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जाति को नहीं स्वीकारने के कारण उत्पीड़ितों की पहचान और संघर्षों की उपेक्षा

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रिंकु यादव

पिछले साल भाकपा-माले ने 11वां महाधिवेशन पटना में आयोजित किया था। भाकपा-माले की सबसे मजबूत और उल्लेखनीय उपस्थिति बिहार में ही है। महाधिवेशन के मौके पर उसने एक स्मारिका जारी की। इस स्मारिका में सदियों से चले आ रहे उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ संघर्ष की बिहार की गौरवशाली विरासत को रेखांकित किया गया है तथा इतिहास के उन अनेकानेक प्रगतिशील अध्यायों को गर्व के साथ स्मरण का दावा किया गया है, जिसने इस राज्य को कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलनों का जीवंत गढ़ बना दिया। स्मारिका में माले ने अपनी विकास यात्रा में आयोजित हुए पिछले 10 महाधिवेशनों को भी रखा है। बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन को मजबूत नींव और लोकप्रिय चरित्र प्रदान करने वाले नेताओं और शहीदों को याद किया गया है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से अपने तमाम मित्रों और शुभचिंतकों की प्रेरणादायी स्मृति को भी स्मारिका में संजोकर समावेशी होने का दावा किया गया है।

संक्षेप में कहा जाए तो 88 पृष्ठ की इस स्मारिका में भाकपा-माले ने अपने नजरिए से इतिहास में बिहार की पुनर्खोज की है। इस पुनर्खोज में ज्यादातर धाराओं और किरदारों को प्रतिष्ठा दी गई है, लेकिन एकाध ऐसी प्रमुख धाराएं और किरदार हैं, जिन्हें एकदम विस्मृत कर दिया गया है। यह धारा है पिछली सदी के तीसरे और चौथे दशक में बिहार के एक महत्वपूर्ण सामाजिक आंदोलन त्रिवेणी संघ की धारा और उसके किरदार। क्या यह विस्मरण ऐसे ही कोई चूक है या इतिहास के प्रति उनका वैचारिक द्वंद्व है?

स्मारिका में भाकपा-माले के आंदोलन के सूत्रधार के बतौर पहला नाम सहजानंद सरस्वती का है। उसके बाद के शेष चार मास्टर जगदीश, सुब्रत दत्त (जौहर), विनोद मिश्र और रामनरेश राम सीधे भाकपा-माले से जुड़े रहे हैं। सहजानंद सरस्वती को किसान सभा आंदोलन का सूत्रधार घोषित करते हुए भाकपा-माले ने उनकी विरासत के उत्तराधिकारी होने का दावा किया है और किसान सभा के संघर्ष में अपनी जड़ों को चिह्नित किया है।

भाकपा माले का दावा है कि इतिहास में सहजानंद सरस्वती का पहली दफा सबसे सटीक व सही मूल्यांकन उसके द्वारा प्रकाशित दस्तावेज ‘बिहार के धधकते खेत-खलिहान की दास्तान’ में किया गया है– “यह दस्तावेज कहता है कि सहजानंद के विचारों का क्रम विकास बिहार के किसान संघर्ष की बदलती धारा और किसान सभा के क्रांतिकारीकरण की प्रक्रिया की सुंदर झांकी प्रस्तुत करता है।”(स्मारिका से)

‘बिहार के धधकते खेत-खलिहान की दास्तान’ की भूमिका में विनोद मिश्र लिखते हैं– “किसान सभा आंदोलन की शुरुआत यद्यपि कांग्रेस के ही एक बाजू के बतौर हुई, पर धीरे-धीरे उसने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया और क्रांतिकारी जनवादियों के आगोश में चला गया। आगे चलकर उसका एक अच्छा-खासा हिस्सा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गया। इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि किसान सभा आंदोलन के दौरान जातीय ध्रुवीकरण नदारद हो गये थे। स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर में, बिहार में न तो कभी ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन या आंबेडकरवादी दलित आंदोलन को ज्यादा समर्थन मिला और न ही जगजीवन राम के हरिजन कल्याण को। पर दूसरी ओर, सीपीआइ और सोशलिस्टों को एक मजबूत आधार कायम करने में जरूर सफलता मिली।”

