पवन कुमार, ज्योतिषाचार्य
विविध धर्मग्रन्थों एवं शास्त्रोंमें सर्पदोषोंका वर्णन मिलता है। वर्तमानमें प्राचीन एवं नवीन दैवज्ञोंके मध्य कालसर्पयोगके विषयमें मन्त्रणा प्रारम्भ हो चुकी है। यदि हम प्राचीन ग्रन्थ मानसागरी, बृहज्जातक तथा बृहत्पाराशर होराशास्त्रका अवलोकन करें तो यह सिद्ध हो जाता है कि इन ग्रन्थोंमें कालसर्पयोग अथवा सर्पयोगका उल्लेख किया गया है।
भारतीय संस्कृतिमें नागोंका विशेष महत्त्व है। प्राचीन कालसे ही नागपूजा की जाती रही है। नागपंचमीका पर्व पूरे देशमें पूर्ण श्रद्धाके साथ मनाया जाता है। इस दिन प्रत्येक गृहस्थ घरके प्रवेशद्वारपर नागकी आकृति बनाकर पूजन करता है।
इस दिन नागदर्शनको अत्यन्त शुभ माना जाता है। इन्हें शक्ति एवं सूर्यका अवतार माना गया है। मानव- – सभ्यताके प्रारम्भसे ही नागोंके प्रति विशेष भयकी भावना रही है। भारतके प्रत्येक क्षेत्रमें भगवान् आशुतोषके पूजनका विधान होता है। नाग भगवान् शिवके गलेका हार है।
सप्ताह के सात दिनोंके नाम किसी-न-किसी ग्रहके ऊपर रखे गये हैं, किंतु राहु-केतु के आधारपर कोई नाम नहीं रखा गया; क्योंकि इन्हें छायाग्रह माना जाता है इसलिये इनका प्रभाव भी परोक्ष रूपसे पड़ता है। राहु का स्वभाव शनिवत् एवं केतु का मंगलवत् माना जाता है।
एक शरीरके दो भागों में राहु को सिर एवं केतु को धड़ माननेपर सिरमें विचार-शक्ति होती है, किंतु शरीर न होनेपर यह स्वयं क्रिया करनेमें असमर्थ होता है। राहु जिस भावमें होता है उसके भावेश, उस भावमें स्थित ग्रह या जहाँ दृष्टि डालता है उस राशि, राशीश एवं उस भावमें स्थित ग्रहको अपनी विचारशक्तिसे प्रभावितकर क्रिया करनेको प्रेरित करता है। केतु जिस भावमें बैठता है उस राशि, उसके भावेश, केतु पर दृष्टिपात करनेवाले ग्रहके प्रभावमें क्रिया करता है।
केतु को मंगल के समान मान लेनेपर उसका प्रभाव मंगलके समान विध्वंसकारी हो जाता है। अपनी महादशा एवं अन्तर्दशामें व्यक्तिकी बुद्धिको भ्रमितकर सुख-समृद्धिका ह्रास करता है राहुकी महादशा बाधाकारक होती है। यहाँ विचारणीय यह है कि राहु सम्बन्धित ग्रहके माध्यमसे अपना कार्य कराता है एवं केतु सम्बन्धित ग्रहके प्रभावमें आकर उस ग्रहके अनुसार कार्य करता है। राहुके सम्बन्धमें एक बात अवश्य विचारणीय है कि राहु जिस ग्रहके सम्पर्क में हो, उसके अंश राहुसे कम होनेपर राहु प्रभावी रहेगा, जबकि राहुके अंश कम होनेपर उस ग्रहका प्रभाव अधिक होगा एवं राहु निस्तेज हो जायगा, उस स्थितिमें कालसर्पयोगका प्रभाव न्यूनतम रहेगा।
