अग्नि आलोक

मोटे ठूँसे पेटों के सामने

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जूली सचदेवा (दिल्ली)

ऊँची इमारतों की ऊँची छतों
से दिखती है कुकरमुत्ते सी
उग आयी एकदूसरे से चिपकी
कई झोपड़ियाँ।

यहाँ लेते है
एक कमरे में भरे कई
इंसान एक दूसरे से
साँसे उधार।
मुश्किल है हवा का
गुज़रना भी
जहाँ से दिखता नहीं
चाँद , सूरज या
आसमान भी।

वहाँ के दबडो में दुबक कर
रहना कितना मुश्किल है?
पर सेठ लोग
रखते है
ऊपरी लालची सहानुभूति
ऐसे समुदाय से
और वो
जुमलों के पेड़ से
झाड़ते है कुछ
अदृश्य मीठे फल
परंतु …
मात्र टीवी या
समाचारपत्र में।

अफ़सोस!
ऊपर मुँह उठा कर
चलने वालों को अक्सर
नहीं दिखती अपने ही
पैरों की जमीं।
वो चलते नहीं
उड़ते है
कुछ फ़ुट ऊपर
हवा में
वो झूमते रहते है
हर समय
₹~पैसा
नामक एक नशे में।

उनके मोटे ठूँसे हुये पेटों
के सामने अक्सर
छुप जाते है
भूख से अँदर
धँसे पसलियाँ
उगलते
ख़ाली पेट।
वो बाँटते है राशन
के कुछ पैकेट
और खिचवाते है
उससे दुगनी तिगुनी तस्वीरें
वो हज़म कर जाते है
भूखों का हिस्सा भी
बड़े इत्मिनान से
मुस्कुराते हुये।

वो मंदिर मे
दूर तक लगी
धूप -पानी झेलती
क़तार को पीछे छोड़
सबसे आगे निकल कर
चढ़ाते हैं एक मोटी रकम
और अपने पद की धौंस
भगवान को।
ईश्वर भी देता है
उन्हें ही हाथ खोल-खोलकर
दूसरी ओर
एक निरीह
एक गरीब
रह जाता है
बस दुआएं मांगता
हाथ जोड़े उम्र भर !!
{चेतना विकास मिशन}

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