1930 के दशक से ही बिहार में किसान सभा आंदोलन आगे बढ़ा तो दूसरी तरफ 1930-45 के बीच जातीय वर्चस्व और ब्राह्मणवाद विरोधी धारा– त्रिवेणी संघ की भी उल्लेखनीय व जुझारु सक्रियता रही है। कांग्रेस से लेकर कांग्रेस समर्थित राष्ट्रवादी अखबार तक त्रिवेणी संघ को सरकार और जमींदार प्रायोजित बताते थे तो स्वामी सहजानंद से लेकर राहुल सांकृत्यायन तक त्रिवेणी संघ के खिलाफ थे। किसान सभा त्रिवेणी संघ को जातिवादी संगठन बताता था। यहां तक कि 1937 चुनावी दौरे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी पटना और आरा की सभा में त्रिवेणी संघ की आलोचना की थी। यथा– “उन्होंने [त्रिवेणी संघ जैसे] राजनीतिक संप्रदायों के उभरने पर आश्चर्य व्यक्त किया था। बहरहाल, जात-पांत के विचार से अपनी असहमति जताते हुए उन्होंने हर किसी से राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने के लिए काम करने की अपील की।” (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत,पृष्ठ संख्या-122)

जबकि सच्चाई यह है कि आजादी की लड़ाई की अगुआई कर रही कांग्रेस पर उच्च जातियों का कब्जा था और वह जबर्दस्त जातीय गिरोहबंदी की शिकार थी। कांग्रेस के बिहार के सभी बड़े नेताओं का जुड़ाव अपनी-अपनी जाति की सभाओं से था। स्वामी सहजानंद ने भी अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत जाति सभा से ही की थी।

जाहिर तौर पर भाकपा माले की इतिहास दृष्टि त्रिवेणी संघ और उसके संघर्षों के इतिहास के महत्वपूर्ण अध्यायों तक नहीं पहुंच पाती है। जाति के प्रश्न और ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन के प्रति उनकी उदासीनता ही सामने आती है। किसान सभा आंदोलन जाति के प्रश्न से कतराकर निकल जाता है। उस दौर में लगान भी जाति निरपेक्ष नहीं था। लगान में जाति आधारित भेदभाव था और तरह-तरह के जातिगत अबवाब पिछड़ी-दलित जातियों से लिए जाते थे। इस जाति लगान को त्रिवेणी संघ द्वारा छिपा लगान कहा जाता था। दर रैयतों और खेत मजदूरों की विशाल आबादी दलित-पिछड़ों की थी, वे सामाजिक अपमान-उत्पीड़न के शिकार थे। किसान सभा इन सवालों से कतराकर ही आगे बढ़ी थी। किसान सभा आंदोलन सवर्ण छोर से खड़ा हुआ था, उसका एजेंडा सवर्ण कायमी रैयतों के मनमाफिक था। एजेंडा में जातीय भेदभाव-अपमान के प्रश्न की उपेक्षा और नेतृत्व की सामाजिक संरचना के कारण किसान सभा से पिछड़ों-दलितों का रिश्ता विकसित नहीं हो पाया। त्रिवेणी संघ के कार्यकर्ता केसरी ‘मास्टर’ से जुड़ा प्रसंग गौरतलब है– “पटना जिले में बिहटा में स्वामीजी के आश्रम पर जिस समय केसरी ‘मास्टर’ पहुंचे, रात हो चुकी थी। वहां जाकर उन्होंने देखा कि स्वामी के आसपास जितने लोग थे, वे सभी ऊंची जाति के भूमिहार लोग थे। इससे घबराकर पिछड़ी जाति का यह नेता अंधेरे में ही वहां से खिसक गया।” (भोजपुर, बिहार में नक्सलवादी आंदोलन, पृष्ठ संख्या-32, कल्याण मुखर्जी/राजेंद्र सिंह यादव)