कालसर्पयोग राहु से केतु एवं केतु से राहु की ओर बनता है। यहाँ विचारणीय यह है कि राहुसे केतुकी ओर बने योगका ही प्रभाव होता है, जबकि केतुसे राहुकी ओर बननेवाला योग निष्प्रभावी होता है। यह कहना उपयुक्त होता है। कि केतुसे राहुकी ओर बननेवाले योगको कालसर्पकी संज्ञा देना उपयुक्त नहीं होगा।
वैज्ञानिक रूप से यदि कालसर्पयोगकी व्याख्या करें तो जन्मांग -चक्रमें राहु-केतुकी स्थिति हमेशा आमने-सामनेकी ही होती है। जब अन्य सभी ग्रह इनके मध्य अर्थात् प्रभावक्षेत्रमें आ जाते हैं, तब वे अपना प्रभाव त्यागकर राहु- केतुके चुम्बकीय क्षेत्रसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते एवं राहु-केतुके गुण-दोषोंका प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी हो जाता है।
राहु-केतु हमेशा वक्रगतिसे चलते हैं। इनमें वाम गोलार्ध एवं दक्षिण गोलार्ध दो स्थितियाँ बनती हैं। राहुका बायाँ भाग काल कहलाता है। इसीलिये राहु केतुकी ओर बननेवाला योग ही कालसर्पयोगकी श्रेणी में आता है। केतुसे राहुकी ओर बननेवाले योगको अनेक दैवज्ञोंद्वारा कालसर्पयोग नहीं कहा जाता।
इतना अवश्य है कि कालसर्पयोगका निर्माण किसी-न-किसी पूर्वजन्मकृत दोष अथवा पितृदोष के कारण बनता है।
उदित गोलार्ध कालसर्पयोग जन्मसे ही प्रभावी हो जाता है, जबकि अनुदितका प्रभाव गोचर में ग्रहके राहुके प्रभावमें आनेपर होता है। अतः उदितका प्रभाव अधिक भयावह होता देखा गया है।
किसी जन्मांग में कालसर्पयोगका निर्धारण अत्यन्त सावधानीसे करना चाहिये। केवल राहु-केतुके मध्य ग्रहोंका होना ही पर्याप्त नहीं है। यहाँ अनेक ऐसे बिन्दु हैं, जिनका ध्यान न रखें तो हमारी दिशा एवं जातककी दशा खराब होनेमें अधिक समय नहीं लगेगा। सर्वप्रथम यह देखें कि कालसर्पयोग किस भावसे किस भावतक है एवं ग्रहका भाव क्या है।r उस भावमें ग्रहकी क्या स्थिति बन रही है।
ग्रहोंकी युतिका क्या प्रभाव पड़ रहा है। यदि राहुके साथ किसी अन्य ग्रहकी युति है तो यहाँ यह भी देखना है कि युतिवाले ग्रहका बल राहुसे कम है या अधिक। ऐसी स्थिति है तो राहुका न केवल प्रभाव कम होगा, अपितु कालसर्पयोग भंग भी हो सकता है। यही स्थिति किसी ग्रहके राहु-केतुकी पकड़से बाहर निकलनेपर हो सकता है। अतः कालसर्पका निर्धारण सतही स्तरके विश्लेषणपर करना जातकके लिये अत्यन्त ही दुःखदायी हो सकता है।
यहाँपर एक बात और कहनेयोग्य है कि कालसर्प हमेशा कष्टकारक ही नहीं होते। कभी-कभी तो ये इतने अधिक अनुकूल होते हैं कि व्यक्तिको विश्वस्तरपर न केवल प्रसिद्ध बनाते हैं अपितु सम्पत्ति, वैभव, नाम, प्रसिद्धिके देनेवाले भी बन जाते हैं। आप विश्वके महापुरुषोंके जन्मांगों का अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनकी कुण्डलीमें कालसर्पयोग होनेके बाद भी वे प्रसिद्धिके शिखरपर पहुँचे। इतना आवश्यक है कि उनके जीवनका कोई-न-कोई पक्ष ऐसा अवश्य रहा है। जो अपूर्णताका प्रतीक बन गया हो। कालसर्पयोगसे डरने या भयाक्रान्त होनेकी आवश्यकता बिलकुल भी नहीं है। जन्मकुण्डलीमें अनेक शुभ योग जैसे पंचमहापुरुषयोग, बुधादित्य योग आदि बनते हैं, जिनके कारण कालसर्पयोगका प्रभाव अत्यधिक न होकर अल्पकालिक होता है।
