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विकास क्रम में रूढ़ियों और परंपराओं के विरोध में भी विद्रोह पनपते है

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शैलेन्द्र चौहान

संस्कृति के बारे में बात करने से पहले हमें मनुष्य के विकास क्रम को समझना होगा। मनुष्य के पैदा होने के बाद उसे जो पहले महसूस हुआ वह थी भूख। भूख शांत करने के खाद्य पदार्थ प्राप्त करना उसकी मूल आवश्यकता बनी। उसे समझना पड़ा कि क्षुधा तृप्ति के लिए क्या उपयुक्त वस्तु है। कुछ वस्तुएं उसने खाने के लिए चुनी। यह उपलब्ध होने के ऊपर निर्भर था। फिर उन वस्तुओं की लगातार खोज उसके जीवन का एक हिस्सा बनी। साथ ही साथ नई वस्तुओं का नाम प्राप्त करना भी उसके स्वभाव का अंग बना। उसने अन्य प्राणियों का शिकार करना सीखा।

आग का ज्ञान होने पर खास पदार्थों को भूनना सीखा। खाद्य-पदार्थों को उबालने के लिए मिट्टी के बर्तनों का अविष्कार किया। समझने के साथ-साथ सोचना भी शुरू हुआ। शरीर को मौसम के प्रहारों से बचाने के लिए घर बनाना सीख लिया। घर निर्माण के बाद एक जगह रहना। समूह में रहने के साथ दायित्वों का बंटवारा होने लगा। कुछ नियम कानून बने। यहीं से संस्कृति का आंरभ होता है।

प्रागैतिहासिक काल में मनुष्यों का परिवेश और संस्कृति अभावों से जुझने की संस्कृति थी। वे कबीलों में रहते थे। उन्हें जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करनी होती थी। वे उनका शियार भी करते थे। कालांतर में वस्तुओं का संग्रहण भी प्रारंभ हुआ। उस काल को समझने के लिए मानव-विज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी), उद्‌विकास (एवोल्यूशन) और पुरातत्व विज्ञान (आर्कियोलोजी) से जानकारी प्राप्त होती है। धीरे-धीर मनुष्य ने जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तु‌ओं की खोज, निर्मिति और अपने आपको बचाने के लिए एक कौशल विकसित कर लिया। पहले उन्होंने पत्थरों से औजार बनाए। तदनंतर उसने कांसे की खोज की और फिर लोहे की। इस विकास क्रम को सभ्यता कहा गया। इस दौरान मनुष्य ने पशुपालन और कृषि को जीवन निर्वाह में सहायक बनाया।

सभ्यता शब्द का उपयोग आज मानव समाज के सकारात्मक, गतिशील और समावेशी विकास को इंगित करने के लिए किया जाता है। वहीं संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों समग्र स्वरूप को कहा जाता है। यह मनुष्य समूह के सोचने, विचारने और कार्य करने के स्वरूप में अंतरनिहित होता है, ऐसा माना जाता है। संस्कृति का शब्दार्थ है- सुधरी हुई और उत्तम स्थिति। मनुष्य स्वभावत एक प्रगतिशील प्राणी है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने प्राकृ‌तिक परिवेश को निरंतर सुधारता और उन्नत करता है।

मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही संतुष्ट नहीं होता। उसे मानसिक और सांवेदनिक उन्नति की भी आकांक्षा रहती है। उसके सौंदर्यबोध में निरंतर विकार होता है। अपने कौशल के साथ-साथ वह कलाओं के माध्यम से सौंदर्यबोध को उच्च स्थान पर पहुंचाता है। साहित्य, संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला आदि के माध्यम से वह अपना मानसिक वैचारिक उन्नयन करता है। और दूसरी ओर बुद्धि और विवेक का सामूहिक और सामाजिक उन्नयन में प्रयोग न कर पाने के कारण वह एक जड़ता का शिकार भी हो जता है। रूढ़ियों, अंधविश्वास और नियतिवाद के चंगुल में फंस जाता है। यह संस्कृति का ह्रास है। विभिन्न युगों में संस्कृति के रूपों को देखने के लिए सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन आवश्यक है। नृविज्ञान और इतिहास उसके लिए उपयुक्त अनुशासन हैं।

