मंजुला
आज दुनिया में सबसे ज्यादा भारत में नारीवाद, वाद–विवाद का विषय बना हुआ है। भारत में लगभग 70–75% लोग किसी न किसी रूप में नारीवाद पर बातें कर रहे हैं। जब नारीवाद पर बात होगी तो जाहिर है पितृसत्ता पर भी बात उभर कर आएगी।जिस तरह पितृसत्ता ने व्यक्तिवाद, संपत्ति, ज़मीन और स्त्री पर अधिकार को बढ़ावा दिया उसी तरह सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पशुदान और कन्यादान को भी स्थापित किया।
नारीवाद आंदोलन की शुरुआत 19वीं–20वीं सदी में हुई। जिसने महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता की मांग को पुरजोर तरीके से उठाया और महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों को स्थापित किया।
नारीवाद स्त्री और पुरुष के बीच के भेद-भाव के लिए सेक्स और जेंडर को आधार बनाता है। नारीवादियों का मानना है कि सेक्स एक जीव वैज्ञानिक तथ्य है, वहीं जेंडर एक सामाज वैज्ञानिक तथ्य।नारीवादियों का ये भी मानना है कि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष के शारीरिक बनावट में जो अंतर बनाया है, उसी को सामाजिक स्थिति का आधार बनाकर स्थापित किया गया है जो तर्कसंगत नहीं है।
यानी स्त्रियों की अधीनता सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों, विचार धाराओं और संस्थाओं की उपज है जो महिलाओं की भौतिक और विचारधारात्मक अधीनता यानी जेंडर के प्रभुत्व को सुनिश्चित करती है।
यही मान्यताएं सामाजिक जीवन में स्त्री के संपूर्ण जीवन पर पुरुषों के नियंत्रण को बढ़ावा देती है जिससे पितृसत्ता स्थापित होती है। यही पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्रियों के शोषण का कारण है। स्त्रियों की हीन स्थिति का कारण कृत्रिम है जो समाज द्वारा निर्मित है।
नारीवादी आंदोलनों के पीछे के वैश्विक पटल पर अगर नजर डालें तो नारीवाद आंदोलन जिस समय उभर रहा था, उसके पहले इस आंदोलन की एक पूरी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी।
14वीं-17वीं शताब्दी में इटली और बाद में पूरे यूरोप के पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोप मध्ययुग से आधुनिक युग की ओर अग्रसर हो रहा था। जिसने यूरोप में सांस्कृतिक, बौद्धिक और कलात्मक क्रांति को जन्म दिया था और साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण की नींव रखी थी।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की भावना को प्रधानता मिल रही थी।18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में होनेवाले फ्रांस की क्रांति ने भी पूरे यूरोप और दुनिया पर प्रभाव डाला। जिससे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव के साथ आधुनिक लोकतान्त्रिक विचारों को बढ़ावा मिला था।
जिसने स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहित किया था। अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम, रूस की क्रांति ने भी कहीं न कहीं नारीवाद को अपनी जगह बनाने में मदद की। 18वीं-19वीं सदी के औद्योगिक क्रांति ने शहरों के विकास की रूपरेखा को तैयार किया।
कारखानों और मिलों की स्थापना शुरू हुई जिससे गांव से शहरों की ओर पलायन बढ़ा और मध्यवर्ग का जन्म हुआ। एक ओर कारखानों और मिलों की स्थापना ने पूंजीवाद को बढ़ाया वहीं दूसरी ओर साम्राज्यवाद के उदय का रास्ता खोला।
बढ़ते पूंजीवाद और साम्राज्यवाद ने स्त्रियों को घर से बाहर निकालने का मौका दिया। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ की आर्थिक मंदी और प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध ने एक तरफ पुरुषों को सेना में भर्ती किया वहीं स्त्रियों को घर से बाहर निकलकर काम करने का अवसर मिला।
1920 की वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण मौजूदा सरकार ने भी स्त्रियों को घर से बाहर निकालने का मौका दिया। स्त्रियां मिलों और कारखानों में काम करने लगीं और घर चलाने में और अर्थव्यवस्था में उनकी एक अहम भूमिका सुनिश्चित होने लगी।