धूर्तों से सावधान करते हुए ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में चौधरी जे.एन.पी. मेहता किसान सभा के सामाजिक व वर्गीय चरित्र पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं– “क्या आपने नहीं देखा है कि जिनके बाप-दादाओं के लिए हल चलाना पाप है, वे भी किसान सभा की लीडरी गांठते हैं, और जिनके दरवाजे पर अछूतों को मार पड़ती है, वे भी अछूतों के भक्त होते हैं? सभा में बैठना हुआ तो खद्दर की धोती पहन ली और कलक्टर साहब से हाथ मिलाना हुआ, तो झट हैट-पैंट पहन लिया। बाप काला जमींदार और बेटा किसान सभा का लीडर, और उन्हीं की जमींदारी में किसानों का निकाला जाता है पिसान! यह बगुला भगत की चाल नहीं है तो क्या है? इसीलिए सावधान!”

भले ही माले किसान सभा आंदोलन के दौर में जातीय ध्रुवीकरण के नदारद होने को उपलब्धि के बतौर रेखांकित करता रहा है, लेकिन सच यह है कि किसान सभा का चरित्र कमोबेश जाति संगठन की तरह ही था। “जैसे आरंभिक दशकों में कांग्रेस पर कायस्थों का वर्चस्व था, वैसे ही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा किसान सभा पर भूमिहार ब्राह्मणों का। शायद ही ऐसा कोई संगठन था (जाति संगठनों को छोड़कर), जिस पर किसी एक जाति का इतना निर्णायक प्रभुत्व था।” (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के आयाम, पृष्ठ संख्या-158, प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत)

दूसरी तरफ, त्रिवेणी संघ आंदोलन पिछड़ों-दलितों के छोर से खड़ा हुआ था, जिसके केंद्र में इज्जत का प्रश्न था, जाति का प्रश्न था। 1933 से शुरू त्रिवेणी संघ 1945 तक अवसान के नजदीक पहुंच गया। उस दौर में उत्पीड़ित समुदायों में वामपंथ का आकर्षण था। लेकिन, तब बिहार की किसान सभा की तरह ही कम्युनिस्ट पार्टी पर भूमिहार ब्राह्मण जाति के नेताओं का एकछत्र प्रभुत्व था। जाति प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी का रूख भी किसान सभा की तरह ही था। किसान सभा की जमीन पर सीपीआई खड़ा हुई तो त्रिवेणी संघ की जमीन पर एम.एन.राय की रैडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी (आरडीपी)। त्रिवेणी संघ की जगह आरडीपी ने ले ली और एक दौर तक आरडीपी पिछड़ों की पार्टी के बतौर अस्तित्व में रही। आरडीपी के बाद इसी जमीन पर डॉ.राम मनोहर लोहिया की अगुआई वाली सोशलिस्ट पार्टी खड़ा हुई।

1960 के उत्तरार्ध में शुरू नक्सलबाड़ी आंदोलन की चिंगारी बिहार भी पहुंची और उसके खत्म होने के शोर के बीच बिहार में शुरुआत के इलाकों में धक्का खाने के बाद यह भोजपुर की जमीन से खड़ा हुआ। पहला दौर खत्म हो चुका था। विनोद मिश्र लिखते हैं– “तभी बिल्कुल अप्रत्याशित रूप से तत्कालीन मध्य बिहार के भोजपुर से और दूसरे नंबर पर पटना से उत्साहवर्धक संकेत मिलने शुरू हुए। भोजपुर और पटना के ये संघर्ष, जिनकी जड़ें वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों की गहराई में है, एक नए ढ़र्रे पर शुरू हुए और वहां एक नई किस्म की स्थानीय नेतृत्वकारी शक्ति उभरकर सामने आई।” (‘बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान’ की भूमिका)