प्रत्येक संस्कृति का विकास भौगोलिक एवं आनुवंशिक परिस्थितियों एवं युगों पर निर्भर होता है। इसलिए विश्व के विभिन्न भागों में संस्कृति का स्वरूप भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होता है। संस्कृतियों का संघर्ष, मिलन तथा आदान-प्रदान निरंतर होता रहता है। इन प्रक्रियाओं में कभी-कभी संस्कृतियां विलीन भी हो जाती हैं। कबीलाई समूहों की संस्कृति सामंत काल से अलग थी। सामंतकालीन संस्कृति में तहर-तरह का वर्ग विभाजन हुआ। तद्नुसार सांस्कृतिक मूल्य और धारणाएं बदली।

प्राचीनकाल में राजतंत्रों की स्थापना के करण एक विशेष भूभाग में अलग शासन पद्धति, विचार, आर्थिक संसाधन और मूल्यों का निर्धारण किया जाता रहा। मेसापोटामिया की सभ्यता से लेकर यूनान और रोम की सभ्यता तक संस्कृति के अनेकों रूप देखे जा सकते हैं। मेसोपोटामिया (3800 से 381 वर्ष ईसापूर्व- पश्चिम एशिया में फारस की खाड़ी के उत्तर में दजला और फरात नाम की दो नदियों के बीच स्थित था। इसमें सुमेरिया, बबीलोनिया और असीरिया नामक सभ्यताएं स्थापित थीं। इस सभ्यता में कृषि करने के और पशुपालन के साक्ष्य मिले हैं। वहां सिंचाई की व्यवस्था विकसित हो चुकी थी और पशुओं के दूध से कई उत्पाद बनते थे। यह देवपूजक, आस्तिक समाज था। अनेको देवताओं को पूजता था। केन्द्रीय शासन सुमेरिया में स्थापित हो गया था। कला साहित्य व्यापार को संरक्षण मिलता था। अन्य स्थानों पर छोटे-छोटे राजा थे।

समाज में वर्ग विभाजन था। राजा-शासक, पुरोहित व राज्य के बड़े अधिकारी- उच्चवर्ग में आते थे। मध्य वर्ग में बड़े किसान और कमचारी। निम्न वर्ग में दास, श्रमिक और छोटे किसानी वे प्राय: एक ही विवाह करते थे। लेकिन दहेज प्रथा का प्रचलन था। गेहूं, जौ, खजूर और दूध से बने उत्पाद इनके प्रिय खाद्य पदार्थ थे। स्पष्ट है इस सभ्यता में कोई विरोध का स्वर नहीं था। इसके मिश्र, भारत, चीन, माया, यूनान की सभ्यताएं थी। सबमें सामंती संस्कृति थी। दास प्रथा भी। विरोध के स्वर नगण्य थे। जब यूनान में नगर-राज्यों की विकास हो रहा था, उस समय बहुत से कबीलों के लोग इटली के मैदानी क्षेत्रों में आकर बस गये। इटली के सर्वप्रथम निवासी उत्त‌र अफ्रीका, स्पेन और फ्रांस से आकर बसे थे।

युनानी सभ्यता ने ज्ञान-विज्ञान, कला संस्कृति के क्षेत्र उनलेखनीय प्रगति की थी, जिसका संपूर्ण विश्व पर व्यापक प्रभाव पड़ा। यूनानियों का रोमन संस्कृति पर भी प्रभाव रहा। रामन कला-साहित्य, वास्तुकला, दर्शन, धर्म और सैन्य रणनीति को अपनाने लगे थे। जूलियस सीजर, सिकंदर से प्रभावित था। ग्रीक संस्कृति को रोमनों ने अपना लिया। उनका धर्म कई हेलेनिक देवताओं को अपनाया, उनका नाम बदलना और उनके आसपास के मिथकों को बनाए रखने काम उन्होंने किया।

