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फ्रैंक हुजूर :एच.एल. दुसाध की श्रद्धांजलि

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हाशिये के समाज में जन्मे किसी लेखक के आकस्मिक तौर पर निधन से बहुसंख्य वंचित वर्गों के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्टों को 6 मार्च, 2025 जैसा आघात कब लगा था, मुझे याद नहीं! उस दिन सुबह अपार प्रतिभा और अतुलनीय मेधा के स्वामी फ्रैंक हुजूर के निधन की हतप्रभ कर देने वाली खबर सुनकर लोगों में जो शोक की लहर दौड़ी, वह शायद इससे पहले नहीं देखी गई, कम-से-कम हिंदी पट्टी में तो नहीं ही! शोक की ऐसी लहर 2014 में विश्व कवि नामदेव ढसाल के निधनोपरांत महाराष्ट्र में देखी गई थी। तब उनकी शवयात्रा में 60 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे।हम 2018 में एक साथ मिलकर ‘21वीं सदी में कोरेगांव’ जैसी किताब लाए। आगे चलकर हम सामाजिक अन्याय मुक्त भारत निर्माण के लिए एक बड़ी परिकल्पना को आकार देने में जुट गए थे, जिसका विस्तृत रूप 2022 के सितंबर में आई मेरी किताब ‘आजादी के अमृत महोत्सव पर : बहुजन डाइवर्सिटी मिशन की अभिनव परिकल्पना’ में सामने में आया।

6 मार्च की सुबह 9 बजे से सोशल मीडिया पर फ्रैंक हुजूर की हृदयाघात से निधन की खबर वायरल होने लगी। सामाजिक न्याय और समाजवादी विचारधारा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले फ्रैंक हुजुर के निधन से भारत में विविधता और समावेशन मिशन को अपूरणीय क्षति हुई है, ऐसा अधिकांश लोगों ने लिखा। ब्रिटिश शैली का सूट, बाएं हाथ में सिगार और दाहिने हाथ में कलम लिए उनकी जो एक युगांतकारी विचारक की छवि निर्मित हुई थी, लोग उसे याद कर रहे थे। लोग उनकी लाइफ स्टाइल, व्यवहार-सलीके, मेहमान-नवाजी के लखनवी अंदाज के साथ सोशलिस्ट फैक्टर मैगजीन के जरिए बेशुमार युवाओं को समाजवादी पार्टी से जोड़ने और आगे बढ़ाने के अवदानों को याद कर रहे थे। हृदय की अतल गहराइयों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके चाहने वाले उनकी अभिनेत्री पत्नी फर्मिना मुक्ता सिंह और बेटे मार्कोस के भविष्य को लेकर भी चिंता जाहिर कर रहे थे। उनमें हेमिंग्वे, रुश्दी, नायपॉल बनने की संभावना देखने वाले इस बात से नाराज दिखे कि क्यों वह लंदन छोड़कर भारत आ गए और समाजवादी पार्टी पर निर्भर हो गए। उन्हें लंदन या न्यूयार्क में ही बैठकर लेखन करते रहना चाहिए था।

फ्रैंक हुजूर ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से ज़माने पर क्या प्रभाव छोड़ा था, उसकी एक झलक मुझे अपने नाती तन्मय रंजन के पोस्ट में देखने को मिली। लगभग 16 वर्ष के तन्मय को फ्रैंक हुजूर का प्रत्यक्ष स्नेह मिला था। उसने स्कूल की परीक्षा के बीच दो ऐसी मार्मिक कविताएं लिखीं। फिर उसने अंग्रेजी में लगभग डेढ़ हजार शब्दों में उनकी जीवनी भी पोस्ट कर डाली, जिसमें उनके जीवन के विभिन्न पक्ष शामिल थे।

