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भारत श्रीलंका बनने की ओर …..

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अजय असुर*

भाग- 1*

श्रीलंका 1815 से 1948 तक ब्रिटेन यानी अंग्रेजों का उपनिवेश देश था। स्वतंत्रता के लिए एक राष्ट्रीय आंदोलन 20वीं शताब्दी की शुरुआत में उभरा, और भारत की आजदी के ठीक एक साल बाद 1948 में अंग्रेजों से मुक्ति मिली और श्रीलंका एक स्वंतंत्र देश बना। आज श्रीलंका भारत की तरह एक बहुराष्ट्रीय राज्य है, जो विविध संस्कृतियों, भाषाओं और जातियों का घर है। भारत की तरह श्रीलंका में भी कई राष्ट्रीयतायें हैं, पर मुख्य रूप से श्रीलंका में दो तरह के समुदाय के लोग हैं सिंहली और तमिल। सिंहली देश की बहुसंख्यक आबादी हैं जो तकरीबन 75% हैं और ये तबका बौधिस्ट है। दूसरा तबका तमिलों का है जो तकरीबन 12% हैं, जो एक बड़ा अल्पसंख्यक समूह है।

तमिल लोग श्रीलंका से हटकर एक अलग देश बनाना चाहते थे। जिससे देश गृह युद्ध की तरफ बढ़ गया। इससे पहले श्रीलंका का रक्षा बजट जीडीपी का 6% रहता था इस गृह युद्ध के चलते धीरे-धीरे और विकास को कमकर रक्षा बजट बढ़कर 21% तक का हो गया। श्रीलंका में यह गृह युद्ध 1983 में शुरू हुआ और 2009 में निर्णायक रूप से समाप्त हुआ, जब श्रीलंकाई सशस्त्र बलों ने तमिल के लिबरेशन टाइगर्स को हराया और इसका श्रेय 2005 में बने राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने लिया। महिंदा राजपक्षे ने यह समझ लिया कि यदि सत्ता में रहना है तो इन सिंहलियों के पक्ष की बात करना है और तमिलों सहित दूसरे अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दुष्प्रचार करना पड़ेगा। फिर क्या था महिंदा राजपक्षे ने मोदी की तरह अपने भक्तों की टीम तैयार किया और सिंहलीयों को खुश करने के लिये तमिलों के खिलाफ जहर उगलना शुरू किया। उनके विरुद्ध नियम-कानून बनाने लगे। श्रीलंका के अन्दर ये स्थिति हो गयी कि राजपक्षे नहीं तो कौन? भारत में मोदी की तरह नफरत की खेती कर सत्ता की फसल काटना शुरू किया। देशी-विदेशी बड़े पूंजीपतियों के पक्ष में कानून बनाकर उनको फायदा पहुंचाते रहे और जनता का ध्यान बढ़ती मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि से हटाने के रिमेक तमिलों व ईसाईयों के खिलाफ नफरत फैलाते रहे।

राजपक्षे परिवार ने श्रीलंका की क्षेत्रीय राजनीति से अपनी शुरुआत की थी। साल 2005 में महिंदा राजपक्षे देश के राष्ट्रपति चुने गए। इसके बाद राजपक्षे परिवार के लोग सत्ता के महत्पपूर्ण पदों पर काबिज हो गए। महिंदा राजपक्षे ने अपने छोटे भाई और तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को डिफेंस सेक्रेट्री नियुक्त कर दिया। उन्होंने अपने एक और छोटे भाई बासिल राजपक्षे को राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया। साल 2010 में वो फिर से राष्ट्रपति चुने गए। सबसे बड़े भाई चमल राजपक्षे को भी सत्ता में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया और वो कई बार मंत्री रहे। इस तरह से राजपक्षे परिवार के दूर-दूर के चाचा, ताऊ, भाई भतीजा, बेटा…. को सत्ता में घुसेड़ दिया जरूरत पड़ने पर संविधान में संशोधन भी कर दिया। इसे लेकर राजपक्षे परिवार परिवारवाद, निरंकुशता और सरकारी संसाधनों के गलत इस्तेमाल के आरोप लगने लगे। एक वक्त कहा जाने लगा कि राजपक्षे परिवार देश की 70 फीसदी बजट पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रखता है। श्रीलंका पर कई दशकों से सत्ता संभाल चुके राजपक्षे परिवार का दबदबा रहा है। परिवार के चार भाईयों ने सत्ता पर राज किया है पर आज श्रीलंका में राजपक्षे परिवार से वहाँ की जनता नाराज है। और अब हालात ऐसे हैं कि महिंदा राजपक्षे और उनके परिवार को नौसेना बेस में शरण लेनी पड़ी है। *