प्राचीन रोम में वहाँ के समाज में दासप्रथा की अहम भूमिका की। वहाँ की अर्थव्यवस्था में इनका महत्वपूर्ण योगदान था। दास, शारीरिक श्रम के अलावा घरेलू सेवाएं भी देते थे। रोमन कानून के मुताबिक इन दासों को संपत्ति माना जाता था। उनका कोई कानूनी व्यक्तित्व नहीं था। अधिकांशतः दासों को कभी मुक्त नहीं किया जाता था। रोमन नागरिकों के विपरीत उन्हें, शारीरिक दंड, यौन शोषण और यातनाएं दी जाती थीं। दासता का संबंध युद्धों से रहा है। विजेताओं की पराजितों को दास बना लिया जाता था। रोमन साम्राज्य का अभ्युदय और प्रसार सैन्य बल पर हुआ था इसलिए रोम में दास प्रथा का प्रचलन अधिक रहा। रोमन नागरिकों के मनोरंजनार्थ दास-योद्धाओं-ग्लेडिएटर्स को कवचहीन स्थिति में तलवार युद्ध करना पड़ता था। इस युद्ध् में उनकी मृत्यु एक सामान्य घटना थी।

जब रोमन साम्राज्य में बहु‌संख्यक दासों पर होने वाला दुस्सह अत्याचार चरम पर पहुंच गया तो इटली था सिसली के ग्रामीण क्षेत्रों में दास विद्रोहों का सिलसिला शुरू हो गया। सबसे प्रबल विद्रोह ई पू-73 के आसपास ग्लेडिएटर्स के बहादुर नायक स्पार्टाकस के नेतृत्व में हुआ। विद्रोही दास सेनाओं का आकार बढ़ता गया और एक समय पूरा इटली दासों के हाथों में चला गया। ई पू-73 में स्पार्टाकस अंतत: पराजित हुआ। लेकिन दासता के विरुद्ध उसने जो अभियान छेड़ा उसके परिणाम स्वरूप विश्व में धीरे-धीर दास प्रथा का खात्मा हो गया।

14 वीं और 17 वीं सदी के बीच योरोप में जो सांस्कृतिक और धार्मिक प्रगति, आंदोलन और युद्ध हुए उन्हें पुर्नजागरण कहा जाता है। इसके फलस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नवीन चेतना आई। यह आंदोलन केवल पुराने ज्ञान के उद्वार तक ही सीमित नहीं था बल्कि इस युद्ध में कला, साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग हुए, अनुसंधान हुए और ज्ञान प्राप्ति के नये-नये तरीके खोजे गए। इसने परलोकवाद और धर्मवाद के स्थान पर मानववाद को प्रतिष्ठित किया। साहित्य, कला, दर्शन, विज्ञान, वाणिज्य-व्यवसाय, समाज और राजनीति पर धर्म का प्रभाव समाप्त हो गया। एक नयी चेतना और नमी संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ।

अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कुछ पश्चिमी देशों का तकनीकी खामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में बड़ा बदलाव आया। इस परिघटना को औद्योगिक क्रांति बहा जाता है। औद्योगिक क्रांति शब्द का प्रयोग सबसे पहले आरनोल्ड टायनवी ने अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स ऑन द इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन इन इंगलैंड’ में 1844 में किया। औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात वस्त्र उद्योग के मशीनी कारण के साथ आरंभ हुआ। जिसमें रोजगार निवेश की गई पूंजी और उत्पादित माल आदि की दृष्टि से इसी उद्योग का आधुनिकीकरण हुआ।