यदि आप विश्वके सफलतम व्यक्तियोंका अध्ययन करें तो निश्चित ही यह पायेंगे कि उनकी कुण्डलीके कालसर्पयोगने ही उन्हें इस उच्चतम ऊँचाईपर पहुँचाया। किसी जातककी कुण्डलीमें कालसर्पयोग है तो यह मानकर चलिये कि परिवारके अन्य सदस्योंके जन्मांग में भी यह योग देखनेको मिलेगा; क्योंकि यह अनुबन्धित ऋण है, जो हमें पूर्वजोंसे मिलता है एवं इससे परिवारके सभी सदस्य किसी-न-किसी रूपमें प्रभावित होते हैं।
इसे ही पितृदोषका नाम दिया जाता है। कभी-कभी ऐसा देखा गया है कि देवजद्वारा व्यक्ति इतना डरा दिया गया कि वह ठीक ढंगसे सोने भी नहीं पाता, जबकि कुण्डलीमें कालसर्पयोग था ही नहीं या आंशिक प्रभाव पड़ रहा था, जिसका सहज निदान किया जा सकता था। अतः कालसर्पयोगका निर्णय किसी योग्य देवजसे कराकर उसका निदान करा लेना चाहिये। आज समाजमें ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो निर्लिप्त भावसे बिना प्रलोभनके ज्योतिषकी सेवा कर रहे हैं। ज्योतिषकी दूकानदारीवाले दैवज्ञसे बचनेका प्रयास करना चाहिये।
*कालसर्पयोग के प्रकार :*
ज्योतिषमें १२ राशियाँ हैं। इनके आधारपर १२ लग्न होते हैं और इनके विविध योगोंक आधारपर कुल २८८ प्रकारके कालसर्पयोग निर्मित हो सकते हैं।
प्रमुख रूपसे भाव के आधार पर कालसर्पयोग १२ प्रकार के होते हैं, जिनके नाम एवं प्रभाव निम्नानुसार हैं-
अनन्त कालसर्पयोग :
लग्नसे सप्तम भावतक बननेवाले इस योगको अनन्त कालसर्पयोग कहा जाता है। इस योगके कारण जातकको मानसिक अशान्ति, जीवनकी अस्थिरता, कपटबुद्धि, प्रतिष्ठाहानि, वैवाहिक जीवनका दुःखमय होना इत्यादि प्रभाव देखनेको मिलते हैं। जातकको आगे बढ़नेके लिये काफी संघर्ष करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति निरन्तर मानसिक रूपसे अशान्त रहता है।
कुलिक कालसर्पयोग :
द्वितीय स्थानसे अष्टम – स्थानतक पड़नेवाले इस योगके कारण जातकका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। जीवनमें आर्थिक पक्षको लेकर अत्यन्त संघर्ष करना पड़ता है। जातक कर्कश वाणी से युक्त होता है, जिसके कारण कलहकी स्थिति तो निर्मित होती ही है, साथ ही यह पारिवारिक विरोध एवं अपयशका भागी भी बनता है। योगकी तीव्रताके कारण विवाहमें विलम्बके साथ विच्छेदतक भी हो सकता है।
