जेपी सिंह
गुजरात की कोर्ट ने गोधरा बाद के दंगों के मामले में 35 अभियुक्तों को बरी करते हुए कहा कि छद्म धर्मनिरपेक्ष मीडिया और संगठनों के हंगामे के कारण कई जाने-माने हिंदुओं को अनावश्यक रूप से मुकदमों का सामना करना पड़ा। तो इसे क्यों न माना जाए कि अदालत की नजर में ‘नो वन इन्वाल्वड इन गुजरात राईटस’?
गुजरात के हलोल, पंचमहल जिला की एक सत्र अदालत ने 2022 के गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के मामलों से जुड़े चार मामलों में जीवित बचे सभी 35 आरोपियों को सोमवार को बरी कर दिया। इन मामलों में 52 व्यक्तियों को शुरू में चार्जशीट किया गया था, जिनमें से 17 की 20 वर्षों तक चली सुनवाई के दौरान मृत्यु हो गई थी।
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हर्ष बालकृष्ण त्रिवेदी की अदालत ने अपने 36 पन्नों के आदेश में कहा कि मामले में पुलिस ने डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक, व्यवसायी, पंचायत के अधिकारियों समेत संबंधित क्षेत्र के प्रमुख हिंदू व्यक्तियों को फंसाया और छद्म धर्मनिरपेक्ष मीडिया और संगठनों के हंगामे के कारण आरोपी व्यक्तियों को अनावश्यक रूप से लंबे मुकदमे का सामना करना पड़ा
इस संबंध में प्रमुख गुजराती लेखक कन्हैयालाल मुंशी का उल्लेख करते हुए न्यायालय ने कहा कि मुंशी जी ने एक बार कहा था कि अगर हर बार एक अंतर सामुदायिक संघर्ष होता है तो सवाल के गुण की परवाह किए बिना बहुमत को दोषी ठहराया जाता है। मौजूदा मामले में पुलिस ने आरोपियों को कथित अपराध के लिए अनावश्यक रूप से फंसाया है।
अदालत ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष, जो विशिष्ट समुदाय के एनजीओ से डरते हैं, उनके पास शायद ही कभी सहारा होता है। उक्त टिप्पणी इसलिए की गई क्योंकि न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में अभियोजक ने अनावश्यक रूप से अधिक से अधिक गवाहों को बुलाकर मामले को लंबा खींचा।
अदालत ने कहा कि ‘मुस्लिम समुदाय से संबंधित व्यक्तियों द्वारा दायर किए गए निरंतर और बार-बार लिखित आरोपों को मामले में लंबी जांच का कारण बताया गया है।’ कोर्ट ने कहा कि ‘दंगों के कथित पीड़ित विभिन्न अधिकारियों के सामने दर्ज कराए गए अपने बयानों में असंगत थे।’ न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘कथित रूप से दंगों के पीड़ित मुस्लिम गवाहों ने दंगों के व्यापक रूप से भिन्न बयान दिए और इस प्रकार अभियोजन पक्ष भीड़ के आंदोलन के तथ्य को साबित करने में विफल रहा, जैसा कि एफआईआर और चार्जशीट में है’।
कोर्ट ने कहा कि ‘मुस्लिम समुदाय के कई व्यक्ति जिन्हें डेलोल, देरोल, कलोल आदि में सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बताया गया था, उन्होंने विभिन्न उच्च अधिकारियों के समक्ष अपनी शिकायत का मौखिक और लिखित प्रतिनिधित्व किया था। मैंने उनके लिखित आरोपों और पुलिस डायरी में उनके बयानों को देखा है। उन आरोपों को बगल में रखकर देखा तो मैंने पाया कि हर बार उन्होंने एक नई कहानी पेश की।’