यहां यह सोचने वाली बात है कि क्या यह ‘अप्रत्याशित’ था या इसकी जड़ें कहीं गहरी धंसी हुई थीं? नक्सलबाड़ी से प्रेरणा लेकर जगदीश महतो (मास्टर साहब), रामनरेश राम और रामेश्वर अहीर ने नए दौर के नए किस्म के संघर्ष की बुनियाद रखी। 17 फरवरी, 1967 को विधान सभा चुनाव में मतदान में धांधली का विरोध करने के कारण जगदीश महतो की सामंतों द्वारा बर्बर पिटाई की गई। “अपमान और क्षोभ से ग्रस्त जगदीश महतो ने उसी दिन संकल्प किया कि 1930 के दशक में जो युद्ध समाप्त हो गया था, उसे जारी करना पड़ेगा!” (भोजपुर…,पृष्ठ संख्या-43, कल्याण मुखर्जी/राजेंद्र सिंह यादव)

1930 के दशक में इज्जत के सवाल से शुरू त्रिवेणी संघ की जुझारु लड़ाइयों का केंद्र शाहाबाद ही था। फिर से यहां इज्जत के सवाल पर संघर्ष शुरू हुआ। जाति का प्रश्न केंद्र में था। भोजपुर में शुरू इस नए संघर्ष में त्रिवेणी संघ का संघर्ष पुनर्जीवित हो उठा। त्रिवेणी संघ आंदोलन के एक पुराने सदस्य केसरी महतो के शब्दों में– “अगर हम वहां नहीं होते तो जिले में नक्सलबाड़ी आंदोलन कभी भी नहीं हो पाता।” (भोजपुर…, पृष्ठ सख्या-42, कल्याण मुखर्जी, राजेंद्र सिंह यादव)

14 अप्रैल, 1970 को ‘आंबेडकर दिवस’ के अवसर पर आरा के इतिहास में अभूतपूर्व विशाल प्रदर्शन हुआ। जगदीश महतो, रामेश्वर अहीर, लताफत हुसैन तथा अन्य लोगों की अगुआई में ‘हरिजनिस्तान लड़ के लेंगे’ का नारा का बुलंद किया गया। उसके बाद 23 फरवरी, 1971 को भोजपुर में सहार के एकवारी में जमींदार के लठैत शिवपूजन सिंह का पहला ‘सफाया’ हुआ! जगदीश महतो, रामेश्वर अहीर, भिखारी कहार, महाराज महतो और सिंहासन चमार अभियुक्त के बतौर सरकारी फाईल में दर्ज हुए। संघर्ष की बुनियाद रखी जा चुकी थी, फिर इस आंदोलन के नेतृत्व का भाकपा-माले से संपर्क स्थापित हुआ। त्रिवेणी संघ के संघर्ष का क्षेत्र ही इस नए दौर के संघर्ष का भी क्षेत्र बना। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि 1930-40 के दशक में जिन नायकों ने ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ फूंका, दशकों बाद उनकी ही अनुगूंज 1970 के दशक में भोजपुर की धरती पर संचारित हुई।

ऊपर हमने इतिहास के प्रति भाकपा-माले के द्वंद्व की जड़ों को तलाशने की कोशिश की है और बिल्कुल साफ है कि त्रिवेणी संघ की धारा और किरदारों को लेकर यह कोई चूक नहीं, बल्कि पुराने ज़माने से जाति के सवाल पर उनका यही इतिहास बोध रहा है। ‘आंबेडकर के सपनों का भारत’ के निर्माण का वादा करने वाली पार्टी से यह पूरी उम्मीद थी कि बदलते दौर से संगति बिठाते हुए वह जिस तरह बहुत सारे सकारात्मक संदेश दे रही है, इस इतिहास बोध में भी सुधार करेगी!