वासुकि कालसर्पयोग तृतीयसे नवमतक बनता है। पारिवारिक विरोध, भाई-बहनोंसे मनमुटाव, ,मित्रोंसे धोखा, भाग्यको प्रतिकूलता, व्यवसाय या नौकरीमें रुकावटें, धर्मके प्रति नास्तिकता, कानूनी रुकावटें आदि बातें देखनेको मिलती हैं। जातक धन अवश्य कमाता है, किंतु कोई-न-कोई बदनामी उसके साथ जुड़ी ही रहती है। उसे यश, पद, प्रतिष्ठा पानेके लिये संघर्ष करना ही पड़ता है।
शंखपाल कालसर्पयोग :
यह योग चतुर्थसे दशम भावमें निर्मित होता है। इसके प्रभावसे व्यवसाय, नौकरी, विद्याध्ययन इत्यादि पक्षोंमें रुकावटें आती हैं। घाटेका सामना करना पड़ता है। वाहन एवं भृत्यों तथा कर्मचारियोंको लेकर कोई-न-कोई समस्या हमेशा आती है। आर्थिक स्थिति इतनी अधिक खराब हो जाती है कि दिवालिया होनेतककी परिस्थितियाँ आ सकती हैं।
पद्म कालसर्पयोग :
पंचमसे एकादश भावमें राहु-केतु होनेसे यह योग होता है। इसके कारण सन्तानसुखमें कमी या सन्तानका दूर रहना अथवा विच्छेद तथा गुप्तरोगोंसे जूझना पड़ता है। असाध्यरोग हो सकते हैं, जिनकी चिकित्सामें अत्यधिक धनका अपव्यय होता है। दुर्घटना एवं हाथोंमें तकलीफ हो सकती है। मित्रों एवं पत्नीसे विश्वासघात मिलता है। यदि सट्टा, लाटरी, जुआको लत हो तो इसमें सर्वस्व स्वाहा होनेमें देर नहीं लगती। शिक्षाप्राप्तिमें अनेक अवरोध आते हैं। जातककी शिक्षा भी अपूर्ण रह सकती है। जिस व्यक्तिपर सर्वाधिक विश्वास करेंगे, उसीसे धोखा मिलता है। सुखमें प्रयत्न करनेपर भी इच्छित फलकी प्राप्ति नहीं हो पाती। संघर्षपूर्ण जीवन बीतता है।
महापद्म कालसर्पयोग :
छहसे बारह भावके इस योग में पत्नी – विछोह, चरित्रकी गिरावट, शत्रुओंसे निरन्तर पराभव आदि बातें होती हैं। यात्राओंकी अधिकता रहती है। आत्मबलकी गिरावट देखनेको मिल जाती है। प्रयत्न करनेपर भी बीमारीसे छुटकारा नहीं मिलता। गुप्त शत्रु निरन्तर षड्यन्त्र करते ही रहते हैं।
तक्षक कालसर्पयोग :
सप्तमसे लग्नतक यह योग होता है। इसमें सर्वाधिक प्रभाव वैवाहिक जीवन एवं सम्पत्तिके स्थायित्वपर पड़ता है। जातकको शत्रुओंसे हमेशा हानि मिलती है और असाध्य रोगोंसे जूझना पड़ता है। पदोन्नतिमें निरन्तर अवरोध आते हैं। मानसिक परेशानीका कोई-न-कोई कारण उपस्थित होता रहता है।
कर्कोटक कालसर्पयोग:
अष्टम भावसे द्वितीय भावतक कर्कोटकयोग होता है। जातक रोग और दुर्घटनासे कष्ट उठाता है, ऊपरी बाधाएँ भी आती है अर्थहानि, व्यापारमें नुकसान नौकरी में परेशानी, अधिकारियोंसे मनमुटाव, पदावनति, मित्रोंसे हानि एवं साझेदारीमें धोखा मिलता है रोगोंकी अधिकता, शल्यक्रिया, जहरका प्रकोप एवं अकाल मृत्यु आदि योग बनते हैं।
शंखनाद / शंखचूड़ कालसर्पयोग :
यह योग नवमसे तृतीय भावतक निर्मित होता है। यह योग भाग्यको दूषित करता है। व्यापारमें हानि एवं पारिवारिक तथा अधिकारियोंसे मनमुटाव कराता है, फलतः शासनसे कार्योंमें अवरोध होते हैं। जातकके सुखमें कमी देखनेको मिलती है।