औद्योगिक क्रांति का मानव समाज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। इस औद्योगिक, क्रांति से उत्पादन पद्धति गहरे रूप से प्रभावित हुई। श्रम के क्षेत्र में मानव का स्थान मशीन ने ले लिया। उत्पादन में मात्रात्मक व गुणात्मक परिवर्तन आया। अंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ा। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का विस्तार भी औद्योगिक क्रांति का परिणाम था। इसके फलस्वरूप नये वर्गों का उदय हुआ। इस क्रांति से एक वर्ग को पूंजी जमा करने और श्रम का शोषण करने की खुला अवसर प्राप्त हुआ।

शोषित वर्ग को इस दुष्चक्र से मुक्त होने के लिए संघर्ष करने पड़े। फलतः श्रमिक आंदोलनों का प्रारंभ हुआ प्राकृतिक साधनों का अधिकतम दोहन एवं प्रयोग और प्रकृति पर नियंत्रण करने की क्षमता विकसित हुई। इस परिवर्तन से समाज की संरचना में बदलाव आया और सांस्कृतिक रूपांतरण को गति मिली। पुराने रहन सहन के तरीकों, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं कला-साहित्य, मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन हुआ। परंपरागत शिक्षा पद्धति के स्थान पर रोजगारपरक तकनीकी एवं प्रबंधकीय शिक्षा का विकास हुआ जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा।

औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में पूंजीपतियों की पूंजी बेतहाशा बढ़ी। वे मुनाफा अधिक बढ़ाने के लिए श्रमिकों का अधिक शोषण करने लगे। फलत: श्रमिकों की दशा सोचनीय हो गई। कुछ विचार‌कों ने मजदूरों की दशा सुधारने के लिए नवीन विचारों का प्रतिपादन किया। इसे समाजवादी विचारधारा कहा गया। इसके अनुसार उत्पादन के साधनों पर एक व्यक्ति का अधिकार नहीं होना चाहिए बल्कि पूरे समाज का अधिकार होना चाहिए। इस संदर्भ में ब्रिटेन के उद्योगपति राबर्ट ओवेन, सेंट साइमन (फ्रांस), लुई ब्लां आदि विचारकों का नाम महत्वपूर्ण है।

1848 में कार्ल मार्क्स एवं एंजेल्स ने कम्युनिष्ट घोषणा पत्र जारी किया और वैज्ञानिक समाजवाद की प्रस्थापना की। यह एक महत्वपूर्ण आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन का कारण बना। 1917 की रूस की क्रांति विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इसके परिणामस्वरूप रूस में जार के स्वेच्छाचारी शासन का अंत हुआ और रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराज्य (Russian Soviet Faderative Socialist Republic) की स्थापना हुई। यह क्रांति दो भागों में हुई। मार्च 1917 में, तथा अक्तूबर 1917 में। पहली क्रांति के फलस्वरूप रूसी सम्राट को पद-त्याग करने के लिए विवश होना पड़ा तथा एक आस्थायी सरकार बनी।

अक्टूबर कांति के बाद अस्थायी सरकार को हटाकर बोल्शेविक सरकार (कम्युनिस्ट सरकार) की स्थापना की गई। इससे दुनिया भर के सर्वहारा वर्ग को शक्ति मिली। प्रथम विश्वयुद्ध योरोप में 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला युद्ध था। इसकी आग पूरे विश्व में फैली थी। यह इतिहास के सबसे बडे़ और घातक संघर्षों में गिना जाता है। इसमें अनुमानित 9 करोड़ सिपाहियों की मौत हुई। युद्ध के प्रत्यक्ष परिणाम के फलस्वरूप 1.3 करोड़ नागरिकों की भी मृत्यु हुई। 1918 में स्पेनिश फ्लू महामारी से दुनिया भर में अनुमानतः 7 करोड़ से 10 करोड़ तक मौतें हुईं।