सांप्रदायिक दंगों के मामलों में जांच की प्रकृति के बारे में अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि ‘कैसे दोनों समुदायों के निर्दोष व्यक्तियों को झूठा फंसाए जाने की संभावना है। यह नोट किया गया कि न्यायाधीश को ऐसे मामलों में यह पता लगाना होता है कि दोनों में से कौन सा बयान सही है और अदालत इस कर्तव्य से इस आधार पर बच नहीं सकती है कि पुलिस ने यह पता नहीं लगाया कि कौन सी कहानी सच थी’।
न्यायालय ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि ‘अभियोजन पक्ष स्वतंत्र गवाहों के माध्यम से आरोपी व्यक्ति से हथियारों की बरामदगी और जब्ती को साबित करने में विफल रहा और ऐसा कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था जो कथित रूप से दंगों के कथित अपराध के 35 अभियुक्तों में से किसी भी पांच अभियुक्तों रुहुल पड़वा, हारून अब्दुल सत्तार तसिया और यूसुफ इब्राहिम शेख की हत्या के कारण बने दंगों से जोड़ सके’।
अदालत ने पुलिस गवाहों को अविश्वसनीय पाया क्योंकि यह नोट किया गया था कि उनमें से किसी ने भी जांच के दौरान और परीक्षण के दौरान बदमाशों की पहचान नहीं की है। इस संबंध में न्यायालय ने कहा कि ‘हमारे देश में आबादी के बीच सच्चाई का स्तर बहुत कम है और इस मामले में लगभग सभी गवाहों की गवाही पूरी तरह अविश्वसनीय साबित हुई’।
गुजरात दंगों में मारे गये कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा ज़किया जाफ़री की शिकायत पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अंतिम फ़ैसला सुनाया था। फ़ैसले के बाद गुजरात पुलिस ने कार्रवाई करते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार और पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करते हुए इन तीनों को गिरफ़्तार कर लिया। तीनों पर राज्य सरकार को बदनाम करने की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया। गुजरात सरकार के इस क़दम की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना भी हुई।
ज़किया जाफ़री कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफ़री की पत्नी हैं। 2002 के दंगों में गुलबर्गा सोसाइटी नरसंहार में अहसान जाफ़री सहित 69 लोग मारे गए थे। ज़किया जाफ़री ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 63 लोगों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी, जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी का गठन किया था। एसआईटी बनने के बाद उन्हें 9 मामलों की जांच का ज़िम्मा सौंपा गया।
गोधरा कांड
गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के कोच एस-6 पर हुए हमले के बाद ही पूरे गुजरात में दंगे शुरू हुए थे। गोधरा में भीड़ ने हिंसक हमले के बाद ट्रेन के कोच एस-6 में आग लगा दी, जिसमें 59 लोगों की मौत हो गई थी। मरने वालों में ज़्यादातर अयोध्या से अहमदाबाद लौट रहे कारसेवक थे। यह घटना 27 फ़रवरी 2002 की है। गोधरा पुलिस ने मामले में 103 लोगों को गिरफ़्तार किया। इसके बाद एसआईटी ने जांच की और 31 अन्य लोगों को गिरफ़्तार किया।
इस मामले में हज़ारों पन्नों की कुल 26 चार्ज़शीट दाख़िल की गई हैं। इस मामले में 34 लोगों को दोषी ठहराया गया था, जबकि 67 लोगों को बरी किया गया। जिन 67 लोगों को बरी किया गया उनमें तीन की मौत हो चुकी है।
गुजरात उच्च न्यायालय में कुल 13 अपीलें दायर की गईं, जिनमें से दो अपीलों का निपटारा कर दिया गया है, जबकि अन्य सभी अपीलें लंबित हैं।
सरदारपुरा कांड