एक पत्रकार, लेखक और समाजवादी विचारक फ्रैंक हुजूर का जीवन शब्दों, विचारधारा और न्याय की अथक खोज का संगम था। उनका जन्म 21 सितंबर, 1977 को बिहार के बक्सर में हुआ था। जब वह केवल छह महीने के थे, उनकी मां का निधन हो गया। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता बब्बन सिंह ने किया, जो एक पुलिस अधिकारी (डीएसपी) थे। 1990 के दशक में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेज से पूरी की और फिर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली चले गए, जहां उन्होंने भारत के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज में दाखिला लिया। पढ़ाई के दौरान, उन्होंने 1990 के दशक के मध्य में ‘हिटलर इन लव विद मैडोना’ नामक एक नाटक लिखा, जो जल्द ही भारत में एक विवादास्पद विषय बन गया। इस नाटक में कट्टर हिंदुत्व की आलोचना और भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न उठाए गए थे, जिसके कारण गृह मंत्रालय ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। यही उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस नाटक के कारण उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें गुमनामी में जाना पड़ा। उनकी पत्रिका ‘यूटोपिया’ भी केवल 13 अंकों के बाद बंद हो गई। इस विवाद के बाद, मई, 2002 में उन्होंने ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नामक एक और प्रगतिशील नाटक लिखा, जो 2002 के गुजरात दंगों पर आधारित था, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया।

फ्रैंक हुजूर की आखिरी सार्वजनिक तस्वीर, जिसमें वे राहुल गांधी को अपनी किताब भेंट दे रहे हैं। साथ में इस आलेख के लेखक एच.एल. दुसाध व अन्य

फ्रैंक हुज़ूर (जिनका नाम मनोज यादव था) ने 2 जुलाई, 2002 को आधिकारिक रूप से अपना कलमी नाम ‘फ्रैंक हुज़ूर’ अपना लिया। उन्होंने कहा था, “लोग कहते हैं कि मेरी मां, जिनका निधन तब हो गया था जब मैं छह महीने का था, मुझे हुज़ूर कहकर पुकारती थीं।” ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नामक नाटक उनके व्यक्तिगत जीवन में भी महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस नाटक के निर्माण के दौरान उन्होंने निर्देशक मुक्ता सिंह के साथ काम किया। उनका पेशेवर सहयोग धीरे-धीरे व्यक्तिगत संबंध में बदल गया, लेकिन उनकी शादी जातिगत भेदभाव के कारण विवादों में आ गई। अंततः, 9 जुलाई, 2002 को उन्होंने सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए मुक्ता सिंह से प्रेम विवाह किया। विवाह के बाद, वे प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार राजेंद्र यादव के पास गए, जिन्होंने उन्हें समर्थन दिया। इस कारण वे हर साल 9 जुलाई को अपनी शादी की वर्षगांठ मनाते थे। 2004-08 के दौरान उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियता से काम किया।

उन्होंने ‘इमरान वर्सेज इमरान: द अनटोल्ड स्टोरी’ नामक एक जीवनी लिखी, जो पाकिस्तानी क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के जीवन पर आधारित थी। 2008-12 के दौरान वे लंदन चले गए और वहां के साहित्यिक और कलात्मक परिवेश से जुड़े। लंदन में उन्होंने अपने संस्मरण ‘सोहो’ पर काम किया, जिसमें उनकी वहां के जीवनशैली और अनुभव शामिल हैं। इसी दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से मुलाकात की, जिनके साथ उनकी मित्रता हो गई। अखिलेश यादव ने उनकी राजनीतिक क्षमता को पहचानते हुए उन्हें भारत वापस बुलाया। भारत लौटने के बाद उन्होंने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक एक मासिक पत्रिका शुरू की, जो समाजवादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए समर्पित थी। उन्होंने मुलायम सिंह यादव की जीवनी ‘द सोशलिस्ट: मुलायम सिंह यादव’ और अखिलेश यादव की जीवनी ‘टीपू स्टोरी’ लिखी।