पातक कालसर्पयोग :
दशमसे चतुर्थ भावतक यह योग होता है। दशम भावसे व्यवसायकी जानकारी मिलती है। सन्तानपक्षको बीमारी भी होती है। दशम एवं चतुर्थसे माता-पिताका अध्ययन किया जाता है, अतः माता-पिता, दादा-दादीका वियोग राहुकी महादशा / अन्तर्दशामें सम्भाव्य है।
विषाक्त / विषधर कालसर्पयोग :
-राहु-केतुके एकादश पंचममें स्थित होनेपर इस योगसे नेत्रपीड़ा, हृदयरोग, बन्धुविरोध, अनिद्रारोग आदि स्थितियाँ बनती हैं। जातकको जन्मस्थानसे दूर रहनेको बाध्य होना पड़ता है। किसी लम्बी बीमारीको सम्भावना रहती है।
शेषनाग कालसर्पयोग :
द्वादशसे षष्ठ भावके इस योगमें जातकके गुप्त शत्रुओंकी अधिकता तो होती ही है साथ ही वे जातकको निरन्तर नुकसान भी पहुँचाते रहते हैं। जिन्दगीमें बदनामी अधिक होती है। नेत्रकी शल्यक्रिया करवानी पड़ सकती है। कोर्ट-कचहरीके मामलोंमें पराजय मिलती है।
*कालसर्प योग के लक्षण :*
कालसर्पयोगसे जो जातक प्रभावित होते हैं, उन्हें प्रायः स्वप्नमें सर्प दिखायी देते हैं। जातक अपने कार्यों में अथक परिश्रम करनेके बावजूद आशातीत सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। हमेशा मानसिक तनावसे ग्रस्त रहता है, जिसके कारण सही निर्णय लेनेमें असमर्थ रहता हैं। अकारण लोगोंसे शत्रुता मिलती है।
गुप्त शत्रु सक्रिय रहते हैं, जो कार्योंमें अवरोध पैदा करते हैं। पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण हो जाता है। विवाहमें विलम्ब या वैवाहिक जीवनमें तनावके साथ विच्छेदतककी स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं।
सर्वाधिक अनिष्टकारी समय :
जातकके जीवनमें सर्वाधिक अनिष्टकारी समय निम्न अवस्था में होता है :
राहु की प्रत्यन्तर दशा में अथवा शनि, सूर्य तथा मंगलकी अन्तर्दशामें ।
जीवनके मध्यकाल लगभग ४० से ४५ वर्षकी आयु में।
ग्रह-गोचर में कुण्डली में जब-जब कालसर्पयोग बनता हो।
उपर्युक्त अवस्थाओंमें कालसर्पयोग सर्वाधिक प्रभावकारी होता है एवं जातकको इस समय शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यावसायिक इत्यादि क्षेत्रमें कठिनाईका सामना करना पड़ता है।
कालसर्पयोग शान्ति के कुछ स्थान :
१-कालहस्ती शिवमन्दिर, तिरुपति ।
२- त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग, नासिक।
३- त्रिवेणी संगम, प्रयागराज।
४- त्रियुगी नारायण मन्दिर, केदारनाथ।
५- त्रिनागेश्वर मन्दिर, जिला तंजौर ।
६- सिद्धशक्तिपीठ, कालीपीठ, कलकत्ता ।
७-भूतेश्वर महादेवमन्दिर नीमतल्लाघाट, कलकत्ता ।
८-गरुड़-गोविन्द मन्दिर छटीकारा गाँव एवं गरुड़ेश्वरमन्दिर बडोदरा।