यहीं से शुरू हुई उनके अपने श्रम के उचित मूल्य की मांग जो पुरुषों के समान वेतन के साथ समान अधिकार पर भी केंद्रित था।
शिक्षा और मत देने के अधिकार के साथ समानता, प्रजनन का अधिकार और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दे भी पुरजोर तरीके से उठने लगे। यौन भेद–भाव को भी चुनौती दी जाने लगी। जिसमें सिमॉन द बउआ, वेट्टी फ्राइडल आदि का नाम लिया जाता है।
भारत में नारीवाद आंदोलन उस तरह से उभर कर नहीं आया जिस तरह यूरोप, अमेरिका और विकसित देशों में यह एक आंदोलन के रूप में उभरा। जिस 19वीं और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, विकसित देशों में नारीवादी आंदोलन हो रहे थे, उस समय भारत एक औपनिवेशिक राष्ट्र था।
भारत के लिए यह दौर स्वतंत्रता आंदोलन का था। भारत कृषि प्रधान देश और औपनिवेशिक राष्ट्र होने के कारण स्त्री आंदोलन उतनी मुखर नहीं था। मगर महिलाओं की शिक्षा को मुखर रूप में उठाया जा रहा था।
ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख जैसे समाज सुधारकों ने स्त्री शिक्षा पर काम किया। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए पहला स्कूल पुणे में 1848 में खोला। ताराबाई शिंदे ने ‘पुरुष स्त्री तुलना’ नामक एक किताब लिखी जिसकी खासी चर्चा हुई।
15 अगस्त 1947 में भारत की आजादी के बाद 1950 में भारत के संविधान में स्त्रियों की शिक्षा और उनके अधिकारों को संविधान में जोड़ा गया। बाल विवाह का निषेध, और विधवा विवाह से जुड़े कानून बने साथ ही स्त्रियों पर बढ़ती हिंसा से जुड़े कानून को भी जगह मिली।
भारत एक अर्द्ध पूंजीवादी और अर्द्ध सामंतवादी देश होने के कारण यहां आज भी स्त्रियों को वो समानता नहीं मिली जिसका उल्लेख भारत के संविधान में स्त्रियों के अधिकारों का है।
भूमंडलीकरण और सोशल मीडिया के कारण नारीवाद चर्चा का विषय तो है पर आज भी शहरों और गांव की स्त्रियों में असमानता देखने को मिलती है। शहरों में जो नारीवाद मुखर रूप में दिखता है वो गांवों में नहीं दिखता है।
गांव में रहने वाली स्त्रियों से पितृसत्ता के बारे में पूछेंगे तो वो उसे बता नहीं पाएंगी मगर जब उनसे पितृसत्ता के स्वरूप पर चर्चा करेंगे तो वो अपना प्वाइंट ऑफ व्यू जरूर रखेंगी..‘कि हम तो यही जिंदगी जीते हैं जो आप बता रही हैं, ये तो सदियों से हो रहा है’।
ये बात अपर कास्ट स्त्रियों पर ज्यादा लागू होती है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर हैं। मगर आप गांव की दलित स्त्रियों से पूछेंगे तो उनका जवाब कुछ और होगा।
वो शोषण की बात तो करेंगी मगर अपने श्रम की भी बात करेंगी और कुछ हद तक इस आधार पर अपनी आजादी की भी। इस तरह शहर और गांव की स्त्रियों में नारीवाद सोच में असमानता देखने को मिलती है।
भारतीय साहित्य में नारीवाद या स्त्री विमर्श ने लिंग के आधार पर समानता, अस्तित्व, अस्मिता, स्वतंत्रता, और निर्णय लेने के अधिकार जैसे सवाल उभर रहे हैं, जिसमें महादेवी वर्मा, मनु भंडारी, कृष्णा सोबती आदि नाम मुख्य रूप से आते हैं।
नारीवाद और स्त्री विमर्श सिर्फ स्त्रियों का मुद्दा नहीं है, ये उतना ही पुरुषों का भी मुद्दा है। पितृसत्ता ने जितना नुकसान स्त्रियों का किया है उतना पुरुषों का भी किया है।
जिस तरह पितृसत्ता ने स्त्रियों के लिए अलग मापदंड बनाए हैं, उन्हें कोमल, सभ्य, सुशील और सुंदर के पैमाने में कैद किया है। वैसे ही पुरुषों को भी कठोर, माचो मैन और अब एनिमल में तब्दील कर रहा है। इस कारण स्त्रियों और पुरुषों के बीच की साथ और सहयोग कम दूरी बढ़ती जा रही है।
आज के समय में भ्रूणहत्या, बलात्कार और घरेलू हिंसा इतनी बढ़ गई है कि यह समाज की विकृति का रूप ले रही है। ये कम तभी हो सकता है जब स्त्रियों के साथ पुरुषों का सहयोग भी स्त्री विमर्श पर मुखर होकर उभरेगा।
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