अनिल त्रिवेदी
भारतीय दर्शन में विचार विमर्श द्वारा समस्या समाधान की लम्बी और मजबूत विरासत रहीं हैं।जिसे आगे बढ़ाकर समाधान खोजने के बजाय समाज के तथाकथित आगे वान चिन्तन के बजाय चिंता व्यक्त करते हुए समाधान खोजने की सतही बात करते हैं। भारत देश कोई भीड़ भरा रेल का डिब्बा नहीं है जिसमें बैठने की जगह नहीं बची हो। भीड़ और देश की जनता या आबादी में मूलभूत अंतर होता है। भीड़ को लेकर व्यवस्थागत चिन्ता तो समझ में आती है । देश की आबादी को किसी भी रूप से भीड़ की तरह न तो देखा जा सकता है ,न हीं भीड़ की तरह नियंत्रित करने की भी बात कही जा सकती है । साथ ही देश की समूची बढ़ती आबादी को किसी भी रूप में देश के संतुलन के लिए खतरा भी नहीं निरूपित किया जा सकता है। किसी भी देश के नागरिक उस देश की मानव शक्ति या नागरिक ऊर्जा का अंत हीन स्त्रोत होते हैं। देश की आबादी से डरकर या भयभीत होकर या चिन्ता व्यक्त कर हम हमारे देश की लोकशक्ति या आबादी के प्रति अपनी जिम्मेदारी से भागने की भूमिका खड़ी करके अपनी कालप्रदत्त जिम्मेदारी से पिण्ड ही छुड़ाना चाहते हैं। कोई भी सत्ताधारी समूह यदि अपने देश की आबादी को खतरा या समस्या मानता है तो उसका सीधा सीधा एक ही अर्थ है कि सत्ताधारी समूह ही उस काल खंड की सबसे बड़ी समस्या है। किसी भी देश का कोई भी नागरिक किसी के द्वारा भी अपने खुद के ही देश में अवांछित नहीं माना जा सकता है। देश के नागरिक देश की बुनियाद है। नागरिक आबादी को समस्या के रूप में देखने की दृष्टिवाली धारा में देश और देश के लोगों को लेकर आज के सत्ता रूढ़ समूह में समस्या समाधान की व्यापक बुनियादी समझ का ही अकाल ही माना जाएगा । दुनिया भर के देशों में जलवायु विविधता और आबादी के धनत्व में मूलभूत अंतर होता है। दुनिया भर में लोगों की या आबादी की सधनता में भी अंतर होता ही है। किसी देश में लोगों की संख्या अधिक है तो कई देशों में आबादी बहुत कम हैं। प्रत्येक देश के राज और समाज में देश में उपलब्ध आबादी के मान से देश के राज काज और समाज का तानाबाना बुना जाता है। किसी देश की आबादी के बुनियादी सवालों का हल नहीं निकाला जा रहा है तो उसका सीधा अर्थ है कि राजकाज करने वाले समूहों में वैचारिक दृष्टि दोष है।आबादी समस्या नहीं होती सम्यक दृष्टि हो तो आबादी हर समस्या का प्राकृतिक समाधान है। आबादी देश दुनिया का विकेन्द्रीत समाधान भी है और प्राकृतिक संसाधन भी।
हमारी संकुचित सोच में स्वार्थ पूर्ण विचारों का विस्तार करने की दिशा दृष्टि निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। लोकतांत्रिक भारत में तथाकथित राजनीति की जितनी भी धाराये है उनके सोच विचार में एक अजीबो गरीब साम्य दिखाई देता है।जब कोई राजनीतिक जमात सत्ता समूह में शामिल होती है तो वह तत्कालीन विपक्ष को अप्रासंगिक और वितण्डावादी विचार समूह की संज्ञा देने में नहीं हिचकती। इसी तरह की वैचारिक भूमिका विपक्ष की भी प्रायः होती है। सत्ताधारी समूह और विपक्षी दल दोनों के पास अपने मौलिक विचार का अभाव होता जा रहा है।जब जैसी भूमिका हो तब वैसे परस्पर विरोधी विचार को व्यक्त करते हैं।आज का सत्ताधारी समूह जब विपक्ष में था तो उसे अपने इर्दगिर्द जमा भीड़ से ऊर्जा मिलती थी कि देखो देश के कितने अधिक लोग हमारे साथ हैं।पर जैसे ही यह समूह सत्ताधारी समूह बनता है तो उसे देश की आबादी ही समस्या लगने लगती है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि भारत में राजनीतिक जमाते न तो समस्या को समझ पा रही है और नहीं अपने देश की आबादी में निहित लोकशक्ति को देख समझ पा रही है।
आज का भारत दुनिया का सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है। सत्ताधारी समूह के आगेवान विचारक पचास साल बाद की उस दुनिया की सबसे बड़ी भारत की संभावित बूढ़ी आबादी के सवाल पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं। भविष्य की चिंता करना चाहिए पर वर्तमान के सबसे बड़े सवाल को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।आज के हमारे सत्ताधारी समूह के पास आज युवाआबादी के बुनियादी सवालों को हल करने की शायद कोई दृष्टि ही नहीं है।आज हमारे देश में युवा आबादी का देश दुनिया के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में कैसे निरन्तर उपयोग किया जा सकता है यह विचार और व्यवहार ही भविष्य के भारत की आधारशिला होगीऔर आज के भारत की आबादी के सवालों का समाधान।आज भारत के गांव और शहर में जीवनयापन के साधनों का अभाव सबसे बड़ा सवाल है।हर गांव और शहर में जीवनयापन के साधनों का अभाव होता जा रहा है। आबादी की ऊर्जा का उपयोग नहीं और उधार की यांत्रिक ऊर्जा के गैर जरूरी इस्तेमाल को ही विकास का आदर्श बनाया जा रहा है। मानवीय ऊर्जा जन्य देश समाज और नागरिक को बीते ज़माने की बात कहकर हम देश की आबादी की ही जीवन के हर क्षेत्र में खुली अवमानना कर देश चलाने का स्वांग रच रहे हैं। देश का प्रत्येक नागरिक जहां भी सपरिवार रहता हो उसे भारत भर में जीवन यापन करने के तरीके उपलब्ध करवाना ही देश के राज काज का मूल है। देश भर में लोगों को अपने अपने स्थानों पर रहते हुए जीवन यापन का कोई साधन या अवसर खड़ा करने की चुनौती को स्वीकार कर समाधान खड़े करते रहना ही सर्वकालिक इंतजाम वाली लोकाधारित राजनीति और सामाजिक संरचना का लोक ऊर्जा जन्य तानाबाना है।
अनिल त्रिवेदी ,अभिभाषक एवं स्वतंत्र लेखक
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