९- नागमन्दिर, जैतगाँव, मथुरा।
१०- चामुण्डादेवी मन्दिर, हिमाचलप्रदेश। ११- मनसादेवी मन्दिर, चण्डीगढ़।
१२- नागमन्दिर ग्वारीघाट, जबलपुर।
१३ – महाकालमन्दिर, उज्जैन ।
कालसर्पयोगकी शान्ति किसी पवित्र नदीतट, नदीसंगम, नदीकिनारेके श्मशान, नदीकिनारे स्थित शिवमन्दिर अथवा किसी भी नागमन्दिरमें की जाती है। कभी-कभी देखनेमें आता है कि अनेक दैवज्ञ यजमानके घरों (निवास) में ही कालसर्पयोगकी शान्ति करवा देते हैं। ऐसा ठीक नहीं प्रतीत होता।r रुद्राभिषेक तो घरमें किया जा सकता है, किंतु कालसर्पयोगकी शान्ति निवासस्थलमें नहीं करनी चाहिये।
*राहु-कृत पीड़ा के उपाय :*
यदि जन्मांग में राहु अशुभ स्थितिमें हो तो उससे बचनेके लिये कस्तूरी, तारपीन, गजदन्तभस्म, लोबान एवं चन्दनका इत्र जलमें मिलाकर स्नान करनेसे राहुकी पीड़ासे शान्ति मिलती है। इसके लिये नक्षत्र, योग, दिन, दिशा एवं समयका विशेष ध्यान रखना चाहिये। ऐसे जातकोंको गोमेदका दान करना चाहिये।
राहु के दान :
राहु की पीड़ाके निवारणहेतु जातकोंको निम्न वस्तुओंका दान बुधवार या शनिवारके दिन करना चाहिये- १- सरसोंका तेल, २- सीसा, ३- काला तिल, ४- कम्बल, ५-तलवार, ६ स्वर्ण, ७-नीला वस्त्र, ८- सूप, ९- गोमेद, १०- काले रंगका पुष्प, ११- अभ्रक, १२- दक्षिणा । उपर्युक्त वस्तुओंका दान किसी शनिका दान लेनेवालेको दें अथवा किसी शिवमन्दिरमें रात्रिकालमें बुधवार या शनिवारको छोड़ दें।
काल-सर्प-योग-शान्ति के उपाय :
कालसर्पयोगका सर्वमान्य शान्ति उपाय रुद्राभिषेक है। श्रावणमासमें अवश्य नियमित करें।
बहते जलमें विधानसहित पूजनकर दूधसे पूरितकर चाँदीके नाग-नागिनके जोड़ेको प्रवाहित करें।
तीर्थराज प्रयागमें तर्पण एवं श्राद्धकर्म सम्पन्न करें।
कालसर्पयोगमें राहुकी शान्तिका उपाय रात्रिके समय किया जाय। राहुके सभी पूजन शिवमन्दिर में रात्रिके समय या राहुकालमें करें।
राहुके हवनहेतु दूर्वाका उपयोग आवश्यक है। राहुके पूजनमें धूप एवं अगरबत्तीका उपयोग न करें। इसके स्थानपर कपूर, चन्दनका इत्र उपयोग करें।
शिवलिंगपर मिसरी एवं दूध अर्पित करें। शिवताण्डवस्तोत्रका नियमित पाठ करें।
घरके पूजास्थलमें भगवान् श्रीकृष्णकी मोरपंखयुक्त मूर्तिका नियमित पूजन करें।
पंचाक्षरमन्त्रका नियमित जप करें। नियमित मूलीदान एवं बहते जलमें कोयले प्रवाहित करते रहने से स्थायी शान्ति प्राप्त होती है।
मसूरकी दाल एवं कुछ पैसे सफाई कर्मचारीको प्रातःकाल दें।
निम्न नवनागस्तोत्रके नौ पाठ प्रतिदिन करें :
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शङ्खपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ॥
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः॥.