*भाग- 2*

श्रीलंका में आज जो आर्थिक संकट आया है वो आज की उपजी परिस्थियों या कोरोना से नहीं है, कोरोना तो एक बहाना है, बल्कि कई सालों से पनप रहा था, लेकिन बीते कुछ महीनों से हालात बदतर हो गए थे। इन बदतर हालातों ने लोगों को सड़क पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया। गुस्साई भीड़ ने प्रधानमंत्री रहे महिंदा राजपक्षे का पैतृक घर आग के हवाले कर दिया। कई सांसदों के घरों को भी जला दिया गया। एक सांसद को तो कार समेत नहर में ढकेल दिया। भीड़ के गुस्से ने महिंदा राजपक्षे को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के पद से इस्तीफा देने के बाद भी लोगों का गुस्सा शांत नहीं हो रहा और यह प्रदर्शन हिंसक हो गया है। हंबनटोटा में राजपक्षे परिवार के पैतृक घर को प्रदर्शनकारियों ने फूंक दिया। इसके साथ ही कई मंत्रियों और पूर्व मंत्रियों के भी घर जला दिए गए हैं। हिंसा में अब तक एक सांसद सहित आठ लोगों की मौत हो गई है और 250 से अधिक लोग घायल बताए जा रहे हैं। हिंसा को लेकर महिंदा राजपक्षे की गिरफ्तारी की भी मांग की जा रही है।

श्रीलंका पर कर्ज

कुछ तथाकथित बुद्धिमानों, दलाल मीडिया और भक्तों का तर्क है कि चीन ने अपने कर्ज के जाल में श्रीलंका को फंसाकर बर्बाद कर दिया है। आईये इसको भी समझने का प्रयास करते हैं।

IMF के अनुसार 2021 में श्रीलंका पर कुल कर्ज उसकी GDP का 109.250% था, जबकि भारत पर कुल कर्ज देश की GDP के 90.601% था। श्रीलंका पर विदेशी कर्ज तेजी से बढ़ा है। बता दें कि सन 2022 में श्रीलंका के लिए यही आंकड़ा बढ़कर 111.421% हो गया है। पर वर्तमान में अनुमान है कि इस समय श्रीलंका पर जीडीपी का 119% कर्ज हो गया है।

2010 में श्रीलंका पर 21.6 अरब डॉलर का कर्ज था, 2020 तक ये बढ़कर 56 अरब डॉलर के पार पहुंच गया। श्रीलंका पर विदेशी कर्ज 2010 में 21.6 अरब डॉलर, 2012 में 35.7 अरब डॉलर, 2014 में 42.2 अरब डॉलर, 2016 में 46.6 अरब डॉलर, 2018 में 52.9 अरब डॉलर, 2020 में 56.3 अरब डॉलर लिया। कर्ज के ये आंकड़े सेंट्रल बैंक आफ श्रीलंका के हैं जिसे आज तक ने उपलब्ध कराया है। 

श्रीलंका ने बाजार से 47%, एशियन डेवलपमेंट बैंक से 13%, चीन से 10%, जापान से 10%, वर्ल्ड बैंक से 10%, भारत 2%, अन्य स्रोतों से 8%।