औद्योगिक अंति के कारण सभी बड़े और सम्पन्न देश ऐसे उपनिवेश चाहते थे की जहाँ से वे कच्चा माल प्राप्त कर सकें और अपने देश में बनायी हुई वस्तुओं दुनिया भर में वेच सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर देश दूसरे देश पर साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा रखने लगा। इसके लिए सैनिक शक्ति बढ़ाई गई और गुप्त कूटनीतिक संधियां की गईं। इससे आपस में प्रतिद्वंद्विता, अंधविश्वास और वैमनस्य बढ़ा और यह युद्ध का कारण बना। आस्ट्रिया के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्च ड्यूक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या इस युद्ध का तात्कालिक कारण था। इस युद्ध के बाद इससे हुए नुकसान से उबरने में वक्त लगा। लेकिन योरोपीय देशों ने तकनीक और मशीन की सहायता से पुनः अपने को संभाला। इससे एक परिवर्तन यह हुआ कि योरोपीय देश अफ्रीकी-एशियाई देशों की और साम्राज्य स्थापना के लिए अग्रसर हुए।

जब यह युद्ध आरंभ हुआ उस समय भारत के औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अधिकतर जनता गुलामी की मानसिकता से ग्रसित थी। अतः भारत की जनता ब्रिटेन के दुश्मन को अपना दुश्मन समझ रही थी। भारत की ओर से लड़ने वाले शैनिक इसे अपनी स्वामिभक्ति का दायित्व समझते थे। जिस भी मोर्चे पर उन्हें लड़ने भेजा गया वहाँ वे जी जान से लड़े। इस युद्ध में ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटामिया (ईराक) की लड़ाई से लेकर पश्चिम योरोप, पूर्वी एशिया और मिस्र तक जाकर भारतीय जवान लड़े।

कुल 8 लाख भारतीय सैनिक इस युद्ध में शामिल थे। 47746 सैनिक मारे गये और 65000 घायल हुए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने इस युद्ध में ब्रिटेन की सहायता की। रियासतों के राजाओं ने दिल खोलकर आर्थिक और सैनिक सहायता की। बहुत से उपनिवेश इस उम्मीद में कि इस युद्ध के बाद उन्हें आजादी मिल जाएगी इस युद्ध में सहायक बने। भारत के नेता भी इसी उम्मीद में थे। लेकिन जब युद्ध खत्म हुआ ब्रिटेन ने इस बारे में बात करने से पल्ला झाड़ लिया। जब रोलेर एक्ट आया, जलियांवाला बाग नरसंघार हुआ, युद्ध तुरंत बाद 1919 में ही गवर्नमेंट के इंडिया एक्ट आया तो भारतीय नेताओं को बड़ी निराशा हुई। ब्रिटेन के इस व्यवहार से आजादी के लिए आंदोलन में तेजी आई।

प्रथम विश्व युद्ध में योरोप की केंद्रीय शक्तियों ऑस्ट्रि‌या, हंगरी, जर्मनी, बुल्गारिया और ओटोमन साम्राज्य की हार के साथ तथा रूस में बोल्शेविकों द्वारा सत्ता हासिल करने के बाद योरोपीय राजनीतिक मानचित्र पूरी तरह बदल गया। इस बीच फ्रांस, बेल्जियम, इटली, ग्रीस और रोमानिया जैसे विश्वयुद्ध के विजयी मित्र राष्ट्रों ने कई नये क्षेत्र प्राप्त कर लिए। पहले विश्व युद्ध के बाद एक शांतिवादी भावना के बावजूद कई योरोपीय देशों में जातीयता और क्रांतिवादी राष्ट्रवाद पैदा हुआ। इन ‌भावनाओं का विशेष रूप से जर्मनी पर ज्यादा प्रभाव पड़ा। वर्साय संधि के तहत इसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्र और उपनिवेश खोना पड़ा था।

संधि के कारण अपने घरेलू क्षेत्र का 13% और कब्जा किए हुए कई भाग छोड़ने पड़े। उसे किसी दूसरे देश पर आक्रमण न करने की शर्त माननी पड़ी। अपनी सेना को सीमित करना पड़ा। पहले विश्वयुद्ध में हुए नुकसान की भरपाई के रूप में दूसरे देशों को भुगतान करना पड़ा। 1918-1919 की जर्मन क्रांति में जर्मन साम्राज्य का पतन हो गया। इटली में 1922 से 1925 के बीच मुसोलिनी की अगुआई वाली फासिस्ट सरकार का कब्जा रहा। उधर हिटलर 1923 में जर्मन सरकार को उखाड़‌ने के असफल प्रयास के बाद अंततः 1933 में जर्मनी का चांसलर बन गया।