सरदारपुरा उत्तरी गुजरात के पाटन ज़िले का एक छोटा सा गांव है। पाटन ज़िले के सरदारपुरा गांव में तीन अलग-अलग मुस्लिम बस्तियां थीं। इन तीनों बस्तियों पर एक मार्च 2002 की रात को भीड़ ने हमला किया था। भीड़ के डर से 33 लोगों ने एक घर में शरण ली। भीड़ ने इस घर का पता लगाकर घर में बिजली के नंगे तार से बिजली प्रवाहित कर दी, जिससे 29 लोगों की मौक़े पर ही मौत हो गई। भीड़ ने गांव के सारे रास्ते बंद कर दिए ताकि मुस्लिम समुदाय के लोगों को जान बचाने का मौक़ा नहीं मिले।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसआईटी गठित करने से पहले स्थानीय पुलिस ने मामले में 54 लोगों को गिरफ़्तार किया था और उनके ख़िलाफ़ चार्ज़शीट भी दाख़िल की गई थी। एसआईटी ने जब जांच अपने हाथ में ली तो तीन और चार्ज़शीट दाख़िल हुई और 22 लोगों को गिरफ़्तार किया गया।
अदालत में उन 76 लोगों में से 31 को दोषी ठहराया गया, जबकि एक नाबालिग सहित 43 को बरी कर दिया गया। 76 अभियुक्तों में से दो की मौत सुनवाई के दौरान हो गई थी। दोषियों ने गुजरात उच्च न्यायालय में चार अपीलें दायर कीं और इन सभी का जनवरी 2012 में निपटारा कर दिया गया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में तीन अपीलें दाख़िल की गयी थीं।
भारत के उच्चतम न्यायालय ने 2003 में अन्य दंगा मामलों के साथ मामले की सुनवाई पर रोक लगा दी थी और मामला 2008 में एसआईटी को सौंप दिया गया था। मामले का फ़ैसला नवंबर 2011 में हुआ था। मामले में 31 अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया था, जिनमें से 30 पाटीदार समुदाय के थे।
ओड गांव
आणंद के ओड गांव में तीन अलग-अलग घटनाओं में 27 मुस्लिम मारे गए थे। हालांकि, केवल दो मामलों में ही शिकायतें दर्ज की गईं और इन दोनों मामलों की जांच एसआईटी को सौंपी गई। ओड गांव में हिंसा का पहला मामला एक मार्च 2002 को दर्ज किया गया था। मामले की जानकारी के मुताबिक़ पिरावली भागोल इलाक़े में 23 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया। शवों को इस कदर जलाया गया था कि मृतकों की भी शिनाख़्त नहीं हो पाई थी। पुलिस केवल दो लोगों की पहचान कर सकी थी और बाक़ी को लापता के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। खम्बोलज थाने में रफ़ीक़ मोहम्मद अब्दुल ख़लीफ़ा नाम के शख़्स ने मामला दर्ज कराया था।
पुलिस ने जांच के दौरान 51 लोगों को गिरफ़्तार किया और मामले में चार्ज़शीट भी दाख़िल की। 51 अभियुक्तों में से 23 को दोषी ठहराया गया और 23 को बरी कर दिया गया। सुनवाई के दौरान तीन अभियुक्तों की मौत हो गई।
इस मामले में गुजरात हाईकोर्ट में कुल छह अपीलें दाख़िल की गईं, जिसके बाद गुजरात हाईकोर्ट ने 23 दोषियों में से 19 की सज़ा को बरक़रार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2020 में 15 लोगों को ज़मानत दी थी।
ओड गांव का दूसरा मामला
ओड गांव में दूसरा मामला पहले मामले के एक दिन बाद हुआ था। 5 मार्च, 2002 को इसमें पुलिस शिकायत दर्ज की गई। इस मामले में बीच गांव में दो महिलाओं समेत तीन लोगों को ज़िंदा जला दिया गया था। इस मामले में स्थानीय पुलिस ने 44 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था, इन सबके ख़िलाफ़ चार्ज़शीट दाख़िल की गई।