अब आप स्वंय देखें कि श्रीलंका को चीन ने कुल कर्जों में से मात्र दस फीसदी ही दिया है। चीन ने 2010 में हंबनटोटा पोर्ट डेवलपमेंट के लिए श्रीलंका को 1.26 अरब डॉलर का कर्ज दिया था। इसके बाद भी जरूरत पड़ने पर चीन ने श्रीलंका को कर्ज दिया और वो भी बिना किसी शर्तो के, तो चीन कैसे जिम्मेदार हो गया? और चीन द्वारा दिया गया कर्ज सबसे कम ब्याज दर वाला कर्ज है सभी कर्जों से और बिना शर्त का कर्ज है। श्रीलंका ने चीन से ये कर्ज हंबनटोटा पर एक बंदरगाह बनाने के लिये लिया था। श्रीलंका इस कर्ज के लिये पहले भारत और फिर अमेरिका के पास गया था पर दोनों ने ये कर्ज देने के लिये मना कर दिया। फिर श्रीलंका आई एम एफ और वर्ल्ड बैंक के पास ना जाकर सीधे चीन के पास गया क्योंकि आई एम एफ और वर्ल्ड बैंक अपनी शर्तो के अनुसार किसी भी देश को लोन देते हैं और देश के भीतर इनका हस्तक्षेप बढ़ जाता है। पर चीन ने कर्ज बिना शर्तो के दिया। श्रीलंका ने कर्ज लेकर ये पोर्ट तो बना दिया पर अपनी सोच के अनुसार वो रेवन्यू (राजस्व) जनरेट नहीं कर पाया और ये प्रोजेक्ट फेल हो गया। चीन ने इस लोन को पुनः रिस्टक्चर किया पर श्रीलंका चीन को कर्ज वापस नहीं कर पाया तो चीन ने 2017 में इस पोर्ट को 99 साल की लीज पर कब्जे में लेते हुवे आज 70% का मालिकाना ले लिया और 30% श्रीलंका को दे दिया। तो आप स्वंय देखें कि चीन कहाँ से और कैसे जिम्मेदार है श्रीलंका के दिवालिया होने में।

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*भाग- 3*

असल में भारत की स्थिति श्रीलंका से बदतर है

दक्षिण एशिया में प्रति व्यक्ति आय (कुल जीडीपी को देश की कुल आबादी से भाग दे दीजिए प्रति व्यक्ति आय निकल आयेगी) के मामले में श्रीलंका दूसरे स्थान पर है। श्रीलंका में प्रतिव्यक्ति आय 3602 डालर यानी 277354 रूपया है और भारत में प्रतिव्यक्ति आय 2313 डालर यानी 178101 रूपया जो कि श्रीलंका से काफी कम है। ये आंकड़ा 2020 का है वर्तमान में भारत और श्रीलंका की प्रति व्यक्ति इनकम काफी घट गयी है पर इसके बावजूद भारत से ज्यादा ही है। यानी श्रीलंका की जनता के पास भारत की जनता से ज्यादा पैसा है। यानी, उनके सामान खरीदने की क्षमता भारत की जनता से बेहतर है पर वहाँ के बाजार में बिकने के लिये माल ही नहीं है क्योंकि श्रीलंका के पास विदेशी मुद्रा नहीं बची है। श्रीलंका के पास जो ढेर सारी मुद्रा है वो वहाँ की अपनी लोकल करेंसी है, जो कि देश के भीतर ही चल सकती है। और इसके उलट भारत के बाजार में माल पटा पड़ा है पर भारत की जनता के जेब में माल खरीदने के लिये धन नहीं। यानी भारत के पास फिलहाल विदेशी करेंसी तो है पर जनता के पास लोकल करेंसी नहीं है। यदि भारत की जनता की आय डेढ़ गुना कर दी जाये तो जनता अपनी जरूरतें पूरा करने के लिए इतना खरीददारी करेगी कि बाजार में माल ही नहीं बचेगा। देश में कल कारखाने नाम मात्र के बचे हैं वो भी विदेशी कारखानों के अर्ध तैयार माल पर आश्रित हैं। अत: जनता की जरूरतें पूरी करने के लिए विदेशों से भारी पैमाने पर माल मँगाना पड़ेगा। तब भारत के पास जो विदेशी करेंसी है उससे एक महीने का भी खर्च नहीं चल पाएगा। और भारत दीवालिया हो जाएगा। 