ऐसी ही ‘चूक और विस्मरण’ पर थोड़ी और चर्चा कर लें। स्मारिका में एक महत्वपूर्ण अध्याय है– ‘संघर्ष का क्षितिज’। संघर्ष के क्षितिज के 21 किरदारों में सिर्फ 6 गैर-सवर्ण हैं। इनमें एक दलित और 5 पिछड़े हैं। और एक अल्पसंख्यक हैं। आदिवासी व पसमांदा पूरी तरह गायब हैं। इस क्षितिज की सामाजिक संरचना में सवर्णों का प्रभुत्व है। इससे यह धारणा बनती है कि बिहार के संघर्षों में दलित, आदिवासी, पिछड़े-पसमांदा व महिलाओं की सक्रियता नहीं रही है, वे उदासीन रहे हैं। इस तरह से जो वर्चस्वशाली हैं, वही इतिहास में संघर्ष की अगुआई में भी वर्चस्व में आ जाते हैं। नायकत्व भी सवर्णों का विशेषाधिकार बन जाता है और खून-पसीना बहाने वाले, शहादत देने वाले बहुसंख्यक इतिहास के पन्नों के फुटनोट्स में चले जाते हैं। हाशिए के समाज के सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी की पार्टी द्वारा प्रस्तुत संघर्ष के क्षितिज में हाशिए का समाज हाशिए पर है। यह इतिहास की विडंबना नहीं है, इतिहास बोध की समस्या है।

जाति के प्रश्न को नहीं स्वीकारने के कारण उत्पीड़ितों की पहचान और उनके संघर्षों की उपेक्षा होती है, इतिहास को देखने से लेकर वर्तमान तक दृष्टि वर्चस्वशाली समूहों की तरफ झुक जाती है। नायकत्व का पैमाना बदल जाता है। असली नायक पार्श्व में धकेल दिए जाते हैं। दूसरी तरफ, ऐसा क्षितिज प्रस्तुत करने से संघर्षरत बहुसंख्यक हाशिए के समाज पर इसके असर से इंकार नहीं किया जा सकता है। गैर-सवर्णों में सवर्णों के प्रति कृतज्ञता भाव पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। उत्पीड़ित समाज के अंदर यह एहसास पैदा होने का रास्ता खुलता है कि वे नेतृत्व व नायकत्व के गुणों में पीछे हैं और इस तरह से उन्हें और भी पीछे धकेल दिया जाता है। यह ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था के लिए अनुकूलित करने के साथ ऐसा मनोविज्ञान बनाने की कोशिश है कि इतिहास के साथ ही वर्तमान में भी सवर्ण नेतृत्व सहज स्वीकार्य हो।

हालांकि ‘संघर्ष के क्षितिज’ में शहीद जगदेव प्रसाद शामिल किए गए हैं। यह एक लिहाज से साहसिक है। लेकिन जगदेव प्रसाद को भाकपा-माले ने अपने फ्रेम में पेश किया है। मसलन, स्मारिका में लिखा गया है कि जीवन के अंतिम दिनों में वे वामपंथी विचारों से प्रभावित हो रहे थे। उनके एक भाषण से ‘बिहार को सहार बना दूंगा’ के संकल्प को उद्धृत किया गया है। जरूर ही वे शहादत से पहले बार-बार ‘बिहार को सहार’ बना देने का आह्वान कर रहे थे। वे सहार में पिछड़ों-दलितों में सवर्णों के दबदबे व उत्पीड़न-दमन के खिलाफ इज्जत व बराबरी के लिए उभर रही दावेदारी की नई चेतना को पूरे बिहार में फैला देना चाहते थे। स्मारिका में लिखा गया है कि बिहार के समाजशास्त्र की जानकारी रखने वालों का मत है कि व्यवस्था में बदलाव के लिए जैसे ही उन्होंने वामपंथी रूझान दिखाया और उनकी हत्या कर दी गई। उल्लेखनीय है कि 1974 में जयप्रकाश नारायण की अगुआई में जारी आंदोलन से अलग जगदेव प्रसाद ने भी आंदोलन छेड़ रखा था। वे सवर्ण एकाधिकार और ब्राह्मणवाद को सीधे निशाने पर ले रहे थे। संसदीय राजनीति में यह विरल था। हत्या के सही कारण को प्रस्तुत करना उनकी शहादत के मूल्यांकन और उनकी विरासत के लिहाज से महत्वपूर्ण है। जरूर ही, जगदेव प्रसाद का गरम तेवर स्थापित वामपंथियों का तेवर नहीं था, अलग किस्म का तेवर था। वे वामपंथ के ब्राह्मणवाद के सामने समर्पण के खिलाफ थे, वामपंथ के सवर्ण नेतृत्व से मुक्ति के पक्ष में थे।