1934 में राष्ट्रपति और चांसलर के पद को मिलाकर एक कर दिया गया। वह राष्ट्र नामक की उपाधि से विभूषित हुआ। जर्मनी में हिटलर के अभ्युदय के कुछ कारण थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद युरोपीय देशों द्वारा की गई वर्साय की संधि जिसने जर्मनी को पंगु बना दिया था। आर्थिक, राजनीतिक एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति में वह निष्प्रभावी हो गया था। जर्मन निवासी अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त करना चाहते थे और वे एक ऐसे नेता की तलाश में थे जो उनके राष्ट्र के कलंक को मिटा कर जर्मनी के गौरव को पुनर्स्थापित कर सके। हिटलर के व्यक्तित्व में उन्हें ऐसे नेता का अक्स दिखाई दिया। जर्मनी की जनता की स्वाभाविक-सांस्कृतिक शैली ने भी हिटलर के उत्थान में सह‌योग किया।

जर्मन स्वभावतः वीर और अनुशासन प्रिय होते हैं। अतः उन्होंने हिटलर के अधिनायकत्व को स्वीकार कर लिया। वर्साय संधि के कारण जर्मनी की आर्थिक स्थिति खराब थी। हिटलर ने जनता को पूँजीपतियों और यहूदियों के खिलाफ भड़‌काना शुरू किया। 50 लाख से अधिक बेरोजगार हिटलर के समर्थक बन गए। यह एक आर्थिक कारण रहा। चूंकि जर्मनी की पराजय के लिए यहूदियों को उत्तरदायी ठहराया जा रहा था। हिटलर यह भली-भाँति जानता था। अतः उसने यहूरियों को देश से निकालने की घोषणा कर दी। इस घोषणा से जनता उसके साथ हो गई।

संसदीय राजनीतिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास उठ गया था। अतः तानाशाही के लिए रास्ता साफ हो गया था। जर्मन सैनिक स्वभाव के लोग थे। हिटलर ने स्वयंसेवक सेना का गठन किया। भारी संख्या में युवा उसमें भर्ती हुए। इससे बेकारी की समस्या का समाधान भी हुआ और हिटलर के प्रति लोगों में श्रद्धा भी भक्ति का विकास हुआ। हिटलर एक प्रभावशाली वक्ता था। उसका व्यक्तित्व आकर्षक था। उसने अंध राष्ट्रवाद को प्रतिष्ठित कर दिया।

22 जून 1941 को नाजी जर्मनी ने ऑपरेशन बारबरोसा शुरू किया था, जो सोवियत संघ के खिलाफ एक बड़ी आक्रामक कार्रवाई थी। उस समय सोवियत संघ की कमान स्टालिन के हाथ में थी। यह एक जोखिम भरा दाँव था जो हिटलर ने दूसरे विश्वयुद्ध को निर्णायक रूप से अपने पक्ष में करने की कोशिश में खेला था। लेकिन नतीजा वैसा नहीं रहा जैसा हिटलर चाहता था। इस युद्ध की नाकामी दूसरे विश्व युद्ध का टर्निंग पाइंट साबित हुई। यह जर्मन श्रेष्ठता के अंत की शुरुआत भी थी। यह युद्ध छह महीने चला। पहले सोवियत संघ पर हिटलर की सेना भारी पड़ी।