एसआईटी की जांच के बाद चार अन्य लोगों को गिरफ़्तार किया गया। कुल अभियुक्तों में से अभी 6 लोग लापता हैं जबकि अन्य दो अभियुक्तों की सुनवाई के दौरान मौत हो गई। निचली अदालत ने मामले में 10 लोगों को दोषी ठहराया जबकि 30 अन्य को बरी कर दिया। इस मामले की चार अपीलें फ़िलहाल गुजरात उच्च न्यायालय में लंबित हैं।
नरोदा पाटिया
28 फ़रवरी, 2002 को बजरंग दल से जुड़े लोगों के नेतृत्व में भीड़ ने नरोदा पाटिया इलाक़े को घेर लिया और बस्ती के कई घरों में आग लगा दी। इस नरसंहार में 97 लोग मारे गए थे। एसआईटी के गठन से पहले स्थानीय पुलिस ने इस मामले में 46 लोगों को गिरफ़्तार किया था और चार चार्ज़शीट दाख़िल की थी। बाद में एसआईटी ने 24 अन्य को गिरफ़्तार किया और चार अन्य चार्ज़शीट दाख़िल किया।
मामले के कुल 70 अभियुक्तों में से 7 की सुनवाई के दौरान मौत हो गई और दो अभी तक फ़रार हैं। इस मामले में 32 लोगों को दोषी ठहराया गया है और उनमें से दो की मौत हो चुकी है। निचली अदालत ने अपने फ़ैसले में बीजेपी की मंत्री माया कोडनानी को दंगों का मास्टरमाइंड बताया था और उन्हें 28 साल जेल की सज़ा सुनाई थी। इस मामले में बजरंग दल के बाबू बजरंगी को भी दोषी ठहराया गया था।
मजिस्ट्रेट ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि कोडनानी ने विधायक के तौर पर अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। जब उन्हें गिरफ़्तार किया गया तो वह नरेंद्र मोदी की सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री थीं। मामले में वर्तमान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी एसआईटी के समक्ष माया कोडनानी के पक्ष में गवाही दी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने पहले कोडनानी को विधानसभा में देखा था और बाद में सोला सिविल अस्पताल में।
दिलचस्प ये है कि कोडनानी ने 2002 के दंगों में नाम होने के बाद भी 2007 का चुनाव लड़ा था। एसआईटी के गठन होने के बाद 2009 में उनकी गिरफ़्तारी हुई थी।
इस मामले में उच्च न्यायालय में 12 अपीलें दाख़िल की गईं और इन सभी अपीलों का निपटारा 25 अप्रैल 2018 को किया गया। मामले के 32 दोषियों में से 18 को उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया था, जिसमें भाजपा मंत्री माया कोडनानी भी शामिल थीं जबकि 13 को दोषी माना गया। जिन लोगों को सज़ा हुई, उसमें बाबू बजरंगी भी शामिल हैं लेकिन उम्रक़ैद की सज़ा को कम करके 21 साल की सज़ा कर दी गई। जिन 13 लोगों को सज़ा मिली, उनमें से चार लोगों को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस एएम खानविल्कर ने ज़मानत दे दी थी। इस मामले में वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में 10 अपीलें लंबित हैं।
नरोदा गांव
नरोदा पाटिया के निकट नरोदा गांव में 11 मुसलमान मारे गए थे और पुलिस शिकायत में 49 लोगों को अभियुक्त बनाया गया था।एसआईटी ने जांच संभालने के बाद 37 लोगों को गिरफ़्तार किया था, जिनमें सभी को ज़मानत मिल चुकी है। एसआईटी की ओर से छह और कुल मिलाकर नौ चार्ज़शीट दाख़िल होने के बाद भी 20 साल बाद इस मामले में सुनवाई शुरू नहीं हो पाई है।
दीपदा दरवाज़ा
28 फ़रवरी 2002 को मेहसाणा के विसनगर के दीपदा दरवाज़ा इलाक़े में मुस्लिम समुदाय के 11 सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। उसी दिन मामला दर्ज किया गया था। इस मामले में स्थानीय पुलिस ने 79 लोगों को गिरफ़्तार किया था और सभी को ज़मानत दे दी गई थी। जब एसआईटी ने जांच शुरू की तो छह और लोगों को गिरफ़्तार किया गया और कुल पांच आरोप पत्र दायर किए गए।निचली अदालत ने मामले में 22 अभियुक्तों को दोषी क़रार देते हुए सज़ा सुनाई थी। फ़िलहाल इस संबंध में गुजरात उच्च न्यायालय में कुल 13 अपीलें दायर की गई हैं और सभी अपीलें लंबित हैं।
इस मामले के 85 अभियुक्तों में जिन 61 लोगों को बरी किया गया, जिनमें विसनगर से भाजपा के पूर्व विधायक प्रह्लाद पटेल और नगर निगम के भाजपा अध्यक्ष दहयाभाई पटेल शामिल हैं।
ब्रिटिश नागरिकों का मामला
28 फ़रवरी, 2002 को तीन ब्रिटिश नागरिकों और उनके ड्राइवर की भीड़ ने हत्या कर दी थी। मामले की जानकारी के अनुसार इमरान दाऊद नाम के एक शख्स ब्रिटेन से आए अपने तीन रिश्तेदारों के साथ कार से गुज़र रहे थे। भीड़ ने वाहन को रोका और एक ही स्थान पर दो लोगों को आग के हवाले कर दिया। दो लोग भाग गए लेकिन भीड़ ने उनका पीछा किया और उन्हें मार डाला। पुलिस की मदद से इमरान दाऊद ख़ुद को बचाने में कामयाब रहा। पुलिस ने इस मामले में 6 लोगों को गिरफ़्तार किया था, हालांकि इन सभी को निचली अदालत से रिहा कर दिया गया था। इसके ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय में अपील लंबित है।
अदालत ने 2015 में अपने फ़ैसले में कहा कि उसके पास गिरफ़्तार अभियुक्तों को रिहा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि उनके ख़िलाफ़ अपराध साबित नहीं हो पाया। 182 पन्नों के आदेश में अदालत ने कहा था कि एसआईटी ने भी माना था कि गवाह अभियुक्तों की पहचान नहीं कर सके थे। उल्लेखनीय है कि इस मामले में तीन अहम गवाह सुनवाई के दौरान अपने बयान से पलट गए थे।
गुलबर्ग नरसंहार
28 फ़रवरी 2002 को चमनपुरा की गुलबर्ग सोसाइटी में रहने वाले 69 लोगों की भीड़ ने हत्या कर दी थी। जिन लोगों की हत्या हुई उनमें कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफ़री भी शामिल थे। सोसाइटी में 19 बंगले और 10 अपार्टमेंट हैं। स्थानीय पुलिस ने मेघानीनगर थाने में शिकायत दर्ज कराने के बाद 46 लोगों को गिरफ़्तार किया। एसआईटी की जांच शुरू होने के बाद इस मामले में 28 अन्य को गिरफ़्तार किया गया और कुल 12 आरोप पत्र दायर किए गए। कुल अभियुक्तों में से 24 को दोषी ठहराया गया, 39 को बरी कर दिया गया। उच्च न्यायालय में 17 अपीलें दायर की गई थीं और ये सभी अपीलें वर्तमान में उच्च न्यायालय में लंबित हैं।
बेस्ट बेकरी मामला
बेस्ट बेकरी के दोनों अभियुक्तों को पहले 2003 में गुजरात की एक अदालत ने आरोपमुक्त कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद, दोनों अभियुक्तों पर मुंबई की एक अदालत ने फिर से मुकदमा चलाया। मुंबई की विशेष अदालत ने मंगलवार को बेस्ट बेकरी मामले में गिरफ्तार हर्षद सोलंकी और मफत गोहिल को बरी कर दिया। विशेष केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के न्यायाधीश, एमजी देशपांडे ने कहा कि 2 अभियुक्त दोषी नहीं थे और उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।
बता दें कि 2002 के गुजरात दंगों के दौरान वड़ोदरा में एक बेकरी को भीड़ द्वारा जलाए जाने के बाद मामला दर्ज किया गया था, जिसमें 14 लोगों की मौत हुई थी। बेकरी मालिक की बेटी जहीरा शेख ने 21 लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। स्थानीय पुलिस ने सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया और वड़ोदरा की एक फास्ट-ट्रैक अदालत ने सुनवाई की।
जून 2003 में, सबूतों की कमी के कारण मामले में आरोपी 19 लोगों को बरी कर दिया गया था। शिकायतकर्ता सहित प्रमुख गवाह मुकर गए थे। बाकी 2 आरोपियों सोलंकी और गोहिल को बरी कर दिया गया।
एक्टिविस्ट, तीस्ता सीतलवाड़ और जहीरा शेख ने इसके बाद मामले में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। शीर्ष अदालत ने 2004 में मामले की फिर से सुनवाई का निर्देश दिया और निष्पक्षता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए मामले को मुंबई स्थानांतरित कर दिया। जबकि अन्य आरोपियों पर मुकदमा चलाया जा रहा था। सोलंकी और गोहिल को अजमेर विस्फोट मामले में गिरफ्तार किया गया था। इसे देखते हुए बेस्ट बेकरी मामले में उन्हें फरार दिखाया गया।
अंततः उन्हें 13 दिसंबर, 2013 को मुंबई पुलिस हिरासत में ले लिया गया और पिछले 10 वर्षों से जेल में बंद रखा गया। 19 अभियुक्तों के खिलाफ मुंबई में हुए मुकदमे में 9 अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया। अभियोजन पक्ष सोलंकी और गोहिल की कथित भूमिका को साबित करने के लिए केवल 10 गवाह पेश कर सका। मामले की जांच कर रहे कुछ अधिकारियों का भी निधन हो गया था। 2 अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों ने बेस्ट बेकरी मामले में हुई मौतों को चुनौती नहीं दी।
मामले के 3 चश्मदीद गवाह सोलंकी की पहचान नहीं कर सके, हालांकि 1 चश्मदीद ने कथित तौर पर गोहिल को पहचान लिया। अन्य दलीलों के बीच, अभियुक्त के वकील ने तर्क दिया कि चूंकि चश्मदीद गवाह गोहिल के पड़ोस में ही रहते थे, इसलिए 21 साल बाद भी उनके एक-दूसरे को पहचानने की संभावना अधिक थी।
एक्टिविस्ट तीस्ता सेतलवाड़ के अनुसार गुजरात 2002 के कुछ आकड़ों को एक बार फिर से बताने और याद दिलाने की जरूरत हैं। 2,000 मुसलमानों की बेरहम हत्या और तहस-नहस करने के अलावा, लक्ष्य बनाकर और सोच समझ कर एक आर्थिक तबाही को अंजाम दिया गया। 18,924 घरों को आंशिक तौर पर तबाह कर दिया गया। जबकि 4,954 घर पूरी तरह से नष्ट कर दिए गए। लगभग 10,429 दुकानें जला दी गईं, और 1,278 दुकानों में लूट-पाट की गई। 2,623 गल्ला लारी को आगजनी के हवाले कर के भारी नुकसान पहुंचाया गया।
कुल मिलाकर मुसलमानों की 4,000 करोड़ की सम्पत्तियों- जिसमें घर, संपत्ति और व्यवसाय शामिल थे, इन सभी को धूल और राख़ में मिला दिया गया। उस उन्मादी हिंसा में धार्मिक और सांस्कृतिक मज़ारों और इबादत घरों को खास तौर पर चिह्नित किया गया। 285 दरगाहों, 240 मस्जिदों, 36 मदरसों, 21 मंदिरों और 3 चर्चों को क्षतिग्रस्त और नष्ट कर दिया गया था। कुल मिलाकर तबाह किए गए इन स्मारकों की संख्या 649 थी। इन 649 में से, 412 स्थलों की समुदाय के प्रयासों के द्वारा मरम्मत की गई, और बाकी बचे 167 अभी भी क्षतिग्रस्त हैं।
(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)