कुल मिलाकर, स्मारिका ऐसा संकेत नहीं दे रही है, जैसा कहा जा रहा है कि भाकपा-माले खासतौर पर जाति के प्रश्न पर दृष्टिगत बदलाव के दौर से गुजर रही है। अतीत में वाम धारा में इतिहास दृष्टि की जो सीमा थी, उनसे किसान सभा आंदोलन और सहजानंद सरस्वती के मूल्यांकन में गड़बड़ी हुई। जाति के प्रश्न पर गड़बड़ नजरिया और त्रिवेणी संघ के ऐतिहासिक आंदोलन के प्रति उपेक्षा प्रदर्शित हुई। इस प्रकार स्मारिका भी उनकी दृष्टिगत गलतियों-गड़बड़ियों से उबर नहीं पाई है।

हाल के दिनों में ऐसा माना जा रहा है कि सामाजिक न्याय के प्रश्नों और डॉ. आंबेडकर को लेकर भाकपा-माले का रूख बदल रहा है। बिहार में महागठबंधन में इसकी मजबूत भागीदारी और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर इसकी जोरदार पैरोकारी बेशक बेहद सुकून देनेवाली है। लेकिन क्या ये बदलाव दृष्टिगत बदलाव हैं या महज कार्यनीतिक हैं? इस हकीकत को जानने-समझने के लिए हालिया पार्टी महाधिवेशन में प्रस्तुत मसविदा दस्तावेज पर थोड़ी चर्चा करना प्रासंगिक होगा।