•भावोंके अनुसार कालसर्पयोगके निवारणके अन्य उपाय :*
प्रथम भाव : गलेमें हमेशा चाँदीका चौकोर टुकड़ा धारण करें।
द्वितीय भाव : घरके उत्तर-पश्चिम कोणमें सफाईकर मिट्टीके बर्तनमें पानी भर दें। प्रतिदिन पानी बदलें। बदले हुए पानीको चौराहे में डालें।
त्रितीय भाव – अपने जन्मदिनपर गुड़, गेहूँ एवं ताँबे का दान करें।
चतुर्थभाव – प्रतिदिन बहते हुए जलमें दूध बहायें।
पंचम भाव : घरके ईशानकोणमें सफेद हाथीकी मूर्ति रखें।
षष्ठभाव – प्रत्येक माहकी पंचमी तिथिको एक नारियल बहते हुए जलमें प्रवाहित करें।
सप्तमभाव : मिट्टीके बर्तनमें दूध भरकर निर्जन स्थानमें रख आयें।
अष्टमभाव : प्रतिदिन काली गायको गुड़, रोटी, काले तिल एवं उड़द खिलायें।
नवमभाव : शिवरात्रिके दिन १८ नारियल सूर्योदयसे सूर्यास्ततक १८ मन्दिरोंमें रखें। यदि १८ मन्दिर पासमें न हों तो दुबारा उसी क्रमसे मन्दिरोंमें दान कर सकते हैं।
दशमभाव – किसी महत्त्वपूर्ण कार्यको घरसे जाते समय काली उड़दके दाने सिरसे सात बार घुमाकर बिखेर दें।
एकादशभाव : प्रत्येक बुधवारको घरकी सफाईकर कचरा बाहर फेंक दें। उस दिन फटा वस्त्र पहनें।
द्वादशभाव : प्रत्येक अमावास्याको काले कपड़े में काला तिल, दूधमें भीगे जौ, नारियल एवं कोयला बाँधकर जलमें बहायें।
शिवपंचाक्षरमन्त्र एवं शिवपंचाक्षरस्तोत्रका नियमित जप करने एवं कालसर्पयन्त्रके नियमित पूजन, शिवलिंग तथा चित्रपर चन्दनका इत्र लगानेसे शान्ति प्राप्त होती है। लगातार ४५ दिनका अनुष्ठान निश्चित शान्ति देता है। अनुष्ठान के समय अथवा मन्त्रजपके दौरान केवल इत्र एवं कपूरका प्रयोग ही करें। अगरबत्तीके धुएँ एवं दीपसे नागोंको गर्माहट मिलती है, जिससे वे क्रोधित होते हैं, अतः इन वस्तुओंका उपयोग न करें।
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय
भस्माङ्गरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय
तस्मै नकाराय नमः शिवाय ॥१॥
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय
नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय ।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय
तस्मै मकाराय नमः शिवाय ॥२॥
शिवाय गौरीवदनाब्जबृंदा
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय
तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ॥३॥
वशिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य
मूनीन्द्र देवार्चिता शेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय
तस्मै वकाराय नमः शिवाय ॥४॥
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय
पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय
तस्मै यकाराय नमः शिवाय ॥५॥
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं
यः पठेच्छिवसंनिधौ ।
शिवलोकमावाप्नोति
शिवेन सह मोदते.
शिवकृपा से कुछ भी अप्राप्य नहीं है। माँ का नाम- जप करते हुए शिवलिंग पर जल की निरन्तर धार छोड़ते हुए निम्न मन्त्र का जप करने से कालसर्पदोष, पितृदोष, शापित कुण्डली के दोषका पूर्णत: शमन सम्भव हो जाता है-
“नर्मदायै नमः प्रातर्नर्मदायै नमो निशि।
नमोऽस्तु नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतःII