हरि विष्णु कामथ, स्वतंत्रता सेनानी
कहना आवश्यक है कि यूरोप और इंग्लैण्ड का मध्यकालीन इतिहास- उस जमाने का रक्तरंजित इतिहास – इस बात का साक्षी है कि वहां चर्च और राज्य के गठबंधन का कितना भयावह परिणाम निकला था। यह सच है कि यहां अशोक के शासनकाल में जब राज्य ने एक विशेष धर्म को अर्थात बौद्ध धर्म को अपना लिया था, तो कोई घरेलू झगड़ा नहीं उठा था। पर आपको इस प्रसंग में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि उस समय यहां बौद्ध मत के सामने एकमात्र दूसरा धर्म केवल वैदिक धर्म ही था।
व्यक्तिगत रूप से मेरा यह विश्वास है कि चूंकि अशोक ने बौद्ध मत को राज्य-धर्म बना लिया था, इस कारण से हिंदुओं और बौद्धों के बीच कुछ आपसी झगड़े हुए थे और इसका परिणाम यह हुआ कि अंततोगत्वा बौद्ध मत यहां से लुप्त ही हो गया। इसलिए मुझे तो यह साफ दिखाई देता है कि अगर राज्य किसी खास धर्म के साथ अपने को मिला देगा, तो उसमें मतभेद की दरारें पड़ जाएंगी। …राज्य के लिए यह कभी संभव नहीं हो सकता है कि वह अपने नागरिकों के किसी विशेष वर्ग के धर्म के प्रति ही अपनी निष्ठा रखे।…राज्य को किसी खास धर्म के साथ अपने को न मिला देना चाहिए, तो इससे मेरा यह मतलब नहीं है कि राज्य अधार्मिक हो जाए अथवा धर्म-विरोधी बन जाए। …यह तो घोषित ही किया है कि भारतीय राज्य एक ऐहिक राज्य-असांप्रदायिक राज्य होगा, किंतु मेरी समझ से ऐहिक राज्य से यह मतलब नहीं है; राज्य ईश्वरविहीन होगा अथवा वह अधार्मिक या धर्म-विरोधी होगा। …व्यापक अर्थ में ‘धर्म’ का यह अर्थ होना चाहिए कि लोग उसके वास्तविक माहात्म्य को, आत्मा के वास्तविक महत्व को समझें।
…एक कवि ने धर्म का यों निरूपण किया है कि येनेदं धार्यते जगत् अर्थात धर्म वह वस्तु है, जिसके आधार पर यह विश्व टिका हुआ है। हमें धर्म का वस्तुत: यही अर्थ लेना चाहिए। हमारे महान सूत्रों में, संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों में अहम् ब्रह्मास्मि कहकर, सूफीमत में अनल हक कहकर तथा ईसाई धर्मग्रंथों में परमपिता परमात्मा और मैं एक ही हूं कहकर धर्म का तत्व समझाया गया है। यदि इन सिद्धांतों की शिक्षा दी जाए और लोग इन पर चलने का अभ्यास करें, तो इससे विश्व के सभी संघर्षों का अंत हो जाएगा। आज भारतवर्ष को धर्म के इन्हीं तत्वों को अपनाना है और इनकी शिक्षा देनी है, न केवल अपने ही नागरिकों को, बल्कि समस्त मानव-जगत को। इसी पथ को अपनाकर संसार अपनी उस व्याधि से छुटकारा पा सकता है, जिससे वह आज पीड़ित है।… आज इस सभा में अपने परम विद्वान दार्शनिक आचार्य राधाकृष्णन को उपस्थित देखकर मैं बड़ा ही खुश हूं। गत दो-तीन वर्षों से विश्व को वह यही कहते आ रहे हैं कि उसकी व्याधि का मूल कारण भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है, इसलिए भारतवर्ष का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह चिकित्सक का कार्य करे। …एक पाश्चात्य लेखक आर्थर कोस्टलर ने अभी हाल में ही योगी या भोगी नाम की एक पुस्तक लिखी है। योगी आध्यात्मिकता की कामना करता है और भोगी भौतिकता की। …इस पुस्तक में लेखक ने एक जगह कहा है, ‘मानव समाज किसी डॉक्टर को पाना चाहता है अथवा किसी डिक्टेटर को? वह योगी होगा या भोगी? योगी कार्य करता है इस उद्देश्य से कि वह अपना स्वरूप निरूपण कर सके और भोगी पूंजीपति के कार्यों का लक्ष्य होता है भौतिक संपत्ति की अधिकाधिक अवाप्ति। पाश्चात्य प्रजातंत्र को और योगियों की जरूरत है।’ यह पाश्चात्य लेखक इसी निष्कर्ष पर पहुंचा है।…अनादिकाल से उपनिषद् कालीन ऋषियों एवं द्रष्टाओं से लेकर महात्मा गांधी तथा नेताजी सुभाषचंद्र बोस तक हमारे सभी शिक्षकों ने आध्यात्मिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक उपदेश को बड़ा महत्व दिया है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने तो यहां तक किया कि आजाद हिंद फौज के सैनिकों के लिए आध्यात्मिक शिक्षा एवं उपदेश का पाठ्यक्रम निर्धारित कर दिया। आजाद हिंद फौज की पाठ्य सूची में आध्यात्मिक उपदेश को भी उन्होंने शामिल कर रखा था।
…आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो युद्ध से जर्जरित क्लांत है, जिसमें आध्यात्मिक माहात्म्य का महत्व बिल्कुल गिर गया है। आज विश्व आध्यात्मिक महत्व को भुला बैठा है और सर्वत्र ही यही भाव व्याप्त है कि प्रतिशोध लेना ही न्याय है।
(संविधान सभा में दिए गए भाषण का अंश)