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सरकारें विकास के नाम पर उन्हें अपने जंगल और जमीन से दूर न करे – भोपाल में ‘विश्वरंग-2022’ में बोले साहित्यकार

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मनीष भट्ट मनु

गत 14 नवंबर, 2022 से लेकर 20 नवंबर तक मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ‘विश्वरंग-2022’ का आयोजन किया गया। इस आयोजन में 35 देशों के साहित्यकार व कलाकार शरीक हुए। आयोजन के क्रम में विलुप्त होतीं आदिवासी भाषाओं पर विस्तार से चर्चा हुई। इस विषय पर बोलते हुए अनेक आदिवासी साहित्यकारों ने कहा कि आदिवासी अपनी सामूहिकता के बल पर अपनी भाषाओं और बोलियों को बचा लेंगे। बस सरकारें विकास के नाम पर उन्हें अपने जंगल और जमीन से दूर न करे।

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2019 को अंतरराष्ट्रीय स्वदेशी भाषा वर्ष या अंतरराष्ट्रीय आदिवासी भाषा वर्ष घोषित करते हुए यह चिंता जाहिर की थी कि विश्व की लगभग 7000 भाषाओं में से 40 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर है। इनमें सर्वाधिक खतरा आदिवासी भाषाओं को है। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने 22 मार्च 2021, को घोषणा की कि वर्ष 2022 से वर्ष 2032 के दशक को ‘आदिवासी दशक’ के रूप में मनाया जाएगा, जो सिर्फ भाषा के संरक्षण व संवर्द्धन पर केंद्रित होगा। घोषणा में आदिवासी भाषाओं के संरक्षण व उत्थान के लिए क्या-क्या किया जाना है, उसे भी रेखांकित किया गया है।

मगर, आदिवासी समाज का एक बड़ा वर्ग इन वैश्विक प्रयासों पर प्रश्न उठा रहा है। उसका मानना है कि आदिवासी भाषाओं को लेकर गैर आदिवासी समाज जिस तरह आदिवासियों को नजरअंदाज कर रहा है, उसे किसी भी परिस्थिति में सही करार नहीं दिया जा सकता। वे आरोप लगाते हैं कि एक बार फिर अब भाषा के नाम पर आदिवासी समाज को गैर आदिवासियों के नजरिए से प्रस्तुत कर उसे सहानुभूति का पात्र बनाने की साजिश रची जा रही है। उन्हें संदेह है कि इस पूरी कवायद का मकसद अब आदिवासियों से उनकी भाषा भी छीन लेना है। 

कार्यक्रम में मौजूद हीरा मीणा, वंदना टेटे व अन्य

अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 19,569 बोलियां हैं, जो विभिन्न भाषाओं में बंटी हुई हैं। यह अलग बात है कि इनमें से केवल 121 भाषाएं/बोलियां ही ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वालों की आबादी दस हजार से अधिक है। कुछ वर्ष पहले भारतीय भाषाओं पर भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण की रपट में कहा गया था कि भारत में 130 करोड़ लोगों द्वारा बोली जा रही भाषाओं में आधे से अधिक भाषाएं लुप्त हो जाएंगीं। मगर, इस पूरी कवायद पर सवाल उठा रहा आदिवासी समाज का तबका ऐसा नहीं मानता।

उल्लेखनीय है कि भाषायिक दृष्टि से भारत में आदिवासी भाषाओं के पांच प्रमुख परिवारों में बांटा जा सकता है। इनमें से पहला नाम है आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार । इसका अर्थ है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीप समूहों से लेकर प्रशांत महासागर के छोटे-बड़े द्वीपों को समेटते हुए आस्ट्रेलिया तक एक ही परिवार की भाषा बोली जाती है। यह आदिवासी भाषा परिवार मुख्य रूप से भारत में झारखंड, छत्तीसगढ, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के ज्यादातर हिस्सों में बोली जाती है। संख्या की दृष्टि से इस परिवार की सबसे बड़ी भाषा संथाली या संताली है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हो, मुंडारी, भूमिज, खड़िया, सावरा आदि हैं। दूसरा नाम चीनी तिब्बती भाषा परिवार का आता है। इस परिवार की ज्यादातर भाषाएं भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में बोली जाती हैं। इनमें नागा, मिजो, म्हार, मणिपुरी, तांगखुल, खासी, दफला, आओ आदि प्रमुख हैं। आदिवासी भाषा परिवार की तीसरी शाखा द्रविड़ है, जो भारत का दूसरा सबसे बड़ा भाषायी परिवार है। इस परिवार की गैर आदिवासी भाषाएं ज्यादातर दक्षिण भारत में बोली जाती हैं। इसमें तमिल, कन्नड़, मलयालम और तेलुगू भाषाएं हैं। परंतु द्रविड़ परिवार की आदिवासी भाषाएं पूर्वी, मध्य और दक्षिण तक के राज्यों में बोली जाती हैं। गोंड समुदाय की गोंडी, उरांव, किसान और धांगर समुदायों की कुड़ुख और पहाड़िया की मल्तो या मालतो द्रविड़ परिवार की प्रमुख आदिवासी भाषाएं हैं। चौथे स्थान पर है अंडमानी भाषा परिवार, जो जनसंख्या की दृष्टि से भारत का सबसे छोटा आदिवासी भाषाई परिवार है। इसके अंतर्गत अंडबार-निकाबोर द्वीप समूह की भाषाएं आती हैं। इनमें अंडमानी, ग्रेट अंडमानी, ओंगे, जारवा आदि प्रमुख हैं। पांचवा और अंतिम नाम भारोपीय भाषा परिवार का है। भारत की दो तिहाई से अधिक गैर आदिवासी आबादी इसी परिवार की कोई न कोई भाषा विभिन्न स्तरों पर प्रयोग करती है। इनमें संस्कृत, हिंदी, बांग्ला, गुजराती, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, उड़िया, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, गढ़वाली, कोंकणी आदि भाषाएं। साथ ही राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के भीलों की वर्तमान भीली, भिलाला और वागड़ी, इसी भारोपीय भाषा परिवार के अंतर्गत आती हैं।