व्यक्तिगत रूप से मैं लेखन की दुनिया से जुड़े होने के बावजूद लेखकों की सभा-संगोष्ठियों में जाने से आज भी परहेज करता हूं। इसलिए बहुत ही कम लेखकों से मेरा परिचय है। संभवतः अपनी इस कमी के कारण फ्रैंक हुजूर का पहली बार नाम 2014 में उनके साहित्यिक आइकॉन राजेंद्र यादव के निधन के बाद सुना। फेसबुक से पता चला कि फ्रैंक हुजूर ने ही सबसे पहले राजेंद्र यादव के निधन की जानकारी दी। उनके यूनिक नाम ने भी मुझे अलग से आकर्षित किया। उसके बाद उनमें रूचि लेने लगा और ज्यों-ज्यों उनके विषय में जानकारी मिलती गई, उनके प्रति आकर्षण भी बढ़ता गया। अंततः 2015 के जाते-जाते मैने समाजवादी पार्टी से जुड़े भाई चंद्रभूषण सिंह यादव से निवेदन कर डाला कि वह स्टाइलिश फ्रैंक हुजूर से मिलवा दें और उन्होंने मेरे अनुरोध का मान रखा। एक दो मुलाकातों के बाद ही हमदोनों न सिर्फ एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए, बल्कि एक-दूसरे के मुरीद भी बन गए। दो कारण रहे। एक तो सोच से हम दोनों हिंदू धर्म और संस्कृति से पूरी तरह मोहमुक्त और काफी हद तक पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित रहे। और दूसरा कारण यह कि हमदोनों के दिलों में सामाजिक अन्याय के खिलाफ समान रूप से आग धधकती रही। हमदोनों ही सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के आकांक्षी रहे। हमारे बीच की निकटता दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होती गई। कभी एक पल के लिए भी उसमें शिथिलता नहीं आई। हम एक दूसरे से इतना प्रभावित रहे कि 2017 के जुलाई में फ्रैंक हुजूर ने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ मैगजीन में भारत के सर्वकालिक 100 ग्रेटेस्ट इंडियंस की जो सूची जारी की, उसमें मुझे भी स्थान दिया। बाद में जीवन के शेष दिनों तक जगह-जगह उल्लेख करने के साथ लोगों से मेरा परिचय कराते हुए वे कहते रहे कि “दुसाध को मैं दिलीप मंडल के साथ भारत का चोम्स्की या फिर कहें तो कैटलीन जोंस्टन मानता हूं।” मैंने भी उन्हें ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’, जिसका संस्थापक अध्यक्ष मैं स्वयं हूं, की ओर से उन्हें 2017 के दिसंबर में चंद्रभूषण सिंह यादव और डॉ. कौलेश्वर प्रियदर्शी के साथ ‘डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द ईयर’ खिताब से नवाजा। इतना ही नहीं, बाद में वह ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेवारी निभाते रहे।

सामाजिक अन्याय से मुक्त भारत निर्माण की तीव्र चाह ने हमें दो जिस्म एक जान में तब्दील कर दिया था। इसके कारण ही हम 2018 में एक साथ मिलकर ‘21वीं सदी में कोरेगांव’ जैसी किताब लाए। आगे चलकर हम सामाजिक अन्याय मुक्त भारत निर्माण के लिए एक बड़ी परिकल्पना को आकार देने में जुट गए थे, जिसका विस्तृत रूप 2022 के सितंबर में आई मेरी किताब ‘आजादी के अमृत महोत्सव पर : बहुजन डाइवर्सिटी मिशन की अभिनव परिकल्पना’ में सामने में आया। इसके लिए हमने यूनिवर्सल रिजर्वेशन फ्रंट बना कर हस्ताक्षर अभियान चलाने की कार्ययोजना बनाया था। इस किताब की भूमिका फ्रैंक हुजूर ने लिखी। 

लोकसभा चुनाव 2024 की पृष्ठभूमि में 24-26 फरवरी, 2023 को रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय से जुड़े कई प्रस्ताव पास हुए। इन प्रस्तावों से मुतस्सिर होनेवालों में एक मैं भी था। बाद में जब मई, 2023 में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में कर्नाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केंद्रित करते हुए भाजपा को गहरी शिकस्त दिया, मुझमें यह विश्वास पनपा कि कांग्रेस अगले लोकसभा को सामजिक न्याय पर केंद्रित कर सकती है और अगर ऐसा करती है तो मोदी की सत्ता में वापसी मुश्किल हो जाएगी। लोकसभा चुनाव करीब आते-आते मुझे राहुल गांधी में समतामूलक भारत निर्माण की आखिरी उम्मीद नजर आने लगी। ऐसे में उनका हाथ मजबूत करने के लिए सक्रिय रूप से कांग्रेस से जुड़ने का मन बनाने लगा। मैंने अपनी यह ख्वाहिश और किसी के सामने नहीं, सिर्फ फ्रैंक हुजूर के समक्ष रखी। उन्होंने मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए ऐसे किसी व्यक्ति से मिलवाने का आश्वासन दिया, जिसके जरिए मैं यूपी कांग्रेस नेतृत्व से मिल सकूं। उनका प्रयास रंग लाया और उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के एक बेहद करीबी से उनके ही आवास पर एक बैठक हुई। अजय राय के उस करीबी ने कुछ दिन बाद उनसे मुलाकात का समय तय किया। नियत समय पर मैं फ्रैंक हुजूर के साथ ही अजय राय से मिलने कांग्रेस मुख्यालय गया। उसके बाद दो-तीन बार और कांग्रेस मुख्यालय गया। हर बार फ्रैंक मेरे साथ रहे। लेकिन एकाधिक कारणों से मैं कांग्रेस ज्वाइन करने से पीछे हट गया। इस दरम्यान फ्रैंक को भी राहुल गांधी में उम्मीद की किरणें दिखने लगी थीं।