श्रीलंका पेट्रोलियम उत्पादों, दवाइयों और कई जरूरी सहित खाद्यान्नों के लिए विदेशी आयात पर पूर्णतः निर्भर हो गया, लेकिन विदेशी मुद्रा की कमी के कारण देश में सभी जरूरी वस्तुओं का आयात नहीं हो पा रहा है। लोग दाने-दाने के लिए भटक रहे हैं। जिन लोगों के पास पैसा है, वो भी सामानों की कमी के कारण आधे पेट रहने को मजबूर हैं। श्रीलंका में हाहाकार मचा हुआ है, कागज नहीं है जिससे अखबार नहीं छप पा रहा है, स्कूल में परीक्षा नहीं हो पा रही है कागज की कमी के कारण। श्रीलंका में ईंधन की भारी कमी हो गयी है। पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की कमी होने से सरकारी यातायात ठप पड़ा है और लोग निजी वाहनों का भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे क्योंकि ईधन तेल न होने से कई पेट्रोल पंप बंद पड़े हैं, जहां तेल मिल रहा है वहां सेना की मौजूदगी है ताकि भीड़ के कारण किसी तरह की अव्यवस्था न पैदा हो। हाल ही में श्रीलंका में तेल की लंबी लाइन में खड़े दो लोगों की मौत हो गई थी जिसके बाद श्रीलंका सरकार ने ये फैसला लिया।

श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार अप्रैल 2018 में करीब 10 अरब डॉलर का था। अप्रैल 2022 में ये घटकर 2 अरब डॉलर से भी कम बचा। सेंट्रल बैंक आफ श्रीलंका के आंकड़ो के अनुसार अप्रैल 2017 में 5.04 अरब डालर, अप्रैल 2018 में बढ़कर 9.93 अरब डालर, अप्रैल 2019 में घटकर 7.21 अरब डालर, अप्रैल 2020 में 7.21 अरब डालर उतना ही बरकार रहा, अप्रैल 2021 फिर और घटकर में 4.47 अरब डालर हो गया, अप्रैल 2022 में और घटकर 1.91 अरब डालर हो गया। और अब वर्तमान में शून्य हो गया जिससे श्रीलंका ने अपने को दिवालिया घोषित कर दिया।

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*भाग- 4*

विदेशी मुद्रा भंडार पर जरा भारत की स्थिति देखें- रिजर्व बैंक के द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 11 मार्च 2022 को समाप्त सप्ताह में 9.646 अरब डॉलर घटकर 622.275 अरब डॉलर पर आ गया। इससे पूर्व तीन सितंबर, 2021 को समाप्त सप्ताह में विदेशी मुद्रा भंडार 642.453 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर जा पहुंचा था। पिछले महीने 29 अप्रैल 2022 को खत्म हुए कारोबारी हफ्ते में विदेशी मुद्रा भंडार 597 अरब डॉलर पर आ गया था। पिछले छह-सात महीने में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 44.73 अरब डॉलर कम हुआ है। सांस्थायिक विदेशी निवेशकों के पैसा निकालने की वजह से विदेशी मुद्रा कम हो रहा है। 

श्रीलंका की स्थिति ठीक कैसे होगी? श्रीलंका में जब राजनैतिक स्थिरता आ जायेगी और वंहा नये सरकार का गठन हो जायेगा तो वो सरकार बेल आउट पैकेज और कर्ज लेने विश्व बैंक या आई एम एफ की शरण में जायेगा तो दोनों अपनी शर्तो के हिसाब से पैसा देंगी और श्रीलंका आईएमएफ/वर्ल्ड बैंक के चंगुल में फंस जायेगा और उन्हीं के अनुसार श्रीलंका नियम-कानून बना कर देश चलाएगा। 