  1. भाकपा-माले ने महाधिवेशन में प्रस्तुत दस्तावेज में सामाजिक उत्पीड़न के खात्मे और जातियों के उन्मूलन को एक प्रमुख क्रांतिकारी लक्ष्य घोषित किया है। जाति उन्मूलन कोई निरपेक्ष चीज नहीं है, दस्तावेज में इस निमित्त कोई ठोस कार्यक्रम व कार्यभार तय नहीं किए गए हैं। दस्तावेज में भाकपा-माले भारत को एक कृषि प्रधान पिछड़े पूंजीवादी समाज के रूप में चिह्नित करते हुए जड़ें जमाए सामंती अवशेष और खांटी औपनिवेशिक अतीत के खुमार को समाज को पीछे खींचने के बतौर स्वीकारती है और वैश्विक पूंजी एवं साम्राज्यवाद के लुटेरे प्रभुत्व के तले लड़खड़ाते हुए देखती है। स्पष्ट है कि जाति को नियामक हैसियत में नहीं स्वीकारा जा रहा है, जाति गौण हो जाती है।
  2. दस्तावेज में भारत के सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था में निर्णायक हैसियत में कॉरपोरेट को स्वीकारा गया है। कॉरपोरेट के साथ सामंती अवशेष के गठजोड़ को रेखांकित किया गया है। दस्तावेज में भारतीय राजसत्ता पर भी जाति निरपेक्ष होकर बात की गई है। भाकपा-माले का मानना है कि साम्राज्यवादपरस्त बड़ा पूंजीपति वर्ग जोतदारों और कुलकों के साथ संश्रय कायम करके भारतीय राजसत्ता का नेतृत्व करता है। राजसत्ता का ब्राह्मणवादी चरित्र और व्यवहार के मूल में राजसत्ता की तमाम संस्थाओं में मौजूद सवर्ण प्रभुत्व को रेखांकित नहीं किया गया है। ऐसा कहा गया है कि भारत के कानूनी, न्यायिक एवं प्रशासकीय ऊपरी ढ़ांचा और सशस्त्र सेनाएं अभी भी काफी हद तक औपनिवेशिक अतीत की विरासत हैं।
  3. जनवादी क्रांति को पूरा करने के लिए दस्तावेज में मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता का जनवादी मोर्चा बनाने का कार्यभार तय है। जनवादी मोर्चा बनाने के लिए समाज के वर्ग विश्लेषण के जरिए वर्गों की शिनाख्त करना होता है, उसके चरित्र का निर्धारण करना पड़ता है। भाकपा-माले जाति उन्मूलन को जनवादी क्रांति का लक्ष्य के बतौर स्वीकारती है, लेकिन वर्ग विश्लेषण जाति निरपेक्ष होकर करती है। जाति भारतीय समाज के चेहरे पर बाहर से लगाया गया धब्बा नहीं है, जिसे आसानी से मिटा दिया जा सकता है, यह समाज के रेशे-रेशे में समाया हुआ है। भारत में अलग-अलग वर्ग का चरित्र व व्यवहार जाति निरपेक्ष नहीं होता है। एक वर्ग के भीतर भी सवर्णों को हासिल विशेषाधिकार उसके चरित्र व व्यवहार को बदल देता है, उसे अलग हैसियत प्रदान करता है। जाति उन्मूलन का लक्ष्य तय करने के बाद भी जाति निरपेक्ष वर्ग विश्लेषण सवाल खड़ा करता है।
  4. सवर्णों का बहुसंख्यक आज भी भाजपा का कोर सामाजिक आधार है। दस्तावेज में फासीवाद विरोधी जनप्रतिरोध का परिप्रेक्ष्य, दिशा एवं कार्यभार पर बात करते हुए राम मंदिर अभियान को भाजपा के उदय का सबसे आक्रामक दौर माना गया है, जिसने उत्तरी और पश्चिमी भारत के कई प्रांतों में भाजपा को सत्ता में पहुंचा दिया। उसका दावा है कि उसने रथ यात्रा के उन्माद पर सवार भाजपा के उभार को सांप्रदायिक फासीवाद के रूप में ठीक ही चिह्नित किया था। भाकपा-माले आपातकाल के बाद के दौर में मंडल आयोग की सिफारिशों के आंशिक क्रियान्वयन और पंचायती-राज प्रणाली को संस्थाबद्ध करने के माध्यम से सामाजिक समावेशन और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के थोड़े विस्तार के विपरीत 1990 के दशक की शुरुआत में नव-उदारवादी नीतिगत ढांचा अपनाने के कारण समाजार्थिक विषमता के फिर से बढ़ने और लोकतांत्रिक अधिकारों के लगातार क्षरण को रेखांकित करती है। लेकिन, यह प्रतिक्रियावादी उभार मंडल-बहुजन उभार के जवाब में भी सामने आया, यह उल्लेखित नहीं करती है। जबकि आरएसएस ने मंडल उभार को ‘शूद्र क्रांति’ के बतौर चिह्नित किया था और इससे निपटने की चुनौती रेखांकित की थी। दस्तावेज में फासीवाद के ब्राह्मणवादी आयाम को गौण कर सांप्रदायिकता को सामने रखा गया है। मूल ब्राह्मणवाद है। हिंदू पहचान को उभारने के लिए सांप्रदायिकता औजार और मुसलमान चारा हैं। जरूर ही फासीवाद के उभार के साथ नवउदारवादी अर्थनीति व कॉरपोरेट लूट के साथ रिश्ता है। साथ ही इसका रिश्ता ब्राह्मणवाद के साथ भी है, वर्ण-जाति व्यवस्था की पुनर्स्थापना के साथ भी है।
  5. दस्तावेज में फासीवादी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सुदृढ़ लोकतंत्र और क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव के चैंपियन के रूप में कम्युनिस्टों को एक दीर्घकालीन और क्रांतिकारी प्रतिरोध संघर्ष के लिए तैयार हो जाने का कार्यभार प्रस्तुत करते हुए आंबेडकर को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि संविधान इस अलोकतांत्रिक जमीन पर लोकतंत्र की सजावट भर है। डॉ. आंबेडकर ने जाति को आधुनिक भारत के लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में पहचाना था और सामाजिक बराबरी तथा आजादी सुनिश्चित करने के लिए इसके पूर्ण खात्मे का आह्वान किया था। इसीलिए उन्होंने हिंदू राष्ट्र को सबसे बड़ी आपदा कहा था, जिससे भारत को बचाया जाना चाहिए। जाति के मुद्दे पर सवालों के घेरे को भाकपा-माले तोड़ नहीं पा रही है। इस घेरे को दृष्टि के स्तर पर तोड़ने की चुनौती है। भारतीय समाज में ‘वर्ग’ की समझ को बदलने की चुनौती है। दस्तावेज में ब्राह्मणवाद शब्द का प्रयोग तो हुआ है, लेकिन नाममात्र और विशेषाधिकार प्राप्त जाति-समूह की पहचान – सवर्ण और ‘बढ़ते सवर्ण प्रभुत्व’ शब्दावलियों से भरसक बचा गया है। आधुनिक भारत के लिए सबसे बड़ी बाधा – जाति – को दस्तावेज के पैरा में कहीं-कहीं नीचे की तरफ जगह मिल जा रही है। डॉ.अंबेडकर उद्धरण के बतौर मौजूद हैं। दस्तावेज में भाजपा के इस चरम उभार के दौर में वाम खेमे की चुनावी ताकत को भारी नुकसान को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा गया है कि चुनावी ताकत की कमी वामपंथ की वैचारिक राजनीतिक प्रासंगिकता को कम नहीं करती है। लेकिन दूसरी तरफ दस्तावेज में यह भी दर्ज है कि बिहार में भाकपा-माले की चुनावी सफलताओं ने मौजूदा हालत के मद्देनजर वामपंथ के पुनरुत्थान की संभावनाओं को खोल दिया है। यहां भाकपा-माले विरोधाभास के बीच खड़ी है। कम्युनिस्ट शब्दावली में इसे लफ्फाजी कहा जाता है।
  6. भाकपा-माले की पहचान नक्सलबाड़ी से जरूर जुड़ती है, लेकिन बाद में देश-दुनिया में खास पहचान मध्य बिहार (अविभाजित बिहार में) के संघर्षों से हासिल हुई। 1970-80 के दशक के उस संघर्ष से ही भाकपा-माले को अस्तित्व व औचित्य का आधार हासिल हुआ है। दस्तावेज में नए दौर में संघर्ष के नए मॉडल, नई जमीन जोड़ने को लेकर बहस-विमर्श व कार्ययोजना पर चर्चा नहीं है। केवल रुटीनी कार्यक्रम और फासीवाद विरोधी मोर्चाबंदी से नई जमीन जोड़ने की प्रत्याशा की गई है।