उस समय तक ‘संविधान बचाओ संघर्ष समिति’ के संयोजक डॉ. अनिल जयहिंद राहुल गांधी के करीब आ चुके थे। मैंने उन्हें राहुल गांधी के प्रति फ्रैंक हुजूर के आकर्षण से अवगत कराया। इसके बाद उन्होंने 13 जनवरी, 2024 को राहुल गांधी से बहुजन बुद्धिजीवियों को मिलवाने का जो कार्यक्रम तय किया, उसमें फ्रैंक को भी बुलाने का अनुरोध किया और 13 जनवरी को 10 जनपथ में मेरे साथ फ्रैंक हुजूर भी पहली बार राहुल गांधी से मिले। उसी दिन शायद पहली बार प्रो. रतनलाल और प्रो. सूरज मंडल भी हमारे साथ राहुल गांधी से मिले।

फ्रैंक के साथ मेरे आखिरी साढ़े छह घंटे!

बीते 4 मार्च को राहुल गांधी से मिलने का समय 4 बजे निर्दिष्ट हुआ था। इस क्रम में डॉ. जयहिंद ने कहा था कि राहुल जी से मिलने जाने वाले 3 बजे तक प्रेस क्लब आ जाएं। मैं ठीक 3 बजे पटना से आए अमर आजाद के साथ प्रेस क्लब में प्रवेश किया। फ्रैंक हुजूर पहले से बैठे दिखे। मैं उनके पास पहुंच कर हाथ मिलाया। हमलोग शायद कुछेक माह के अंतराल पर मिले थे। किराये के नए मकान में शिफ्ट करने के बाद एक डेढ़ माह पहले उन्होंने मुझे आमंत्रित किया था। लेकिन समयाभाव के कारण जा न सका था। खैर, 4 मार्च को उनके चेहरे पर पहले वाली चमक नहीं दिख रही थी। कारण, पूछने पर उन्होंने बताया कि कल ठंड लग गई थी। थोड़ी देर बाद हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. जगदीश प्रसाद भी आ गए और फ्रैंक के बगल में बैठ गए। उन्होंने भी कहा कि लगता है आपकी तबियत ठीक नहीं है। फ्रैंक ने उन्हें भी जवाब दिए कि कल ठंड लग गई थी।

बहरहाल पौने चार बजे के करीब हम सब 10 जनपथ के लिए रवाना हुए, जहां 4.30 बजे राहुल गांधी हम लोगों के बीच आए। 13 जनवरी, 2024 के बाद यह दूसरा अवसर था जब हम दोनों एक साथ राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे। मीटिंग हॉल में हम दोनों सबसे अंत में एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे थे। सबकी भांति फ्रैंक भी अपना परिचय देने के बाद डेढ़-दो मिनट अपनी बात रखे और राहुल गांधी सहित सभी मुग्ध भाव से सुनते रहे। उनके बाद आखिर में मुझे अपना परिचय देने का अवसर मिला। साढ़े पांच बजे के बाद मीटिंग ख़त्म हुई। उसके बाद फोटो सेशन शुरू हुआ। फ्रैंक के जीवन की जो आखिरी तस्वीर ली गई, उसमें राहुल गांधी के चेहरे से अलग ख़ुशी झलक रही थी। शायद वह फ्रैंक के व्यक्तित्व से अतिरिक्त रूप से इम्प्रेस हुए थे, जिसकी झलक उनके उस पत्र में भी दिखी, जो उन्होंने उनके निधन के बाद कुछ देर से उनकी जीवन संगिनी मुक्ता जी के नाम लिखा था। उन्होंने लिखा–

