडा मद्धिम उजाला है। यह उजाला इस बंद खिड़की की दरारों से आता है। यह एक चौड़ी मुँडेरवाली बड़ी खिड़की है, जिसके बाहर की तरफ, दीवार से लग कर, काँटेदार बेंत की हरी-घनी झाड़ियाँ हैं। इनके ऊपर एक जंगली बेल चढ़ कर फैल गई है और उसने आसमानी रंग के गिलास जैसे अपने फूल प्रदर्शित कर रखे हैं। दूर से देखनेवालों को लगेगा कि वे उस बेल के फूल नहीं, वरन बेंत की झाड़ियों के अपने फूल हैं।
किंतु इससे भी आश्‍चर्यजनक बात यह है कि उस लता ने अपनी घुमावदार चाल से न केवल बेंत की डालों को, उनके काँटों से बचते हुए, जकड़ रखा है, वरन उसके कंटक-रोमोंवाले पत्‍तों के एक-एक हरे फीते को समेट कर, कस कर, उनकी एक रस्‍सी-सी बना डाली है; और उस पूरी झाड़ी पर अपने फूल बिखराते-छिटकाते हुए, उन सौंदर्य-प्रतीकों को सूरज और चाँद के सामने कर दिया है।
लेकिन, इस खिड़की को मुझे अकसर बंद रखना पड़ता है। छत्‍तीसगढ़ के इस इलाके में, मौसम-बेमौसम आँधीनुमा हवाएँ चलती हैं। उन्‍होंने मेरी खिड़की के बंद पल्‍लों को ढीला कर डाला है। खिड़की बंद रखने का एक कारण यह भी है कि बाहर दीवार से लग कर खड़ी हुई हरी-घनी झाड़ियों के भीतर जो छिपे हुए, गहरे, हरे-साँवले अंतराल हैं, उनमें पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं। वहाँ से कभी-कभी उनकी आवाजें, रात-बिरात, एकाएक सुनाई देती हैं। वे तीव्र भय की रोमांचक चीत्‍कारें हैं क्‍योंकि वहाँ अपने शिकार की खोज में एक भुजंग आता रहता है। वह, शायद उन तरफ की तमाम झाड़ियों के भीतर रेंगता फिरता है।
एक रात, इसी खिड़की में से एक भुजंग मेरे कमरे में भी आया। वह लगभग तीन-फीट लंबा अजगर था। खूब खा-पी कर के, सुस्‍त हो कर, वह खिड़की के पास, मेरी साइकिल पर लेटा हुआ था। उसका मुँह ‘कैरियर’ पर, जिस्‍म की लपेट में, छिपा हुआ था और पूँछ चमकदार ‘हैंडिल’ से लिपटी हुई थी। ‘कैरियर’ से ले कर ‘हैंडिल’ तक की सारी लंबाई को उसने अपने देह-वलयों से कस लिया था। उसकी वह काली-लंबी-चिकनी देह आतंक उत्‍पन्‍न करती थी।
हमने बड़ी मुश्किल से उसके मुँह को शिनाख्‍त किया। और फिर एकाएक ‘फिनाइल’ से उस पर हमला करके उसे बेहोश कर डाला। रोमांचपूर्ण थे हमारे वे व्‍याकुल आक्रमण! ग‍हरे भय की सनसनी में अपनी कायरता का बोध करते हुए, हम लोग, निर्दयतापूर्वक, उसकी छटपटाती दे‍ह को लाठियों से मारे जा रहे थे।
उसे मरा हुआ जान, हम उसका अग्नि-संस्‍कार करने गए। मिट्टी के तेल की पीली-गेरूई ऊँची लपक उठाते हुए, कंडों की आग में पड़ा हुआ वह ढीला नाग-शरीर, अपनी बची-खुची चेतना समेट कर, इतनी जोर-से ऊपर उछला कि घेरा डाल कर खड़े हुए हम लोग हैरत में आ कर, एक कदम पीछे हट गए। उसके बाद रात-भर, साँप की ही चर्चा होती रही।
इसी खिड़की से लगभग छह गज दूर, बेंत की झाड़ियों के उस पार, एक तालाब है… बड़ा भारी तालाब, आसमान का लंबा-चौड़ा आईना, जो थरथराते हुए मुस्‍कराता है। और उसकी थरथराहट पर किरनें नाचती रहती हैं।
मेरे कमरे में जो प्रकाश आता है, वह इन लहरों पर नाचती हुई किरनों का उछल कर आया हुआ प्रकाश है। खिड़की की लंबी दरारों में से गुजर कर वह प्रकाश, सामने की दीवार पर चौड़ी मुँडेर के नीचे सुंदर झलमलाती हुई आकृतियाँ बनाता है।