श्रीलंका पर जीडीपी का 111.4% कर्ज और भारत अपनी जीडीपी का 90.6% कर्ज है मगर भारत की आबादी श्रीलंका से 64 गुना बड़ी है जब कि भारत की जीडीपी सिर्फ 32 गुना बड़ी है। प्रतिव्यक्ति जीडीपी के आधार पर भारत में प्रति व्यक्ति कर्ज श्रीलंका से अधिक है। इस तरह देखा जाए तो भारत श्रीलंका से भी अधिक दयनीय स्थिति में है। जिस तरह श्रीलंका से विदेशी पूंजी एकाएक भागने लगी थी उसी तरह भारत से भी विदेशी पूंजी भाग रही है। एनआरआई और निवेशक (इन्वेस्टर) तेजी से अपना धन निकाल रहे‌ हैं। पिछले 4 महीने में कई कम्पनियां भारत से अपना कारोबार समेट दूसरे देश चली गयी हैं और लगातार निकलना जारी है। भारत से विदेशी पूँजी जो कंपनियों के रूप में और शेयर बाजार के जरिये विदेशी पूँजी लगी है वो अपनी पूँजी भारत से निकाल रहें हैं। जिससे भारत की विदेशी मुद्रा भंडार लगातार कम होता जा रहा है।  एक साल के बीतते-बीतते भारत का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर आधे से कम हो जायेगा। रूपया की कीमत और गिरेगी 100 के नजदीक पहुंचेगा। पेट्रोल-डीजल भी 200 रुपये को साल बीतते-बीतते छूने लगेगा। 

केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने पिछले साल संसद में बताया कि देशभर में साल 2014 के बाद से अभी तक करीब 2783 विदेशी कंपनियां ने भारत में अपना बिजनेस बंद किया है। आगे बताते हैं कि पिछले 7 साल में 10,756 विदेशी कंपनियों ने भारत में अपना बिजनेस शुरू किया। यह आंकड़े 30 नवंबर, 2021 तक के हैं और इधर का आंकड़ा जारी होगा तो पता चलेगा कि अधिकतर कंपनियां अपनी पूँजी लेकर जा चुकी हैं। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार यूं ही नहीं कम हुवा है। पिछले छह-सात महीने में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 44.73 अरब डॉलर कम होना बहुत कुछ दर्शाता है।

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*भाग- 5*

वित्त मंत्रालय द्वारा जारी सितंबर के आंकड़ों के मुताबिक, सितम्बर 2022 में 256 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज की अदायगी करनी है। यह सितंबर में बकाया 596 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का करीब 43 फीसदी है। यानी इसी 596 अरब डालर में से ही 256 अरब डालर कर्ज दिया जायेगा। ये तो कर्ज का एक हिस्सा है और जो भारत लगातार बाहर से सामग्री आयात करता जा रहा है उसमें भी अच्छी खासी विदेशी मुद्रा भंडार कम होगा। आर बी आई के एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के पास जो विदेशी मुद्रा भंडार बचा है वो मात्र 10 महीने की खरीदारी भर का ही है। 

भारत निर्यात भी करता है जिससे विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता है पर निर्यात के मुकाबले कहीं ज्यादा माल खरीदता है भारत। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के मुताबिक भारत का व्यापार घाटा 2021-22 में 87.5 प्रतिशत बढ़कर 192.41 अरब डॉलर हो गया है। इससे पूर्व वित्त वर्ष में यह 102.63 अरब डॉलर था। पिछले वित्त वर्ष में निर्यात रिकॉर्ड 417.81 अरब डॉलर रहा। जबकि आयात भी बढ़कर 610.41 अरब डॉलर पर पहुंच गया। इससे व्यापार घाटा 192.41 अरब डॉलर रहा। यह व्यापार घाटा 192.41 से कहीं ज्यादा इस साल के अन्त तक बढ़ जायेगा। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार 596 अरब डॉलर में से सितम्बर में 256 अरब डालर कर्ज दे दिया जायेगा और 200 अरब डालर से ऊपर व्यापार घाटे की रकम चली जायेगी तो भारत के पास कितना भंडार बचेगा? यदि आप सोचते हैं कि भारत जो सामान निर्यात करेगा तो उससे विदेशी मुद्रा मिलेगी ही और उससे भंडार में बढ़ोत्तरी भी होगी। जो ऊपर 192.41 अरब डालर की रकम बताई गयी है वो व्यापार घाटे की है यानी आयात से मिली रकम निकाल कर है। व्यापार घाटे की रकम विदेशी मुद्रा भंडार में से ही जानी है। पहले के मुकाबले हर साल भारत से सामान आयात करना कम होता जा रहा है और निर्यात बढ़ता जा रहा है यानी व्यापार घाटा बढ़ता ही जा रहा है श्रीलंका की तरह। अब इसके बाद कर्ज अदायगी और आवश्यक सामान के खरीददारी के लिये विदेश से और कर्ज लेगा और देश के अन्दर खरीदारी के लिये नोट छापेंगे जिससे महंगाई के साथ-साथ और समस्याएं बढ़ेंगी जैसे श्रीलंका में बढ़ी है। 