श्रीमती फ़रमीना मुक्ता सिंह, 

मैं कुछ दिन पहले ही फ़्रैंक से मिला था। हमने उनकी पसंदीदा किताब, उनके काम को पकड़े हुए एक फ़ोटो खिंचवाई, और जब वे चले गए तो मैंने खुद से कहा कि वे कितने भावुक व्यक्ति हैं। वे आगे के काम को लेकर उत्साहित थे। लोगों को एक साथ लाने की उनकी योजनाओं को लेकर उत्साहित थे। फ़्रैंक की सक्रियता, साथ ही साथ उनकी बौद्धिक खोज उनकी प्रतिबद्धता से प्रेरित था।

खैर, राहुल गांधी से मुलाकात के बाद जब सभी अपने-अपने ठिकाने के लिए रवाना होने लगे। फ्रैंक ने मुझसे पूछा कि आप किधर जाएंगे? जब उन्हें पता चला कि मैं प्रो. रतनलाल से मिलने हिंदू कॉलेज जा रहा हूं, तब उन्होंने कहा कि हम साथ-साथ चलेंगे। मुझे मॉडल टाउन अपने मित्र के घर जाना है। फिर हमदोनों डॉ. जगदीश प्रसाद की गाड़ी में बैठ कर केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन पहुंचे। प्लेटफार्म पर पहुंचने के साथ ही ट्रेन आ गई। पर, वह विश्वविद्यालय तक के लिए थी। इसे देखकर उन्होंने कहा आप निकल लीजिये, मैं अगली ट्रेन से जाऊंगा। फिर मैंने कहा साथ में चलते हैं, आगे चलकर ट्रेन बदल लीजियेगा और वह मान गए। सीट नहीं मिली थी और हम खड़े होकर यात्रा कर रहे थे। कश्मीरी गेट पहुंचते ही अचानक वह बेहोश होकर पीछे की ओर गिरने लगे। मैंने उन्हें थाम लिया और बगल वाली सीट पर बिठा दिया। एक महिला ने पानी की बोतल बढ़ा दिया। कुल मिलाकर बमुश्किल 45 सेकेंड में वह सामान्य हो गए। सामान्य होने के बाद झेंप मिटाने के लिए वह मुस्कुराने लगे। कुछ ही मिनटों में ट्रेन विश्वविद्यालय पहुंच गई। ट्रेन से उतरने के बाद उन्होंने कहा कि आप प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर निकलिए, मैं मॉडल टाउन के लिए आगे बढ़ता हूं। मैंने मना करते हुए कहा कि आप मॉडल टाउन न जाकर पहले हिंदू कॉलेज चलें और प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर पर रेस्ट कर लें। वह मान गए।

यद्यपि मेट्रो से बाहर निकलते समय वह सामान्य तरीके से चल रहे थे, फिर भी मैं उनका हाथ थामे हुए था। ऊपर आकर मैंने ई-रिक्शा बुलाया, पर, उन्होंने पैडल रिक्शा से चलने की इच्छा जताई। रास्ते में एक जगह रिक्शा रोक कर वह एक मेडिकल स्टोर में गए और क्रोसिन के कुछ टेबलेट लेकर आए। उन्हें सांस लेने में कुछ दिक्कत हो रही थी। इसलिए मैंने स्टोर वाले से पूछ कर उनके लिए रोटाहेलर और फोराकोर्ट – 400 कैप्सूल ले लिया। श्वांस कष्ट से बचने के लिए मैं खुद हर समय यह साथ रखता हूं। बहरहाल 7 बजे के करीब हमदोनो प्रो. रतनलाल के आवास पर पहुंचे। उस समय उन्हें ठंड लग रही थी। फ्रैंक कंबल ओढ़कर आराम करने लगे। उसके बाद प्रो. रतनलाल ने एक डॉक्टर को फोन कर उनकी तबियत का ब्यौरा देकर दवा लिखवाने लगे, पर उन्होंने कोई दवा लेने से मना कर दिया। फिर प्रो. रतनलाल ने उनके लिए काढ़ा बनवाया। कुछ देर आराम करने के बाद उन्होंने फ्रैंक से हॉस्पिटल चलने को कहा। लेकिन उन्होंने इनकार करते हुए मॉडल टाउन जाने की इच्छा जताई। कुछ देर बाद प्रो. रतनलाल भांप लेने की व्यवस्था कर दी। यह सब करने के बाद उन्होंने जैसे एक शिक्षक छात्र को आदेश करता है, उसी तरह आदेश देते हुए कहा कि तुम आज न तो ड्रिंक लोगे और न ही सिगरेट पियोगे। इसके बाद उन्हें रेस्ट लेने के लिए छोड़कर हमदोनों कमरे से बाहर आ गए और बीच-बीच में कमरे में जा कर उनकी तबियत का जायजा लेते रहे। इस दरम्यान वह अपनी तबीयत के बजाय ज्यादा बेचैन मॉडल टाउन अवस्थित अपने मित्र के घर जाने के लिए दिखे। अंततः मॉडल टाउन वाले उनके मित्र 9.30 के करीब अपनी गाड़ी लेकर प्रो. रतनलाल के दरवाजे पर हाजिर हो गए और पांच मिनट के लिए अंदर उन्हें लेकर चल दिए। जब वे दोनों जाने लगे तब प्रो. लाल ने उनदोनों की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल लिया। इससे पहले मना करने के बावजूद फ्रैंक एक सिगरेट पी चुके थे। इस तरह 3 बजे से लेकर 9.30 बजे तक यानी कुल साढ़े छह घंटे साथ गुजारने के बाद फ्रैंक ने हमसे विदा लिया।