मेरी दृष्टि उस प्रकाश-कंप की ओर लगी हुई है। एक क्षण में उसकी अनगिनत लहरें नाचे जा रही हैं, नाचे जा रही हैं। कितना उद्दाम, कितना तीव्र वेग है उन झिलमिलाती लहरों में। मैं मुग्‍ध हूँ कि बाहर के लहराते तालाब ने किरनों की सहायता से अपने कंपों की प्रतिच्‍छवि मेरी दीवार पर आँक दी है।
काश, ऐसी भी कोई मशीन होती जो दूसरों के हृदयकंपनों को, उनकी मानसिक हलचलों को, मेरे मन के परदे पर चित्र रूप में उपस्थित कर सकती।
उदाहरणत:, मेरे सामने इसी पलंग पर, वह जो नारी-मूर्ति बैठी है, उसके व्‍यक्तित्‍व के रहस्‍य को मैं जानना चाहता हूँ, वैसे, उसके बारे में जितनी गहरी जानकारी मुझे है, शायद और किसी को नहीं।
इस धुँधले अँधेरे कमरे में वह मुझे सुंदर दिखाई दे रही है। दीवार पर गिरे हुए प्रत्‍यावर्तित प्रकाश का पुन: प्रत्‍यावर्तित प्रकाश, नीली चूडियोंवाले हाथों में थमे हुए उपन्‍यास के पन्‍नों पर, ध्‍यानमग्‍न कपोलों पर और आसमानी आँचल पर फैला हुआ है। यद्यपि इस समय हम दोनों अलग-अलग दुनिया में (वह उपन्‍यास के जगत में और मैं अपने खयालों के रास्‍तों पर) घूम रहे हैं, फिर भी इस अकेले धुँधुले कमरे में गहन साहचर्य के संबंध-सूत्र तड़प रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।
बावजूद इसके, यह कहना ही होगा कि मुझे इसमें ‘रोमांस’ नहीं दीखता। मेरे सिर का दाहिना हिस्‍सा सफेद हो चुका है। अब तो मैं केवल आश्रय का अभिलाषी हूँ, ऊष्‍मापूर्ण आश्रय का…
फिर भी मुझे शंका है। यौवन के मोह-स्‍वप्‍न उद्दाम आत्‍मविश्‍वास अब मुझमें नहीं हो सकता। एक वयस्‍क पुरुष का अविवाहिता वयस्‍का स्‍त्री से प्रेम भी अजीब होता है। उसमें उद्बुद्ध इच्‍छा के आग्रह के सा्थ-साथ जो अनुभवपूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता है, वह पल-पल पर शंका और संदेह को उत्‍पन्‍न करता है।
श्‍यामला के बारे में मुझे शंका रहती है। वह ठोस बातों की बारीकियों का बड़ा आदर करती है। वह व्‍यवहार की कसौटी पर मनुष्‍य को परखती है। वह मुझे अखरता है। उसमें मुझे एक ठंडा पथरीलापन मालूम होता है। गीले-सपनीले रंगों का श्‍यामला में सचमुच अभाव है।
ठंडा पथरीलापन उचित है, या अनुचित, यह‍ मैं नहीं जानता। किंतु जब औचित्‍य के सारे प्रमाण, उनका सारा वस्‍तु-सत्‍य पॉलिशदार टीन-सा चमचमा उठता है, तो मुझे लगता है – बुरे फँसे इन फालतू की अच्‍छाइयों में, दूसरी तरफ मुझे अपने भीतर ही कोई गहरी कमी महसूस होती है और खटकने लगती है।
ऐसी स्थिति में मैं ‘हाँ’ और ‘ना’ के बीच में रह कर, खामोश, ‘जी हाँ’ की सूरत पैदा कर देता हूँ। डरता सिर्फ इस बात से हूँ कि कहीं यह ‘जी हाँ’ ‘जी हुजूर’ न बन जाए। मैं अतिशय शांति-प्रिय व्‍यक्ति हूँ। अपनी शांति भंग न हो, इसका बहुत खयाल रखता हूँ। न झगड़ा करना चाहता हूँ, न मैं किसी झगड़े में फँसना चाहता…
उपन्‍यास फेंक कर श्‍यामला ने दोनों हाथ ऊँचे करके जरा-सी अँगड़ाई ली। मैं उसकी रूप-मुद्रा पर फिर से मुग्‍ध होना ही चाहता था कि उसने एक बेतुका प्रस्‍ताव सामने रख दिया। कहने लगी, ‘चलो, बाहर घूमने चलें।’