जर्मन सेना मास्को तक पहुंच गई थी। 1942-45 के बीच स्टालिन ग्राह की लड़ाई ने स्थितियां बदल दीं और जर्मन सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। उत्तरी अफ्रीका में जर्मन और इतालवी सेनाओं ने मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। रुसी सेना को पूर्वी मोर्चे पर बढ़त मिलने लगी, इसने जर्मनी से खार्किव और कीव को वापस ले लिया। रुसी सेना 21 अप्रैल 1945 को बर्लिन तक पहुँच गई। हिटलर ने 30 अप्रैल को खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। वहीं मुसोलिनी को इटली के देशभक्तों ने पकड़‌कर फांसी दे दी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरीका, ब्रिटेन और सोवियत संघ ने कंधे से कंधा किनाकर धुरी राष्ट्रों जार्मनी, इटली और जापान के विरुद्ध संघर्ष किया। युद्ध समाप्त होते ही अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के बीच तीव्र मतभेद उभरने लगे। शीघ्र ही मतभेदों के कारण तनाव की स्थिति उत्पन हो गई। फलतः रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और अमेरीका के नेतृत्व में पूँजीवादी देश दो खेमों में बंट गए।

1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने सोवियत संघ के साम्यवाद की आलोचना की। अमेरिका के फुल्टन नामक स्थान पर एंग्लो-अमेरिकन गठबंधन को मजबूत बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। इसमें सोवियत संघ विरोधी भावना स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आई। उधर अमेरिकन सीनेट ने भी शोवियत संघ की विदेश नीति को आक्रामक और विस्तारवादी बताया। भार्च 1947 में ट्रमैन सिद्धांत द्वारा साम्यवादी प्रसार रोकने की बात कही गई। इस सिद्धांत के अनुसार विश्व के किसी भी भाग में अमेरिका के हस्तक्षेप को उचित ठहराया गया। यूनान, टर्की में अमेरिका द्वारा हस्तक्षेप कर सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने की बात स्वीकार की गई।

23 अप्रैल 1942 को अमेरिका द्वारा प्रतिपादित मार्शल योजना के अनुसार पश्चिमी योरोपीय देशों को 12 अरब डालर की आर्थिक सहायता देने का कार्यक्रम स्वीकार किया। इसका प्रमुख उद्देश्य पश्चिमी योरोपीय देशों में साम्यवाद के प्रसार को रोकना था। इस योजना का लाभ उठाने वाले देशों पर यह शर्त लगाई गई के वे अपनी शासन व्यवस्था से साम्यवादियों को दूर रखेंगे। इससे सोवियत संघ के मन में पश्चिमी राष्ट्रों के प्रति अविश्वास गाढ़ा हो गया। 1948 में बर्लिन की नाकेबंदी कर सोवियत संघ ने शीतयुद्ध को बढ़ाने में योग दिया। जर्मनी के विभाजन ने भी दोनों महाशक्तियों में टकराव को बढ़ाया।

1949 में अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के सहयोग से नाटो जैसे सैनिक संघ का निर्माण किया। इस संधि में सीधी चेतावनी दी गई कि यदि सोवियत संघ ने संधि में शामिल किसी देश में हस्तक्षेप किया तो उसके भयंकर परिणाम होंगे। 1949 में चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना से अमेरीकी विरोध अधिक प्रखर हो गया। 1950 में कोरिया संकट ने भी अमेरिका और सोवियत सथ के शीतयुद्ध में बढ़ोतरी की। इसके बाद अनेक देशों में दोनों महाशक्तियों ने सैनिक हस्तक्षेप करके एक दूसरे को चुनौती दी। सोवियत संघ ने अपनी सीमाओं को सुनिश्चित किया लेकिन अमेरीकी हस्तक्षेच निरंतर बढ़ता रहा।

पूरे शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका ने अक्सर राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) और सीआईए जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल अनेक सरकारों, समूहों और व्यक्तियों के खिलाफ गुप्त अभियानों के जरिये किया। जिन देशों के अमेरिकी हितों के खिलाफ माना गया उनमें सैन्य विद्रोह, ताख्तापलट जैसी घटनाओं को अंजाम दिया । 1949 में सीरिया की निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंका। क्योंकि उसने एक तेल पाइप लाइन को मंजूरी देने में देरी की थी। 1950 में मिस्र में सैन्य तख्ता पलट में वहाँ के राजा फारूक प्रथम को हटा दिया।

