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यूनानी दार्शनिक अरस्तू की राज~व्यवस्था

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पुष्पा गुप्ता 

    _अरस्तू ने शासन का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया था– राजतंत्र, कुलीनतंत्र और जनतंत्र. फिर तीनों का विकृत रूप बताया था—निरंकुशतंत्र, गुटतंत्र और भीड़तंत्र._

        महत्वपूर्ण यह नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने इन छ: श्रेणियों में सबसे अच्छा शासन जनतंत्र को और सबसे बुरा उसी के विकृत रूप भीड़तंत्र को बताया था।

      जब अच्छी चीज़ गिरती है तो सबसे ज़्यादा गिरती है.

    लीडर जब अच्छा होता है तो स्टेट्समैन हो जाता है, गिरता है तो डेमैगॉग.

       स्टेट्समैन का अर्थ सब समझते हैं. बुल्के महोदय के कोश में डेमैगॉग का हिंदी अर्थ ‘जनोत्तेजक’ और डेमैगॉगी का ‘जनोत्तेजन’ दिया हुआ है. ये जाने कितने सही हैं, लेकिन इतना निश्चित है कि दोनों शब्द गढ़े हुए हैं, व्यवहार में इनका प्रयोग नहीं होता.

व्यवहार में प्रयोग होनेवाला एक शब्द है भड़काऊ और दूसरा है रिझाऊ। लेकिन भड़काऊ और रिझाऊ  विशेषण हैं, डेमैगॉग के अर्थ में  इनसे बननेवाली संज्ञाएं क्या होंगी? जिस व्यक्ति को भड़काऊ और रिझाऊ भाषण देने के फ़न में महारत हासिल हो और जहाँ भी मौक़ा मिले, अपने फ़न का कमाल दिखाए बिना उससे रहा न जाता हो, उसे बोलचाल की हिन्दी में क्या कहेंगे?

     खैर, इस विषय पर तो भाषाशास्त्री लोग अपना सर खपाएं। अनधिकार चेष्टा का मेरा कोई इरादा नहीं। 

     सवाल यह है कि भाषण को भड़काऊ और रिझाऊ क्यों और कैसे बनाया जाता है ? 

यह जो आदमी नाम का जानवर है न, बड़ी टेढी खीर है। इससे कहो कि फलाँ तुम्हारा हित चाहता है और तुम्हारी भलाई के लिये दिन-रात एक किये हुए है तो आसानी से नहीं मानेगा। तगड़ा सबूत देना पड़ेगा। क्या पता, उसे बिना अपनी आंख से देख लिये भरोसा ही न हो। क्यों ? उस नामुराद को खुद किसी और के हित से कोई मतलब नहीं होता। दूसरों के हित के लिये दिन-रात एक करना तो वह सरासर बेवकूफी समझता है।

       वह ऐसे आदमी की कल्पना तक नहीं कर सकता जो निस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई के लिये दिन-रात एक किये हो। 

      लेकिन उससे कहा जाए कि फलाँ आदमी तुम्हारा अहित करना चाहता है और उसके लिये साज़िश कर रहा है तो वह चट से मान लेगा। तो लोग अमूमन जैसे हैं, उनमें नफ़रत फैलाना भलाई फैलाने से कई गुना ज़्यादा आसान है। नफ़रत का कोई आधार हो, न हो। 

        लोग यह मानने को तैयार बैठे रहते हैं कि उनमें कोई कमी नहीं, उनके सारे दु:खों, अभावों और परेशानियों के लिये कोई और ज़िम्मेदार है। कोई गलत या सही उसकी पहचान करा दे तो बिना सोचे-समझे उससे नफ़रत करना शुरू कर देते हैं। डेमैगॉग आदमी की इसी फ़ितरत का फ़ायदा उठाता है।

जो लोग यह माने रहते हैं कि उनके सारे दु:खों, परेशानियों और अभावों के लिये कोई अन्य ज़िम्मेदार है, वही यह भी आसानी से मान लेते हैं कि कोई अन्य आयेगा जो उन्हें उनके  दुखों, परेशानियों, अभावों से मुक्त कर, उनका उद्धार कर देगा। खासकर हमारे देश में उद्धारकों की बड़ी महिमा रही है। तो डेमैगॉग कुछ के प्रति नफ़रत पैदा करने के साथ स्वयं को उद्धारक के रूप में  पेश करता है।

      उद्धारक की बाट जोहते लोग फ़ितरतन उसे आसानी से उद्धारक मान भी लेते हैं। रिझाऊ भाषण की यही पहचान है, डेमैगॉग का एक यह भी है।

       रिझाऊ भाषण का केंद्रीय तत्व  है सच और झूठ को मिलाने की वह कला जिसमें झूठ भी सच नज़र आने लगे। रिझाऊ भाषण का दूसरा तत्व है अतिशयोक्ति अलंकार का अतिशय प्रयोग। अपने गुणों और उपलब्धियों और दूसरों की कमियों और असफलताओं के वर्णन में अतिशयोक्ति अलंकार का बेधड़क इस्तेमाल। 

डेमैगॉग और कुछ नहीं करता, मानव स्वभाव के इन पहलुओं  को दिल में बिठा लेता है और अपने भाषण में इन्हीं को सहलाने वाली बातें झूठ और सच को मिलाकर बनाई गई चाशनी में डुबोकर पेश करता है। यूं कहें, ऐसी ही बातों की वर्षा करता रहता है। 

      झूठ के साथ-साथ नफ़रत और उद्धारक का सहारा लिये बिना कोई डेमैगॉग नहीं बन सकता।

       कुछ लोग प्रकृत्या या जन्मना  डेमैगॉग होते हैं। यानी डेमैगॉग की मौलिक प्रतिभा से संपन्न। औवल दर्जा उन्हीं के लिये सुरक्षित है। कुछ सीखकर, प्रैक्टिस वगैरह करके बनते हैं।  जनतंत्र को विकृत जनतंत्र बनाने में ऐसे लोगों की महती भूमिका होती है। और विकृत हो जाने पर इनकी मांग आशातीत रूप से बढ़ जाती है। कहते हैं न,खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदलता है।

प्राचीन यूनान में लोग बाक़ायदे स्कूल में सीखकर सॉफिस्ट बनते थे। सॉफिस्ट एक खास वेरायटी  के डेमैगॉग थे। वे सही को गलत और गलत को सही साबित करने में उस्ताद माने जाते थे। प्राचीन यूनान के नगर राज्यों में प्रचलित प्रत्यक्ष जनतंत्र में उन्हें कमाल की सफलता हासिल होती थी। आजकल डेमैगॉगी सिखाने के स्कूल तो नहीं सुनाई पड़ते।

       लेकिन मौलिक प्रतिभाओं की सफलता से अभिभूत, उनकी नक़ल करके  लोग धड़ाधड़ डेमैगॉग बन रहे हैं। हमारे देश की ज़मीन वर्तमान में डेमैगॉग की फ़सल के लिये बेहद ज़रखेज़ नज़र आती है। 

       ये जनतंत्र और भीड़तंत्र और स्टेट्समैन और डेमैगॉग और भड़काऊ और रिझाऊ भाषण  वगैरह की बातें आज मैं क्यों कर रहा हूँ ?……!

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