अगले दिन 5 मार्च की सुबह 9 बजे के करीब मैंने फ्रैंक का हाल चाल जानने के लिए फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि तबियत तो ठीक है, पर बदन में दर्द है। यह जानकार मुझे अच्छा नहीं लगा कि 3 मार्च को उन्हें ठण्ड लगी और अब तक उनके बदन में दर्द है। कुछ चिंतित होकर मैंने डॉ. अनिल जयहिंद को फ़ोन लगाया और बताया कि फ्रैंक के बदन में अब भी दर्द है। उनका इलाज होना चाहिए। करीब 20-25 मिनट बाद ही उनके सहयोगी वेद प्रकाश तंवर का फ़ोन आया। उन्होंने बताया कि हिंदूराव अस्पताल के तीन डॉक्टरों से बात हो चुकी है। उन्हें (फ्रैंक हुजूर को) कहिये कि जाकर उनसे मिल लें। वे वहां उनका इंतजार करते मिलेंगे। फिर तंवर जी ने तीनों डॉक्टरों का संपर्क नंबर मुझे सुलभ करा दिया। मैंने वह नंबर जल्द ही 9.57 पर व्हाट्सप कर दिया और अनुरोध किया कि बिना आलस्य किये अस्पताल पहुंच जाएं और उन्होंने जाने के लिए आश्वस्त भी किया। उसके बाद मैं प्रो. रतनलाल से विदा लेकर नवीन शाहदरा पहुंच गया, जहां मेरी आने वाली तीन किताबों पर काम चल रहा था। दोपहर डेढ़-दो बजे के आसपास फोन लगाया तो पता चला कि फ्रैंक अभी तक अस्पताल नहीं पहुंचे हैं। मैंने पुनः हिंदूराव अस्पताल जाने के लिए अनुरोध किया। जवाब मिला कि देखते हैं।

शाम 8 बजे मैं किशनगढ़ पहुंचा, जहां ठहरा हुआ था। वहां से 8.15 बजे के करीब फ्रैंक को फ़ोन लगाया तो पता चला कि वह अस्पताल नहीं गए। लखनऊ जाकर इलाज करवाएंगे। अस्पताल न जाने के लिए मैंने उन्हें हलकी-सी झिड़की लगायी और पूछा इस स्थिति में लखनऊ कैसे जाएंगे? उन्होंने बताया कि किसी से बात हो चुकी है कि सड़क मार्ग से वे लखनऊ जाएंगे। मैंने कहा कि लखनऊ पहुंचकर बिना देर किये डाक्टर से जरूर मिलिएगा। उन्होंने कहा– ‘श्योर’! यही मेरा उनसे आखिरी वार्तालाप रहा!

6 मार्च की सुबह पहला फोन डॉ. अनिल जयहिंद का आया। वे राहुल गांधी से हुई मीटिंग के बारे में बात कर रहे थे। मैंने फ्रैंक हुजुर की तबियत के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि दो बार उन्हें फोन लगाया, पर, दोनों बार ही उनका फोन स्विच ऑफ़ मिला। उनसे बात पूरी होने के बाद देखा कि प्रो. रतनलाल का मिस कॉल पड़ा है। मैंने वापस उन्हें कॉल किया तो उन्होंने कहा– “फ्रैंक के विषय में कुछ पता है?” मैंने कहा– “नहीं!” उन्होंने कहा– “फ्रैंक नहीं रहे!”

(लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।)

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