आई एम एफ, वर्ल्ड बैंक समेत तमाम विदेशी बैंकों के कर्ज के दलदल में भारत फंसता ही जा रहा है और उन्हीं की नीतियों के हिसाब से देश की नीतियों का निर्धारण करता जा रहा है। इसका सबसे बड़ा उदहारण 1991 में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की विश्व व्यापार संघटन की नीति को ही भारत अपनी नीतियों में शामिल कर देश की सम्पदा विदेशियों के हवाले कर दिया और निजीकरण भी उसी नीति का नतीजा है। दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण तीनों कृषि कानून जिसको लेकर दिल्ली को तीन तरफ से किसानों ने घेर लिया था। ये कृषि कानून भी उन्हीं की नीतियों के तहत लाया गया था। तो भारत अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये जितना भी आई एम एफ, वर्ल्ड बैंक समेत तमाम विदेशी बैंकों के कर्ज लेगा उतना ही भारत के मेहनतकश जनता के लिये आत्मघाती होता जायेगा क्योंकि ये बैंकें देश के भीतर की नीतियों में हस्तक्षेप की शर्त पर ही कर्ज देती हैं।

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*भाग- 6*

यह एक तरह से भारत गुलामी की तरफ बढ़ रहा है। कुछ लोग सोचते हैं कि गुलामी का मतलब हाथ-पांव में बंधी हुई जंजीरें। इतिहास कभी पीछे नहीं जाता अलबत्ता इतिहास अपने को दोहराता जरूर है। प्रकृति का एक सिद्धान्त है कि “सरलता से जटिलता की ओर” यानी सरल चीजें पहले आयेंगी और धीरे-धीरे जटिलता की ओर बढ़ते हुवे चीजें जटिल हो जाएंगी। इसको हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं, बच्चे से जवान होते हुवे मनुष्य बुड्ढा होगा ना कि बुड्ढे से बच्चा! बच्चा सरल होता है और बुड्ढा जटिल तो सरल चीजें पहली आएंगी फिर जटिल। तो इतिहास में गुलाम जंजीरों में बांधे जाते थे पर जैसे-जैसे समय बीतता गया और गुलामी ने तरीका बदल लिया और गुलामी ने अब जंजीरों की जगह दूसरा रूप ले लिया। हाथ-पैर में बेड़ियाँ बांधना सरल है पर उसके बाद की वित्तीय पूँजी के जरिये गुलामी बड़ा ही जटिल है। आज साम्राज्यवादी शक्तियां इन्हीं बैंको के जरिये अपनी वित्तीय यानी आवारा पूँजी के बल पर हमको-आपको गुलाम बना रहीं हैं क्योंकि राजनीति का काम अर्थनीति की सेवा करना है और यंहा महत्वपूर्ण यह है कि अर्थनीति पर नियंत्रण किसका है? यही अर्थनीति ही देश की दशा और दिशा तय करती है कि देश किस ओर जायेगा।