आदिवासी भाषाओं के विलुप्त होने के खतरे को लेकर मचे हल्ले और इनके संरक्षण को लेकर की जा रही कवायद के विरोध में एक प्रमुख नाम अश्विनी कुमार पंकज का है। वे कहते हैं कि आदिवासी भाषाओं की तुलना में गैर आदिवासी भाषाओं, जो अंचल विशेष अथवा एक राज्य तक सीमित हैं, के विलुप्त होने का खतरा कहीं ज्यादा है। मगर कोई उसकी चर्चा नहीं कर रहा। एक सर्वेक्षण के हवाले से वह बतलाते हैं कि पश्चिम बंगाल की नई पीढ़ी बांग्ला भाषा को जिस तरह नजरअंदाज कर रही है, वह बंगाली समाज की चिंता के प्रमुख कारणों में है। इसी प्रकार भोजपुरी, मैथिली और मगही भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी लगातार कम हो रही है। इसके अतिरिक्त भी गैर आदिवासी समाज की कई मातृ भाषाएं ऐसी हैं, जिन्हे युवा पीढ़ी न बोल पाती है और ना ही समझ पाती है। 

गुजरात के डॉ. राजेश राठवा का मानना है कि गांवों में रोजी-रोटी का इंतजाम कर पाने में सरकारों की नाकामी और पलायन ने भाषाओं के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा किया है। वे यह भी कहते हैं कि स्थानीय आदिवासी समाज के शिक्षकों की नियुक्ति स्थानीय विद्यालयों में न होना भी भाषा के संरक्षण में एक बड़ी बाधा है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि जब तक स्थानीय समाज अपनी भाषाओं में साहित्य का सृजन, फिर चाहे वह किसी भी स्वरुप में हो, और उसका संरक्षण नहीं करेगा तब तक भाषाओं को नहीं बचाया जा सकता। वे स्थानीय भाषाओं में शैक्षिणिक सामग्री तैयार किए जाने पर भी जोर देते हैं। 

मगर अश्विनी कुमार पंकज का कहना है कि त्रिभाषा फार्मूले में भी हिंदी, अंग्रेजी और किसी राज्य की राजकीय भाषा पर ही सारा जोर है न कि आदिवासी भाषाओं पर। वे इस अवधारणा, कि आदिवासी भाषाओं का एक बड़ा हिस्सा विलुप्ति की कगार पर खड़ा है, को खारिज करते हुए कहते हैं कि आदिवासियों के प्रति सरकार और गैर आदिवासी समाज के गैर जिम्मेदार नजरिए और उपेक्षापूर्ण रवैये ने जब आदिवासियों को ही खात्मे की कगार पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी हो तो ऐसे में गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासी भाषाओं के संरक्षण की बात निस्संदेह बेमानी है। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि एक लंबे अरसे तक राजकीय संरक्षण हासिल होने के बाद भी संस्कृत आज खत्म हो रही है। वहीं नागा, मुंडारी, गोंडी सरीखी भाषाओं को आदिवासी समाज ने बिना किसी खास प्रयास और सत्ता के संरक्षण के, अपने साहित्य और सामूहिकता के दम पर हजारों बरसों से बचाकर रखा है।

प्राख्यात आदिवासी कवयित्री वंदना टेटे कहती हैं कि आदिवासी भाषाओं को सबसे ज्यादा खतरा गैर आदिवासी समाज द्वारा तय किए जा रहे मापदंडों से है। संवाद और संप्रेषण आदिवासी समाज में भाषाओं का मोहताज नहीं है। जो समाज – गैर आदिवासी – हमारी ध्वनियों और भाषाओं को नहीं समझता, वह आज इनके संरक्षण की बात कर रहा है। संरक्षण के सरकारी प्रयासों को सिरे से खरिज करते हुए वे कहती हैं कि सामूहिकता पर यकीन करने और चलने वाला आदिवासी समाज किसी का मोहताज नहीं है। गैर आदिवासी समाज विकास की जिस अवधारणा की बात करता है वह आदिवासी समाज और उसकी भाषा के लिए नकारात्मक ही रहा है। गैर आदिवासी समाज पर प्रहार करते हुए वे कहती हैं कि आदिवासी समाज को किसी मसीहा की जरुरत नहीं है। यह समाज तरस खाने अथवा संग्रहालयों की विषय वस्तु नहीं है। 

राजस्थान की हीरा मीणा भी इस बात पर जोर देती हैं कि आदिवासी समाज जब तक इस दुनिया में रहेगा तब तक उसकी भाषाएं भी जिंदा रहेंगी। 

बहरहाल, अश्विनी कुमार पंकज की यह आशंका भी सही प्रतीत होती है कि किसी भी समाज के लिए उसकी भाषा सबसे महत्वपूर्ण होती है और आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के बहाने आदिवासियों की सांस्कृतिक व भाषायिक विविधता और उनके समाज को अपने ही साहित्य व परंपराओं से अलग किए जाने का यह एक नया षडयंत्र है।

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