अंतिम तौर पर कहा जाए तो हमने ऊपर जिन वैचारिक-संरचनात्मक अवरोधों की चर्चा की है, भाकपा-माले को उनसे उबरना होगा। इनपर पर नए सिरे से सोचना होगा, पार्टी को नए स्वरूप में लाना होगा। भारत और खासतौर से बिहार के संघर्ष के इतिहास पर नए सिरे से गौर करते हुए विरासत को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। जरूर ही भाकपा-माले को संघर्ष के ब्राह्मणवाद विरोधी आयाम को विकसित करने और सामाजिक न्याय के व्यापक सवालों पर जुझारु पहलकदमी लेने और हर लिहाज से सामाजिक न्याय की राजनीतिक धाराओं से आगे खड़ा होने की चुनौती कबूल करनी होगी। पार्टी का जनाधार खांटी बहुजनों का है, आगे भी उसी के बीच विस्तार मिल सकता है। पार्टी के नेतृत्व के बतौर समाज के जिस हिस्से से आए लोगों की पहचान है, उसका पार्टी के सामाजिक आधार के साथ अंतरविरोध है। सामाजिक आधार के लिहाज से नेतृत्व अस्वाभाविक व असंगत है, इसे हल करना होगा। जरूर ही उत्पीड़ित समुदायों से आए लोग भी नेतृत्वकारी निकायों में हैं, लेकिन वे प्राधिकार-विहीन हैं, निर्णायक व प्राधिकारयुक्त नेतृत्व के बतौर उनकी पहचान नहीं है, वे बीच में नहीं, बगल में बैठे हैं या पीछे खड़े हैं।

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