भारत और श्रीलंका की अर्थनीति और राजनीति में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है, सामाजिक ढांचा भी वैसा ही है। श्रीलंका की तरह भारत में बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार…. चरम अवस्था में है, पर भारत की स्थिति श्रीलंका से बद से बदतर है, जनता रोजगार, महंगाई भ्रष्टाचार…. पर सरकार से सवाल ना करे और सरकार के खिलाफ जनता सड़कों पर न उतरे इसके लिए कालेधन की ताकत झोंककर धर्म के नाम पर दंगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। अभी चन्द महीने पहले रामनवमी पर कई राज्यों में दंगे, उसके बाद मेहनतकश जनता के ऊपर धर्म के आधार पर बुलडोजर, फिर ताजमहल के 22 कमरे फिर बनारस में ज्ञानवापी मस्जिद में कोर्ट के आदेश पर सर्वे और मस्जिद में तथाकथित शिवलिंग, अब आगे जैसे ही मामला ठंडा होने लगेगा मथुरा में शाही मस्जिद की बारी आयेगी फिर कुतुबमीनार की बारी फिर दिल्ली में जामा मस्जिद की बारी आयेगी, इसके बाद कोई और मस्जिद हो सकता है मंदिर भी ले आयें तो कोई ताज्जुब नहीं और अन्य धार्मिक मुद्दे लेकर आयेगा ये शासक वर्ग। ऐसे ही चलता रहा तो जल्द ही भारत में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो जायेंगे पूरे भारत में और यही शासक वर्ग चाहता भी है। इस सांप्रदायिक दंगे से शासक वर्ग को राहत मिलेगी क्योंकि जनता महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी…. को भूलकर हिन्दू-मुसलमान, गाय-गोबर, गंगा, मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरद्वारा…. पर उलझ जाएगी पर इससे विदेशी निवेशक अपनी पूँजी लेकर देश से भाग जायेगा क्योंकि उसे दंगों से नुकसान होगा पर भारत के शासक वर्ग के पास और कोई चारा नहीं।

श्रीलंका की स्थिति ऐसी हुई क्यूँ? भारत की तरह श्रीलंका भी एक पिछड़ा हुआ अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक देश है इसमें भारत की तरह सामंतवाद की बुनियाद पर पूंजीवादी विकास की कोशिश हो रही है। चूंकि पूंजीवादी व्यवस्था में मुट्ठीभर लोगों द्वारा मुट्ठीभर लोगों के लिए मुट्ठीभर ही उत्पादन होता है, मुट्ठीभर लोगों के लिये ही उत्पादन के कारण मुनाफा भी मुट्ठीभर लोगों का ही होता है इसलिये मुट्ठीभर मुनाफा पाए लोग ही इस व्यवस्था में खुशहाल रहते हैं। चूंकि उत्पादन ही थोड़ा सा होता है इसलिये उत्पादन की प्रक्रिया में मुट्ठीभर मजदूरों को ही रोजगार मिलता है इसलिए बहुसंख्यक जनता बेरोजगार रहती है। चूंकि थोड़ा सा ही उत्पादन होता है इसलिए मंहगाई बढ़ाकर थोड़े ग्राहकों से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। यही है पूँजीवादी व्यवस्था। इसी व्यवस्था से ही भारत-अमेरिका समेत विश्व के सभी पूंजीवादी देशों के शासक वर्ग इसी व्यवस्था को आदर्श मानते हैं। इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष कि जो कोई काम नहीं करता वही उत्पादन के संसाधनों का मालिक होता है, और जो मेहनत से काम करता है उसे उतना ही दिया जाता है कि वह अगले दिन काम पर वापस आ जाये और उसके काम ना कर पाने की स्थिति में उसका बेटा सयाना होकर काम पर आ सके। अब चूंकि उस काम करने वाले को उतना ही दिया जाता है जितने से वो जीवित रह सके। तो जनता उतना ही खरीदारी कर पाती है जितना जिन्दा रहने के लिए अतिआवश्यक हो या जिसके बिना काम ना चल पाये। इस कारण पूंजीवादी व्यवस्था कुछ समयान्तराल पर मंदी की चपेट में ख्वहामखा आ ही जाती है।

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