सनत जैन
भारत की अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार हर मंच से बड़े-बड़े दावे कर रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवी अर्थव्यवस्था बन गई है। अगले कुछ वर्षों में तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाएगी। लेकिन जो वास्तविक स्थिति सामने आ रही है, वह काफी भयानक है। भारत की प्रति व्यक्ति आय 1136 रुपए औसत है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत लोअर मिडल इनकम समूह में है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार अगले 12 साल तक भारत इसी समूह में बना रहेगा। लोअर और मिडल इनकम ग्रुप मैं 2036 तक भारत में वर्तमान नीतियों के अनुसार कोई परिवर्तन देखने को नहीं मिलेगा। भारत की आबादी 140 करोड से ज्यादा है।
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से दुनिया के देशों में भारत का नंबर 136वां है। 2022-23 की रिपोर्ट में भारत में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ती चली जा रही है। भारत के ऊपर कर्ज भी प्रति व्यक्ति लगातार बढ़ रहा है। अर्थात कर्ज लेकर लोगों को खर्च करना पड़ रहा है। भारत की एक फ़ीसदी आबादी की कमाई 53 लाख रुपए प्रति वर्ष है। भारत की सकल कमाई पर इस वर्ग का 22.6 फ़ीसदी हिस्सा है। इसके बाद 10 फ़ीसदी आबादी के हिस्से में 13.5 लाख रुपए प्रतिवर्ष आते हैं। भारत की कुल आमदनी का 57.7 फ़ीसदी हिस्सा 10 फ़ीसदी लोगों के पास पहुंच रहा है। भारत की कुल आबादी की 90 फ़ीसदी जनसंख्या अभी भी अपने जीवन-यापन के लिए कठिन संघर्ष कर रही है। 90 फ़ीसदी आबादी में से 40 फ़ीसदी आबादी की आय मात्र 1.65 लाख रुपया प्रतिवर्ष है। शेष 50 फ़ीसदी की आमदनी 71163 रुपए प्रति वर्ष है।
जिसके कारण उनके परिवार का जीवन-यापन बड़ा मुश्किल हो रहा है। बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के बाद भी बढ़ी हुई आय का हिस्सा मध्यम और गरीब वर्ग के पास नहीं पहुंच रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा ग्रोथ मात्र एक फ़ीसदी लोगों की है। जो उच्चतम शिखर पर बैठे हुए हैं। यह एक फ़ीसदी लोग भारत में निवेश भी नहीं कर रहे हैं। ये कमाई का अधिकांश हिस्सा विदेशों में ले जाकर निवेश कर रहे हैं। जिसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रति व्यक्ति आय का औसत घटता जा रहा है। 2018 में दिल्ली का सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण हुआ था। दिल्ली की प्रति व्यक्ति औसत आय देश में सबसे ज्यादा है। इस सर्वेक्षण में भी 90 फ़ीसदी परिवारों की आय 25000 रूपये प्रति मासिक से कम थी। अर्थव्यवस्था के आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली संस्था कौशांबी रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफेसर अरुण कुमार का मानना है। भारत में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ती चली जा रही है। भारत के 98 फ़ीसदी परिवार की औसत आय मात्र 16667 रुपए रह गई है।
एक परिवार में चार से पांच व्यक्तियों का औसत माना जाए, तो प्रत्येक भारतीय की अधिकतम खर्च करने की सीमा मात्र 1894 प्रतिमाह रह गईं है। मध्य और गरीब वर्ग की आय नहीं बढ़ रही है। वही उसके खर्च बढ़ते चले जा रहे हैं। विश्व बैंक ने अर्थव्यवस्था के जो मानक निर्धारित किए हैं। उसके अनुसार भारत की 90 फ़ीसदी आबादी गरीब श्रेणी में आती है। यही एक सबसे बड़ा कारण है। भारत के 80 फ़ीसदी परिवारों को मुफ्त अनाज सरकार को देना पड़ रहा है। भारत और दुनिया के अर्थ विशेषज्ञों का कहना है कि जिस तरह की भारत में नीतियां हैं, उसके अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था का लाभ, 90 फ़ीसदी आबादी के जीवन स्तर के सुधार में देखने को नहीं मिल रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था का जो आकार बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण भारत की आबादी है। भारत की आबादी के कारण अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा है। भारत कर्ज लेकर खर्च कर रहा है, जिसके कारण भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ी हुई दिख रही है।
दुनिया के देशों में अभी भी भारत का आय और खर्च के हिसाब से सूची में 136 वें नंबर पर स्थान है। पिछले 10 वर्षों में जिस तरह से भारत की अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पूरी दुनिया में पीटा जा रहा है। उसकी वास्तविक स्थिति विश्व बैंक की रिपोर्ट उजागर कर रही है। शायद यही कारण है, दुनिया भर के निवेशक भारत के शेयर बाजार को अलविदा कहकर यहां से बाहर निकल रहे हैं। विश्व बैंक के अनुसार अगले 12 वर्षों तक लगभग यही स्थिति भारत की बनी रहेगी। गरीब और मध्यम वर्ग की आय और खर्च सीमित होकर रह गया है। भारत में कर्ज के माध्यम से अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने का काम किया जा रहा है। आय और खर्च का संतुलन भारत में बुरी तरह से गड़बड़ा गया है। जिसका असर अब अर्थव्यवस्था में पड़ना शुरू हो गया है। विश्व बैंक द्वारा इस स्थिति पर भी चिंता जताई गई है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था एवं विकास को लेकर बड़ी-बड़ी बातें जरूर की जा रही हैं, लेकिन धरातल में वास्तविक स्थिति 2014 से ज्यादा खराब दिखने लगी है। यही भारतीय अर्थव्यवस्था का वास्तविक सत्य है।
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