अग्नि आलोक

*भारतीय साहित्य में नारीवादी लेखिकाएं*

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   (भूपेन हजारिका और कल्पना लाजमी की स्मृति के बहाने)

        *~ सुधा सिंह*

सीमोन हों, मन्नू भंडारी, अमृता प्रीतम, प्रभा खेतान, ममता कालिया, या चेखव के संस्मरण लिखने वालीं लीडिया अविलोवा : प्रबुद्ध ,आज़ादख़याल, प्रतिभाशाली औरतों ने अपने प्रेम पर प्रेमी या पुरुष साथी पर बेहिचक लिखा।

       उनकी आत्मकथाओं में वह छाया रहा। लेकिन क्या वजह रह गई कि उन पुरुष लेखकों को कभी ज़रूरी नहीं लगा कि वे अपने जीवन में आई स्त्री के बारे में लिखें ! क्या बेहद आज़ाद दिखने वाले संबंधों में भी पितृसत्ता महीन स्तरों पर काम करती है? क्या लोकप्रिय पुरुषों से जुड़ने वाली स्वतंत्र चेता स्त्रियों पर जो पितृसत्ता का दबाव होता है वह बिलकुल एकतरफ़ा ढंग से उनके सार्वजनिक सम्बन्धों का नैरेटिव तैयार करता है?

     मुझे परेशान करते रहे इस ख़याल से जुड़ी एक जया निगम की पोस्ट यहाँ शेयर कर रही हूँ :

कल्पना लाज़मी के बारे में मैने जो आखिरी खबर पढ़ी थी – वह कई साल पहले भूपेन हजारिका के निधन पर थीं. वह भी इस बारे में थी कि भूपेन अपने जीवन के आखिरी सालों में कल्पना जी द्वारा पूरी तरह कैद कर लिये गये थे, कल्पना जी की अनुमति के बगैर उनसे उनके पुराने दोस्त, परिचित वगैरह मिल भी नहीं पाते थे. कल्पना जी उनके पूरे परसोना पर इस कदर हावी थीं कि भूपेन हजारिका का उनसे अलग कोई व्यक्तित्व नहीं बचा था. 

      हमारे समय के महान लोक संगीतकार भूपेन हजारिका और उनकी संगिनी कल्पना लाजमी के रिश्तों का अनूठापन हमें बार-बार खींचता है उनके संबंधों की तहकीकात करने के लिये. 

      किसी मर्द का अपनी औरत के नियंत्रण में होना खासकर तब जब उनका रिश्ता आधिकारिक तौर पर पति-पत्नी का ना हो, बाहर वालों को उस औरत के लिये किस कदर शंकालु बना देता है कि वह उसे पूरी दुनिया के सामने आउटसाइडर बना देते हैं (इसको लिखते वक्त प्रभा खेतान की ‘अन्य से अनन्या तक’ याद आ रही है जो लगभग ऐसी ही एक विद्रोही महिला की कहानी है.) साथ ही उस पुरुष को पितृसत्ता का दुलारा और पूरी दुनिया के सामने बिल्कुल हीन जो अपनी ही औरत की कैद में किसी तरह सांस लेने भर को जिंदा है. 

एक पुरुष से इतर एक औरत का व्यक्तित्व पूरी दुनिया के सामने किस कदर कमतर होता है कि उसका अपने युग की सबसे विद्रोही फिल्ममेकर होना भी किसी काम नहीं आता. कल्पना लाजमी जैसी औरत को भी भूपेन हजारिका के आस-पास घिरे चाटुकारों और लिजलिजे लोगों से डील करते वक्त सख्ती से काम लेते ही भूपेन हजारिका की फज़ीहतों का शिकार होना पड़ता है. ( कल्पना लाज़मी की भूपेन हजारिका से उनके संबंधों पर लिखी गयी किताब AS I Knew Him के अंशों में विस्तार से इस वाकये का जिक्र है)

       लोक जीवन में रचे-बसे पुरुषों के जीवन में आने वाली विद्रोहिणी महिलाओं के जीवन का बड़ा हिस्सा लोक में समायी पितृसत्ता से लोहा लेने में बीतता है और ज्यादातर मामलों में खुद उनके जीवन साथी ही लोक जीवन में समायी पितृसत्ता के उनकी संगिनी के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैये को पहचानने में असमर्थ होते हैं. (दलित पैंथर के क्रांतिकारी संस्थापक नामदेव ढसाल की पत्नी मल्लिका अमर शेख का मेमॉयर I Want To Destroy Myself देखें) और पितृसत्ता के एजेंट की तरह काम करने लगते हैं. स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के अंतर्संबंधों में पितृसत्ता बहुत बारीक स्तर पर काम करती है. 

मसलन ये जो किताब कल्पना लाजमी ने अपने और भूपेन हजारिका के संबंधों पर लिखी, ऐसा एक छोटा सा भी पीस भूपेन हजारिका की ओर से क्यूं नहीं लिखा गया. बल्कि केवल हजारिका ही क्यूं किसी भारतीय पुरुष का ऐसा कोई मेमॉयर जो उसकी पत्नी, संगिनी या उसके जीवन में आने वाली किसी प्रेमिका के लिये लिखा गया हो ऐसा बिल्कुल याद नहीं आता.

       क्यूं महिलाओं के जीवन में आने वाले पुरुष उनके जीवन में इतने जरूरी हो जाते हैं जबकि पुरुषों के जीवन में चाहे कितनी भी टैलेंटेड महिला क्यूं ना आये उसे कभी अपने संबंधों पर लिखने की जरूरत नहीं महसूस होती. 

       क्या लोकप्रिय पुरुषों के साथ जुड़ने वाली स्वतंत्र चेता महिलाओं पर पितृसत्ता का जो खास दबाव होता है जो बिल्कुल एतकरफा ढ़ंग से उनके संबंधों का सार्वजनिक नरेटिव तैयार करता है उससे उपजा असंतोष महिलाओं को उनके अंतर्संबंधों के बारे में लिखने-बोलने के लिये प्रेरित करता है यानी उसका मुख्य कारण होता है! …

      और इस ढ़ंग से कहा जाये तो क्या हर पॉपुलर व्यक्ति से जुड़ी से स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली महिला इस दबाव को अपने ढ़ंग से रेस्पांड करने के लिये अभिशप्त होती है?

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