इरान में चुने हुए प्रधानमंत्री को हटाया और शाह मोहम्मद रेजा पहलवी की मदद की। 1952 में ग्वाटेमाला में तख्ता पलट किया। 1961 में क्यूबा में फिदेल कास्त्रो का तख्ता पलटने की कोशिश की। कांगो के नेता पैद्रिस लुलुबा को टूथपेस्ट में जहर मिलकर हत्या कारने की कोशिश की। डोमिनिकन रिपब्लिक में अशांति फैलाई और गृहयुद्ध कराया।

गुयाना, वियतनाम, लाओस, कंबोडिया, चिली, ईराक, लीबिया, अफगानिस्तान आदि देशों में सैनिक हस्तक्षेप किया। इस तरह दुनिया भर में राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व के लिए युद्ध हुए, सरकारें गिरायी गयी। देशों को तबाह किया गया। वहां के नागरिकों को बेसहारा और संसाधनों से रहित कर दिया। इस दौरान कुछ लोग शांति और मनुष्यता के पक्ष में अपना योग करते रहे। सक्रिय रूप से सत्ता भी बर्बरता और क्रूरता का विरोध किया। साहित्य संस्कृति के माध्यम से मनुष्यता, नैतिकता, सामू‌हिकता का प्रचार-प्रसार किया।

प्रतिरोध अक्सर किसी स्थापित सरकार, प्रशासन, व्यवस्था, प्राधिकरण, मत आदि के खिलाफ होता है। इसमें अक्सर ऐसे समूह शामिल होते हैं जो खुद को अत्यचार या तानाशाही का विरोध करने वाला मानते हैं। यह प्रतिरोध शस्त्रविहीन या सशस्त्र हो सकता है। कुछ भूमिगत संगठन भी हो सकते हैं जो सैन्य कब्जे या अधिनायकवादी वर्चस्व वाले देशों में राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में सक्रिय होते हैं। यदि प्रतिरोध आंदोलन एक बड़े रूप में उठता है और पर्याप्त शक्तिशाली होता है तो वह एक बड़े युद्ध का भी रूप ले लेता है। पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता भी इसका कारण होती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रतिरोध मुख्य रूप से धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध संगठित हुआ था। स्वयं जर्मनी में भी इस काल में नाजी विरोधी जर्मन प्रतिरोध आंदोलन चल रहा था।

अक्सर यह माना जाता है कि जहाँ वर्चस्व, शक्ति और सत्ता का दुरुपयोग होता है, उत्पीड़न होता है। इनसे इतर भी प्रतिरोध के कुछ कारण हो सकते हैं। विभिन्न सत्ता वर्चस्वों और कर्ताओं के संबंधों में प्रतिरोध के कई रूप हैं। कुछ प्रतिरोध पूंजीवादी आर्थिक प्रणालियों और उनके स्वामित्व के विरोध में बदलने के लिए, या सुधारने के लिए होते रहे हैं। वहीं राजसत्ता की तानाशाही के खिलाफ भी प्रतिरोध होते हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों या विमर्श का विरोध करने या उनपर सवाल उठाने के लिए भी प्रतिरोध हो सकते हैं। रंगभेद, लिंग भेद, धर्म-वैषम्य, जातिवाद आदि कारण भी सामाजिक उथल-पुथल का कारण बनते हैं। रूढ़ियों और परंपराओं के विरोध में भी विद्रोह पनपते हैं। सारा प्रतिरोध भौतिक स्थानों या भौगोलिक क्षेत्रों, लक्ष्यों, माध्यमों में ही नहीं बल्कि अन्य रूपों में भी देखने को मिलता है। कुछ प्रतिरोध कला, साहित्य, संगीत, नाटकों के रूप से भी उपजते हैं। उन्नत आईटी और सोशल मीडिया के बड़े पैमाने पर उपयोग के युग में सायबर स्पेस में भी प्रतिरोध हो सकता है।

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