मेरी आँखों के सामने बाहर की चिलचिलाती सफेदी और भयानक गरमी चमक उठी। खस के परदों के पीछे, छत के पंखों के नीचे, अलसाते लोग याद आए। भद्रता की कल्‍पना और सुविधा के भाव मुझे मना करने लगे। श्‍यामला के झक्‍कीपन का एक प्रमाण और मिला।
उसने मुझे एक क्षण आँखों से तौला और फैसले के ढंग से कहा, ‘खैर, मैं तो जाती हूँ। देख कर चली जाऊँगी… बता दूँगी।’
लेकिन चंद मिनटों बाद, मैंने अपने को चुपचाप उसके पीछे चलते हुए पाया। तब दिल में एक अजीब झोल महसूस हो रहा था। दिमाग के भीतर सिकुड़न-सी पड़ गई थी। पतलून भी ढीला-ढाला लग रहा था, कमीज के ‘कॉलर’ भी उल्‍टे-सीधे रहें होंगे। बाल अन-सँवरे थे ही। पैरों को किसी-न-किसी तरह आगे ढकेले जा रहा था।
लेकिन यह सिर्फ दुपहर के गरम तीरों के कारण था, या श्‍यामला के कारण, यह कहना मुश्किल है।
उसने पीछे मुड़ कर मेरी तरफ देखा और दिलासा देती हुई आवाज में कहा, ‘स्‍कूल का मैदान ज्‍यादा दूर नहीं है।’
वह मेरे आगे-आगे चल रही थी, लेकिन मेरा ध्‍यान उसके पैरों और तलुओं के पिछले हिस्‍से की तरफ ही था। उसकी टाँग, जो बिवाइयों-भरी और धूल-भरी थी, आगे बढ़ने में, उचकती हुई चप्‍पल पर चटचटाती थी। जाहिर था कि ये पैर धूल-भरी सड़कों पर घूमने के आदी हैं।
यह खयाल आते ही, उसी खयाल से लगे हुए न मालूम किन धागों से हो कर, मैं श्‍यामला से खुद को कुछ कम, कुछ हीन पाने लगा; और इसकी ग्‍लानि से उबरने के लिए, मैं उस चलती हुई आकृति के साथ, उसके बराबर हो लिया। वह कहने लगी, ‘याद है शाम को बैठक है। अभी चल कर न देखते तो कब देखते। और सबके सामने साबित हो जाता कि तुम खुद कुछ करते नहीं। सिर्फ जबान की कैंची चलती है।’
अब श्‍यामला को कौन बताए कि न मैं इस भरी दोपहर में स्‍कूल का मैदान देखने जाता और न शाम को बैठक में ही। संभव था कि ‘कोरम’ पूरा न होने के कारण बैठक ही स्‍थगित हो जाती। लेकिन श्‍यामला को यह कौन बताए कि हमारे आलस्‍य में भी एक छिपी हुई, जानी-अनजानी योजना रहती है। वर्तमान सुचालन का दायित्‍व जिन पर है, वे खुद संचालन-मंडल की बैठक नहीं होने देना चाहते। अगर श्‍यामला से कहूँ तो पूछेगी, ‘क्‍यों!’
फिर मैं जवाब दूँगा। मैं उसकी आँखों से गिरना नहीं चाहता, उसकी नजर में और-और चढ़ना चाहता हूँ। प्रेमी जो हूँ; अपने व्‍यक्तित्‍व का सुंदरतम चित्र उपस्थित करने की लालसा भी तो रहती है।
वैसे भी, धूप इतनी तेज थी कि बात करने या बात बढ़ाने की तबीयत नहीं हो रही थी।
मेरी आँखें सामने के पीपल के पेड़ की तरफ गईं, जिसकी एक डाल तालाब के ऊपर, बहुत ऊँचाई पर, दूर तक चली गई थी। उसके सिरे पर एक बड़ा-सा भूरा पक्षी बैठा हुआ था। उसे मैंने चील समझा। लगता था कि वह मछलियों के शिकार की ताक लगाए बैठा है।
लेकिन उसी शाखा की बिलकुल विरुद्ध दिशा में, जो दूसरी डालें ऊँची हो कर तिरछी और बाँकी-टेढ़ी हो गई हैं, उन पर झुंड के झुंड कौवे काँव-काँव कर रहे हैं, मानो वे चील की शिकायत कर रहे हों और उच‍क-उचक कर, फुदक-फुदक कर, मछली की ताक में बैठे उस पक्षी के विरुद्ध प्रचार किए जा रहे हों।

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